
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
‘शिव’ का अर्थ कल्याण, शुभ, मंगल इत्यादिक है। शिव की दो काया मानी गयी है :– सूक्ष्म और स्थूल। जिसका प्रकटीकरण स्थूल रूप मे होता है, वह ‘स्थूल काया’ है और जिसका प्रकटीकरण सूक्ष्मरूपी लिंग के रूप मे हो, वह ‘सूक्ष्म काया कहलाती है। हमारा समाज शिव के साथ जुड़े शब्द ‘लिंग’ को लेकर अत्यन्त भ्रमित है। लिंग ‘गति करना’ के अर्थ मे ‘लिंग्’ धातु का शब्द है, जिसमे ‘घञ्’ प्रत्यय के जुड़ने से ‘लिंग’ शब्द का सर्जन होता है। इसका अर्थ ‘लक्षण’ वा ‘चिह्न’ होता है, यद्यपि लिंग पुरुष की जनेन्द्रिय के रूप मे दिखता है। शिवलिंग का अर्थ है, ‘शिव का प्रकृति के साथ समन्वित चिह्न’।
शिव-स्वरूप पर दृष्टिपात करने पर हमे एक शिवरूप दिखता है; परन्तु वेश-भूषा भिन्न-भिन्न लक्षित होती है। हमे शिव-वेशभूषा के अन्तर्गत जटाएँ, चन्द्रमा, भस्म, त्रिनेत्र, सर्पहार, मुण्डमाला, त्रिशूल, डमरू, वृषभ तथा छाल दिखती हैँ, जिनकी एक निश्चित अवधारणा होती है। शिव की ‘जटाएँ’ ‘अन्तरिक्ष’ का प्रतीक मानी जाती हैँ। शिव के सिर पर जो ‘चन्द्रमा’ दिखता है, उसके कारण उनका नामकरण ‘शशिधर’ किया गया है। चन्द्रमा ‘मन’ का प्रतीक है; क्योँकि मान्यता है कि शिव का मन चन्द्रमा की भाँति जाग्रत्, शीतल तथा समुज्ज्वल है। शिव के मस्तक-प्रान्त से लेकर सम्पूर्ण शरीर मे जो ‘भस्म’ का लेपन किया गया रहता है, वह इस बात का प्रतीक होता है कि संसार ‘नश्वर’ है। शिव ‘तीन आँखोँ ‘ के कारण ‘त्रिलोचन’ कहलाते हैँ, जो त्रिगुण :– सत्, रज एवं तम; त्रिकाल :– भूत, वर्तमान एवं भविष्य तथा त्रिलोक :– स्वर्ग, मर्त्य एवं पाताल के प्रतीक माने गये हैँ। शिव जिस ‘सर्प’ को धारण किये रहते हैँ, वह ‘तमोगुण’ का प्रतिनिधित्व करता है। शिव का उस पर नियन्त्रण रहता है। शिव के गले मे जो ‘मुण्डमाला’ रहता है, वह इस बात का सूचक है कि उन्होँने मृत्यु पर अपना नियन्त्रण पा लिया है, इसीलिए शिव को ‘मृत्युंजय’ भी कहा जाता है। शिव का ‘त्रिशूल’ धारण करना, इस बात की ओर संकेत करता है कि त्रिशूल त्रिताप :– दैहिक, दैविक एवं भौतिक को नष्ट कर देता है। शिव अपने एक हाथ मे ‘डमरू’ लिये रहते हैँ, जिसका वादन वे ‘ताण्डव नृत्य’ करते समय करते हैँ। डमरू की ध्वनि ब्रह्मा के रूप से जोड़ती है। ‘वृषभ’ शिव का वाहन है, जिसपर आसीन होकर शिव विचरण करते हैँ। वृषभ इस बात को प्रकट करता है कि वह धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष प्रदाता है। शिव का शरीर ‘व्याघ्र-चर्म’ से ढका रहता है। व्याघ्र हिंस्र पशु होता है, जिसे हिंसा और अहंकार का सूचक माना गया है। इसप्रकार शिव की वेशभूषा मे ही ‘समग्र सृष्टि’ का अनुभव किया जा सकता है।
वास्तव मे, जो शिवभक्त होता है, वह ‘शिवमय’ रहता है और जो शिवमय रहता है, वह रोग, शोक-संताप, मृत्यु आदिक से परे रहता है। उसके मन-प्राण मे शिवतत्त्व बसा रहता है; क्योँकि वह शिवतत्त्व का ध्यान पाने के लिए महामृत्युंजय-मन्त्र का उच्चारण करता रहता है :– ऊँ ह्रीं जूं स: भूर्भुव: स्व:,
