सुशील राकेश (कन्नौज निवासी, वरिष्ठ साहित्यकार)-
आज गंगा की रवानी और
बहते जलधारा की जवानी भी देखी ।
साधु संतों के खिचड़ी के भोज
पुलिस का बकौल इंतजाम
हमारी उबलती आस्था
कुत्ते के जमघट का बोझ
सब कुछ ही रजत बालुका में लोटम लोट ।
हर तखत पर काबिज पंडों का झंडा
झंडे में छाता लोटे का लटकन
कहीं पीला
कहीं नीला
कहीं लाल का फटका
लहराता
जैसे मंदिरों का झंडा
चीनी के राज वाला खोए का पेड़ा
ऐसा है गाँव के किनारों से बहती गंगा का
बहुत स्वच्छंद आचरण का बेड़ा
एक युवक ने धोया गंगा में खिचड़ी का बर्तन
वहीं रहा कौओं का नर्तन
मैंने भी डालें पेड़े के कतरन
कौओं ने खूब किया आपसे में घर्षण
कुत्तों की टूटी उन पर जमात
उड़ गये कौए दिखाया पिछौड़ा
गंगा का चंचल जल खूब लहलहाया ।
खूब फैले कागज़ के परिंदे
सब में भरा गंदगी का मिजाज
देखने में वीभत्स बदबू का सागर
वहीं रो रहा जल स्नान में एक छोकरा
बाबू ने बाहों में रखा बांध
बार -बार
डुबकी चल रही
वह न जाने कौन-कौन पापों को धो रहा
गंगा का मंज़र बना बंकर
हो रहा किनारा बड़ा ही लफद्दर ।
आशु ने ठंड में डुबकियां लगायीं
शिवम में मकर संक्रांति की प्रार्थना का
अवधूत समाया
खड़ा-खड़ा मैं गंगा की जलधार देखता रहा
अजब-गजब आचरणों को ढोती हुई माँ
कितनी खुश होतीं हैं अपने लालों को देख।