उच्चतम न्यायालय का तीन तलाक़’ को भरपूर तमाचा !

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

 डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय का एक विश्लेषणात्मक आलेख-


ऐसा कोई सम्प्रदाय नहीं है, जो मानवीयता का उपहास करता हो और एकपक्षीय विधान की व्यवस्था करता हो। सृष्टि में मात्र दो जातियाँ हैं :— प्रकृति (नारी) और पुरुष। ऐसे में, समाज में दोनों का समान स्तर है और समान प्रतिष्ठा है। यह अलग विषय है कि समाज के अधिकतर लोग महिला की तुलना में स्वयं की महत्ता को बढ़कर समझते हैं। हिन्दू-सम्प्रदाय में ‘नारी’ को शीर्षस्थ स्थान प्राप्त है। यही कारण है कि देवी-देवता का जब भी एक साथ नाम आता है तब सर्वप्रथम ‘मातृशक्ति’ का नाम आता है। जैसे :— सीता-राम, राधा-कृष्ण, गौरी-गणेश आदिक। वहीं मुसलिम सम्प्रदाय में पुरुष-वर्ग का वर्चस्व महिला-वर्ग को नीचा दिखाने का प्रयास करता है। यही कारण है कि मुसलिम पुरुष अपने ग्रन्थ ‘क़ुरआन’ की अवहेलना करते हुए, ‘तीन तलाक़’ की आड़ में घृणित खेल खेलते आ रहे हैं।
‘क़ुरआन’ स्पष्ट निर्देश करता है कि जहाँ तक सम्भव हो, ‘तलाक़’ न दिया जाये। तलाक़ देना यदि ज़रूरी और अनिवार्य हो तो कम-से-कम इसकी प्रक्रिया न्यायिक हो। ‘क़ुरआन’ में एकपक्षीय समझौता का प्रयास किये बिना दिये गये तलाक़ का कहीं-कोई उल्लेख नहीं है। ‘क़ुरआन’ में तलाक़-प्रक्रिया का समय और अवधि का भी उल्लेख है। एक ही क्षण में तलाक़ देने का प्रश्न ही नहीं है। पत्र लिखकर, मोबाइल पर, ह्वाट्सएप पर एकतरफ़ा और ज़बानी तलाक़ को इसलाम इजाज़त नहीं देता। एक बैठक में अथवा एक ही वक़्त में तलाक़ देना, ‘ग़ैर-इस्लामिक’ है।
‘क़ुरआन के सूरेह निसा ३५’ में कहा गया है,”अगर तुम्हें शौहर-बीवी में फूट पड़ जाने का अन्देशा हो तो एक हकम (मध्यस्थ) मर्द- जाति में से और एक औरत-जाति
में से मुक़र्रर कर दो। अगर शौहर-बीवी सुलह चाहेंगे तो अल्लाह उनके बीच सुलह करा देगा। बेशक, अल्लाह सब-कुछ जाननेवाला और सबकी ख़बर रखनेवाला है।”
दूसरी ओर, अपने अल्लाह के अनुशासन की उपेक्षा करनेवाले मुसलमानों के पास अपनी बीवियों को पराजित कर, स्वेच्छाचारिता का परिचय देने के लिए एक ऐसा अमोघ अस्त्र था, जिसका वे पिछले १,४०० वर्षों से ‘ब्रह्मास्त्र’ के रूप में प्रयोग करते आ रहे थे। औरतों के पास ऐसा कोई ठोस उपाय नहीं था, जिसका सहारा लेकर वे प्रतिकार कर सकने की स्थिति में स्वयं को पातीं। यही कारण था कि सोते- जागते, जिस किसी भी समय मुसलिम सम्प्रदाय के लोग “तलाक़! तलाक़!! तलाक़!!!” के तीन शाब्दिक चाँटे अपनी औरतों के गालों पर मार दिया करते थे कि उसका दाग़ ताउम्र तरोताज़ा बना रहता था। तलाक़ से आहत औरतें जब भी शीशे में अपना चेहरा देखती थीं तब उनके गाल ‘तीन तलाक़’ के अफ़साने बयाँ करने लगते थे। आज ‘तीन तलाक़’ के नरक में धकेली गयी हज़ारों की संख्या में ऐसी औरते हैं, जो घिसट-घिसट कर अपनी ज़िन्दगी जीने के लिए मज़बूर हैं।