ऊँ त्र्यम्बकंस्यजामहे, सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्न मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्।।
ऊँ स्व: भुव: भू: ऊँ स: जूं हौं ऊँ।”
इस मन्त्र का श्रद्धापूर्वक जाप करने से भक्त सर्व-व्याधि से मुक्त हो जाता है :–
“ऊँ मृत्युञ्जय महादेव त्राहिमां शरणागतम्।
जन्म मृत्यु जरा व्याधि पीड़ितं कर्मबन्धन:।।”
महाशिवरात्रि भारतवासियोँ का एक प्रमुख पर्व है, जो अभयंकर-प्रलयंकर आदिदेव-महादेव शिव-अभ्यर्थना के लिए आयोजन किया जाता है। यह पर्व फाल्गुन-मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है। पौराणिक मान्यता है कि उसी तिथि मे सृष्टि का आरम्भ हुआ था। इस महापर्व की महत्ता इसलिए भी विशेष है कि उसी तिथि मे भगवान् शिव और भगवती पार्वती का परिणय-संस्कार हुआ था। यही कारण है कि महाशिवरात्रि-पर्व का आयोजन महादेव शिव और महादेवी पार्वती के वैवाहिक वर्षगाँठ के रूप मे किया जाता है। पौराणिक मान्यता है कि इसी तिथि मे ‘अग्निलिंग’ का उद्भव होते ही सृष्टि का प्रारम्भ हुआ था।
‘शिवपुराण’ की ‘ईशान संहिता’ मे कहा गया है :–
“फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि।
शिवलिंगतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ:।।”
(फाल्गुन-कृष्ण-चतुर्दशी की रात्रि मे आदिदेव का कोटि सूर्य की भाँति प्रभाववाले शिवलिंग के रूप मे उद्भव हुआ था।)
बहुसंख्यजन शिवरात्रि और महाशिवरात्रि मे अन्तर नहीँ कर पाते। शिवरात्रि प्रत्येक माह के कृष्णपक्ष मे चतुर्दशी को मनायी जाती है, जबकि महाशिवरात्रि प्रत्येक वर्ष फाल्गुन-मास के कृष्णपक्ष मे चतुर्दशी को आयोजित की जाती है। शिवरात्रि को ‘मासिक शिवरात्रि’ के नाम से जाना जाता है।
प्राय: बहुसंख्यजन महाशिवरात्रि का आयोजन एक ‘कर्मकाण्ड’ के रूप मे करते हैँ, जबकि उस पर्व का आत्मिक और वैज्ञानिक महत्त्व है। हमने ऊपर शिवत्व का आत्मिक विवेचन किया है, अब उसका वैज्ञानिक विवेचन समझेँ।
महाशिवरात्रि का वैज्ञानिक विवेचन
हमने अभी तक महाशिवरात्रि की सत्ता-महत्ता को पौराणिक और जनश्रुति के आधार पर समझा है, अब उसके वैज्ञानिक पक्ष को भी समझेँगे।
जब हमारे विज्ञानियोँ ने महाशिवरात्रि के पर्व पर उस रात्रि मे ग्रहोँ की दशा-दिशा का अध्ययन किया तब ज्ञात हुआ था कि उस रात्रि ग्रह का उत्तरी गोलार्द्ध अपनी अवस्था मे इसप्रकार से रहता है कि प्रत्येक जीवधारी के भीतर की ऊर्जा प्राकृतिक रूप से ऊर्ध्वगामी होने लगती है, जिसके कारण महाशिवरात्रि की अवधि मे जाग्रत् रहकर ध्यान, साधना तथा व्रत विशेष रूप से प्रभावकारी होते हैँ।