कितना आश्चर्य होता है, जब हम निकाह के समय किये गये वादों-क़समों को टूटते हुए पाते हैं। निकाह के समय पुरुष वैवाहिक जीवन की ज़िम्मेदारियों को उठाने की शपथ लेता है और एक निर्धारित धनराशि, जो आपसी बातचीत के आधार पर तय की जाती है, उसे शौहर ‘मेहर’ के रूप में अपनी ‘बीवी’ को देता है। इस तरह पति-पत्नी के नये सम्बन्ध की घोषणा कर दी जाती है। इसके बिना किसी मर्द और औरत का साथ रहना और यौन-सम्बन्ध स्थापित करना, एक बहुत बड़ा अपराध माना गया है।
अब सारी विसंगतियों को समाप्त करने की दिशा में जिस ‘तीन तलाक़’ की समाप्ति के न्यायिक निर्णय की अनुगूँज आज सम्पूर्ण विश्व में हो रही है, वह मुसलिम महिलाओं के लिए किसी ख़ौफ़नाक दोज़ख़ में धकेलनेवाले ‘तीन तलाक़’ के ख़िलाफ़ सुनायी पड़ती है।
तलाक़ के अनेक रूप दिखते हैं :— पहले तलाक़ को ‘अल सुन्ना’ और दूसरे को ‘तलाक़ अल बिदत’ का नाम दिया गया है। पहले प्रकार के तलाक़ को पैग़म्बर मुहम्मद साहिब के हुक़्म के अनुसार दिया जाता है और दूसरे प्रकार का तलाक़ पैग़म्बर के सख़्त हुक़्म से बचने के लिए बनाया गया है, जिसका रूप मौखिक और लिखित तलाक़ ने ले लिये हैं।
अब किसी और की बेटी उस ‘दोज़ख़’ की आग में न जलने पाये, इसे देखते हुए, देश की ही पाँच बेटियों ने अपने जायज़ हक़ पाने के लिए अदालत के दरवाज़े खटखटाये थे और लम्बे समय तक ‘धार्मिक कठमुल्लेपन’ का कष्टसाध्य संघर्ष करती रहीं और २२ अगस्त, २०१७ ई० का दिन उनके लिए ‘बेहद ख़ुशियों का सौग़ात’ लेकर आ गया था! इस प्रकार ‘कठमुल्लापन’ की हार हुई है और मातृशक्ति की जीत हुई है। हम इसका श्रेय देश के शीर्षस्थ न्यायालय ‘उच्चतम न्यायालय’ को भी देंगे, क्योंकि फ़ोन, एस०एम०एस०, ख़त, ह्वाट्सएप, स्काईप तथा अख़बारात में दिये गये विज्ञापनों के माध्यम से दिये गये तलाक़ों और मुसलिम समाज के ‘तीन तलाक़’ की एकपक्षीय नीति का स्वत: संज्ञान उसने लिया था। देश का शासन-तन्त्र भी साधुवाद का पात्र है, जिसने ‘तीन तलाक़’ का समर्थन नहीं किया है, कारण कुछ भी रहा हो।
यों तो शायरा बानो, इशरत जहाँ, ज़ाकिया सोमन, आफ़रीन रहमान तथा गुलशन परबीन— इन पाँचों औरतों ने न्याय पाने के लिए उच्चतम न्यायालय में अपने तलाक़ के प्रकरण प्रस्तुत किये थे। पाँचों में से तीन याचिकाओं में ‘तीन तलाक़’ को समाप्त करने की माँग की गयी थी, परन्तु जिस प्रथम महिला ने अपने साहस का परिचय देते हुए, सर्वप्रथम उच्चतम न्यायालय में अपनी याचिका प्रस्तुत की थी, वह है, ‘शायरा बानो’। शायरा बानो काशीपुर, उत्तराखण्ड की है, जिसका निकाह वर्ष २००२ में इलाहाबाद के रिज़वान अहमद के साथ हुआ था। लगभग १३ वर्षों तक वैवाहिक जीवन जीने के बाद सायरा को ससुराल की ओर से प्रताड़ित किया जाने लगा था। उसे नशीली दवाएँ भी दी जाती थीं। अन्तत:, वर्ष २०१५ में रिज़वान ने ‘तीन तलाक़’ का तमाचा मारते हुए, शायरा से तलाक़ ले लिया था। असहाय शायरा को अन्ततोगत्वा उच्चतम न्यायालय की शरण में आना पड़ा और उसने फरवरी, २०१६ में अपने ससुरालवालों पर गम्भीर आरोप मढ़ते हुए, एक याचिका प्रस्तुत की थी। १२-१८ मई, २०१६ ई० को मुख्य नयायाधीश जे० एस० खेहर की अध्यक्षता वाली संविधानपीठ के समक्ष प्रकरण की सुनवाई हुई थी। उसके बाद संविधानपीठ ने अपना निर्णय सुरक्षित कर लिया था।
शेष चारों औरतों की याचिकाओं के माध्यम से प्रभावकारी तर्कों और महिला-संघटनों के तार्किक आन्दोलन और केन्द्र-शासन के समर्थन का जो प्रभाव उच्चतम न्यायालय पर पड़ा, उसका परिणाम उच्चतम न्यायालय-द्वारा २२ अगस्त को सुनाये गये अति महत्त्वपूर्ण निर्णय के रूप में सामने आया है। ‘तीन तलाक़’ के विरोध में न्यायिक सुनवाई का विरोध कर रहे ‘मुसलिम पर्सनल बोर्ड’ और ‘जमीयत ए उलेमा ए हिन्द’ की ओर से जो दलीलें रखी गयी थीं, वे बेअसर रहीं। सुनवाई के दौरान संविधानपीठ ने ‘मुसलिम पर्सनल बोर्ड’ से प्रश्न किया था— क्या निकाह के वक़्त ही मॉडल निकाहनामे में महिला का तीन तलाक़ न क़ुबूल करने का विकल्प दिया जा सकता है? इस पर बोर्ड का उत्तर था— निकाह के समय न सिर्फ़ लड़की को तीन तलाक़ को न कहने के विकल्प की जानकारी दी जायेगी, बल्कि ‘मॉडल निकाहनामे’ में इसे एक विकल्प के रूप में भी शामिल किया जायेगा। न्यायालय के कहने पर बोर्ड ने इस सम्बन्ध में ‘शपथपत्र’ भी प्रस्तुत किया था।
याचिकाकर्त्रियों ने न्यायपटल पर अपने जो तर्क रखे थे, वे इस प्रकार हैं :——-
१- ‘क़ुरआन’ में तीन तलाक़ का उल्लेख नहीं है।
२- यह ग़ैर-क़ानूनी और ग़ैर-इस्लामिक है।
३- तीन तलाक़ महिलाओं के साथ भेद-भाव है। इसे ख़त्म किया जाये।
४- जहाँ पुरुष जब-जहाँ चाहें, महिलाओं को तलाक़ देने के लिए आज़ाद हैं, वहीं महिलाओं को तलाक़ लेने के लिए कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने पड़ते हैं।
प्रतिवादी ‘मुसलिम पर्सनल बोर्ड’ के अपने अलग तर्क थे। उनका कहना था :——-
१- यद्यपि तीन तलाक़ अवांच्छित है तथापि वैध है।
२- यह ‘पर्सनल लॉ’ का एक हिस्सा है; न्यायालय इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
३- ‘पर्सनल लॉ’ को मौलिक अधिकारों की कसौटी पर नहीं परखा जा सकता।
४- तीन तलाक़ १,४०० सालों से चली आ रही एक ऐसी प्रथा है, जो आस्था का एक विषय है। संवैधानिक नैतिकता और समानता का सिद्धान्त इस पर लागू नहीं है।
५- तीन तलाक़ को ‘पर्सनल लॉ’ मान्यता देता है। तलाक़ के बाद तलाक़शुदा औरत के साथ रहना ‘पाप’ है। धर्मनिरपेक्ष न्यायालय इस पाप के लिए ‘बाध्य’ नहीं कर सकता।
संविधानपीठ ने प्रतिवादीगण से निम्नांकित प्रश्न किये थे :——–
१- क्या तीन तलाक़ इस्लाम का अभिन्न का हिस्सा है?
२- जो चीज़ अल्लाह की नज़र में ‘पाप’ है, वह इंसान-द्वारा बनाये गये क़ानून में ‘वैध’ कैसे हो सकता है?
३- क्या निकाहनामे में किसी महिला को ‘तीन तलाक़’ को न कहने का हक़ दिया जा सकता है?
४- अगर हर तरह का तलाक़ ख़त्म कर दिया जाये तो पुरुषों के पास क्या विकल्प रहेगा?