शिवशक्ति को एक रहस्यमयी ऊर्जा के रूप मे स्वीकार किया गया है; क्योँकि उसके प्रभाव से सम्पूर्ण चराचर व्याप्त है। विज्ञानी अनुभव कर चुके हैँ कि निसर्ग (प्रकृति) स्वयं ही मनुष्य को आध्यात्मिकता से सम्पृक्त करने मे सहायक सिद्ध होती है। जो श्रद्धालु शिव-साधना के लिए नब्वे अंश ('नब्बे' अनुपयुक्त है।) के कोण पर पृष्ठभाग को पूर्णत: सीधा करके आसन लगाता है, उससे उसका मेरुदण्ड (रीढ़ की हड्डी) सुदृढ़ रहती है। मनुष्य वैसी अवस्था ग्रहण करने पर 'परा-प्रकृति-ऊर्जा' की स्फूर्ति ग्रहण करता है। निस्संदेह, विज्ञान-जगत् ने इसका प्रभाव ग्रहण किया है; परन्तु उस चमत्कार को कोई नाम नहीँ दे पाया है।
यदि किसी को क्लिष्ट श्लोक वा मन्त्रोच्चार करने मे कठिनाई हो तो उसे श्रद्धा और भक्तिभाव के साथ "ओम् नम: शिवाय'' का पाठ करना चाहिए।
शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंग
शिवभक्त को महाशिवरात्रि के अवसर पर शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंग मे से अपने सुविधानुसार किसी लिंग के सम्मुख ऊपर बतायी गयी मुद्रा मे ध्यानावस्थित हो जाना चाहिए। द्वादश ज्योतिर्लिंग देश के कई राज्योँ मे स्थापित हैँ, जोकि स्वयंभू (स्वत: उत्पन्न) माने गये हैँ। हमने यहाँ उनका विवरण प्रस्तुत किया है :–
एक– सोमनाथ :– वह एक प्राचीन और ऐतिहासिक मन्दिर है। इसमे स्थापित ज्योतिर्लिंग गुजरात के काठियावाड़ मे स्थित है, जो सौराष्ट्र के वेरावल बन्दरगाह के समीप स्थित है। ‘ऋग्वेद’ मे उल्लेख है कि सोमनाथमन्दिर का निर्माण चन्द्रदेव ने किया था। कहा जाता है कि श्री कृष्ण ने यहीँ पर अपना देह-त्याग किया था। इससे उस मन्दिर का महत्त्व और बढ़ जाता है।
दो– श्री शैल मल्लिकार्जुन शिवलिंग :– वह आन्ध्रप्रदेश के कृष्णा जनपद मे कृष्णानदी के के समीप श्रीशैलम् पर्वत पर स्थित है, जोकि एक शक्तिपीठ भी है। ‘मल्लिकार्जुन’ मे ‘पार्वती’ और ‘शिव’ की भूमिका है; क्योँकि ऐसा माना जाता है कि भगवान् शिव अमावस्या की तिथि मे ‘अर्जुन’ और भगवती पार्वती पूर्णिमा की तिथि मे ‘मल्लिका’ के रूप मे प्रकट हुई थीँ, इसीलिए उनका नाम ‘मल्लिकार्जुन’ पड़ा था।
तीन– महाकाल :– वह ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश के प्राचीन नगर, उज्जैन मे ‘महाकालेश्वर शिवलिंग’ के रूप मे शिप्रानदी के समीप स्थित है, जो शिव के वैराग्य और श्मशानवासी स्वरूप का निरूपण करता है। इस मन्दिर-परिसर मे भस्म आरती, ज्योतिर्लिंग तथा गर्भगृह की मूर्तियाँ स्थापित हैँ।
चार– ओंकारेश्वर :– वह मध्यप्रदेश मे खण्डवा जनपद मे नर्मदानदी के एक ‘ओम्’ के आकारवाले द्वीप पर
स्थित है, जोकि नर्मदानदी का मध्य द्वीप पर है। वहाँ शिव नदी के दोनो तट पर स्थित हैँ, जहाँ उनकी ‘ममलेश्वर’ और ‘अमलेश्वर’ नाम-रूप से साधना-आराधना की जाती है।
पाँच– नागेश्वर :– वह ज्योतिर्लिंग गुजरात मे द्वारकाधाम से १५-२० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मान्यता है कि भक्तवृन्द की प्रार्थना पर शिव वहाँ ज्योति-रूप मे प्रकट हो गये, जो नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रतिष्ठित हुआ था। ऐसी मान्यता है कि वहाँ शिव और पार्वती ‘नाग’-रूप मे प्रकट हुए थे, इसीलिए उसे ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ नाम दिया गया था।