उक्त सारी प्रक्रियाओं से ग़ुज़रने के बाद उच्चतम न्यायालय की संविधानपीठ ने अपना जो क्रान्तिकारिक निर्णय तैयार किया था, उसकी एक प्रमुख विशेषता थी; और वह यह कि पाँच न्यायाधीशों की संविधानपीठ में अलग-अलग पाँच सम्प्रदायों के न्यायाधीश थे। मुख्य न्यायाधीश जे० एस० खेहर (सिक्ख), कुरियन जोसेफ़ (ईसाई), रोहिंग्टन कुरियन नरीमन (पारसी), यू० यू० ललित (हिन्दू) तथा अब्दुल नज़ीर (मुसलमान)। इन पाँचों में से तीन न्यायाधीशों ने सुस्पष्ट शब्दों में ‘तीन तलाक़’ के औचित्य के विरुद्ध अपना निर्णय सुनाया था— हम अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए, ‘तीन तलाक़’ को ‘असंवैधानिक’ बताते हुए, केन्द्र-सरकार को निर्देश करते हैं कि वह छ: माह के भीतर क़ानून बनाये। जिन दो न्यायाधीशों ने ‘तीन तलाक़’ की असंवैधानिकता का विरोध किया था, उनमें मुख्य न्यायाधीश जे० एस० खेहर और न्यायाधीश अब्दुल नज़ीर थे। उन दोनों का तर्क था :—- तीन तलाक़ धार्मिक कृत्य है, इसलिए न्यायालय को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। ऐसा करना ‘पाप’ होगा। संविधानपीठ ने यह भी कहा था— वह फ़िलहाल, एक बार में ‘तीन तलाक़’ पर विचार कर रहा है; ‘बहु विवाह’ और निकाह-हलाला पर बाद में विचार किया जायेगा। उक्त संविधानपीठ ने सभी के तर्क सुनने के बाद अपना निर्णय सुरक्षित कर लिया था।
ऐसा नहीं है कि इस विषय पर उच्चतम न्यायालय ने ही संज्ञान लिया है। इससे पूर्व २००८ में दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश दुरेज अहमद ने अपना निर्णय सुनाया था— भारत में तीन तलाक़ को एक तलाक़ (जिसे वापस लिया जा सकता है।) समझा जाना चाहिए। गुआहाटी उच्च न्यायालय ने ज़ियाउद्दीन बनाम अनवरा बेग़म के मामले में फ़ैसला सुनाया था— तलाक़ के लिए पर्याप्त आधार होना चाहिए और सुलह की कोशिशों के नाकाम हो जाने के बाद ही तलाक़ होना चाहिए। २०१६ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा था— तीन तलाक़ मुसलिम महिलाओं के विरुद्ध क्रूरता है।
इससे स्पष्ट हो चुका है कि मुसलिम महिलाओं को अब सामाजिक ताक़त भी मिलेगी और अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए नैतिक समर्थन भी प्राप्त होगा।
हाँ, उच्चतम न्यायालय ने अपने अनन्य और ऐकान्तिक निर्णय से केन्द्र-शासन को उसके अपने गम्भीर दायित्व के प्रति सजग कर दिया है, क्योंकि ‘तीन तलाक़ को लागू कराने के विरुद्ध’ ‘कठोर अधिनियम’ बनवाने की ज़िम्मेदारी केन्द्र-सरकार की है। इसके लिए सत्ता से जुड़े प्रमुख लोग को ‘तीन तलाक़’ से उत्पन्न समस्त विसंगतियों पर गम्भीरतापूर्वक दृष्टि निक्षेपित करनी होगी, ताकि मुसलिम महिलाएँ.आजीविका और सन्तान के भरण-पोषण के लिए दर-दर भटक न सकें। दूसरी ओर, प्रतिवादियों की ओर से संविधानपीठ के निर्णय के विरुद्ध ‘समीक्षा-याचिका’ प्रस्तुत करने का अधिकार है। यदि उनकी समीक्षा निरस्त हो जाती है तो ‘उपचारात्मक याचिका’ प्रस्तुत की जा सकती है। ऐसे में, सुनवाई के लिए उक्त पाँच न्यायाधीशों के अतिरिक्त दो और न्यायाधीश होंगे। वहीं ‘मुस्लिम पर्सनल बोर्ड’ और अन्य मुस्लिम संघटन ‘पर्सनल लॉ’ में ऐसे संशोधन करने का प्रयास करेंगे, जिसके प्रभाव के कारण कोई बाहरी हस्तक्षेप न कर सके।
फ़िलहाल, केन्द्र-शासन तीन तलाक़ के विरुद्ध अधिनियम बनवाने से कतरा रहा है। इसे ‘वोट की राजनीति’ के रूप में भी देखा जा रहा है। वहीं एक प्रश्न उठ खड़ा होता है—- जब देश के प्रधान मन्त्री ने खुले शब्दों में ‘तीन तलाक़’ का विरोध किया था तब उसके लिए ‘क़ानून’ बनवाने से डर क्यों रहे हैं?