छ: – बैजनाथ :– इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना झारखण्ड के वैद्यनाथ-धाम मे की गयी है, जोकि एक सिद्धपीठ भी है। चूँकि शिव का एक नाम ‘वैद्यनाथ’ है इसलिए जनसामान्य उसे ‘वैद्यनाथ-धाम’ के नाम से भी जानते हैँ। उस ज्योतिर्लिंग को ‘कामना-लिंग’ भी कहा गया है।
सात– भीमाशंकर :– वह महाराष्ट्र के पुणे जनपद मे भीमाशंकर नामक गाँव मे भीमानदी के समीप स्थित है। वह ज्योतिर्लिंग पुणे से लगभग १०० किलोमीटर की दूरी पर स्थित ‘सह्याद्रि’ नामक पर्वत पर भीमाशंकर महादेवमन्दिर मे स्थापित है।
आठ– त्र्यम्बकेश्वर :– वह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के नासिक से लगभग ३० किलोमीटर की दूरी पर ब्रह्मगिरि नामक पर्वत और गोदावरीनदी के समीप स्थित त्र्यम्बक गाँव मे स्थित है। गौतम ऋषि और गोदावरी की अभ्यर्थना करने पर शिव ने उसी स्थान पर वास करने को स्वीकार कर लिया, जो त्र्यम्बकेश्वर के नाम से प्रतिष्ठित हुए थे।
नौ– घृष्णेश्वर :– वह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के औरंगाबाद के समीप दौलताबाद मे स्थित है। उसे ‘घुश्मेश्वर’ ज्योतिर्लिंग के नाम से भी जाना जाता है, जिसका वर्णन ‘शिवपुराण’ मे प्राप्त होता है।
दस– केदारनाथ :– वह हिमालय के केदार-शृंग, उत्तराखण्ड पर स्थित है। केदारनाथ को ‘जाग्रत् महादेव’ कहा जाता है। (‘जागृत’ अशुद्ध है।)। यह उत्तराखण्ड के चार धामो मे से एक है। इसका प्रथम उल्लेख ‘स्कन्दपुराण’ मे मिलता है।
ग्यारह– काशी विश्वनाथ :– वह ज्योतिर्लिंग उत्तरप्रदेश के विश्वनाथगली, वाराणसी मे स्थित है। इस मन्दिर के प्रमुख देवता ‘विश्वनाथ’ हैँ, इसीलिए उसे ‘विश्वनाथमन्दिर’ कहा जाता है। उसी मन्दिर मे शिव-ज्योतिर्लिंग स्थापित है।
बारह– रामेश्वरम् :– उस ज्योतिर्लिंग की स्थापना चेन्नै के समुद्र-तट के समीप त्रिचनापल्ली मे की गयी थी। रामेश्वरम् तमिलनाडु के रामनाथपुरम् जनपद मे स्थित है। वह एक शंखाकार द्वीप है, जो हिन्दमहासागर और बंगाल की खाड़ी से आवृत है। रामेश्वरम् मन्दिर का निर्माण द्रविड़-शैली मे किया गया है। ऐसी लोकमान्यता है कि उस मन्दिर मे स्थित ज्योतिर्लिंग के दर्शनमात्र से ‘ब्रह्महत्या’-जैसे अपराध से मुक्ति मिल जाती है।
भोले त्रिपुरारी आशुतोष हैँ। इधर भक्त उन्हेँ पूर्ण श्रद्धा-विश्वास के साथ स्मरण करता है उधर वे प्रसन्न हो जाते हैँ।
हम अभयंकर-प्रलयंकर शिव-शम्भो की “सर्वे भवन्तु सुखिन:” की कामना के साथ स्तुति करते हैँ :–
“करचरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा।
श्रवणनयनजं वा मानसं वा पराधम्।।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व।
जय जय करुणाब्धे, श्री महादेव शम्भो।।”
(हमने हस्त से, पद से, वाणी से, तन से, कर्म से, कर्णो से, नेत्रोँ से अथवा मन से भी जो विहित वा अविहित अपराध किये होँ, हे करुणासागर महादेव शम्भो! उसके लिए क्षमा कीजिए। आपकी जय हो-जय हो।)
—————