
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(व्याकरणवेत्ता एवं भाषाविज्ञानी), प्रयागराज।
वसंतऋतु की मस्ती और उल्लास के क्षणो मे वसंतपंचमी का पर्व मनाया जाता है। यह पर्व मानव-हृदय मे नूतन ऊर्जा और ऊष्मा का संचरण करता है। सरस्वती की आराधना इस पर्व की विशेषता है। वस्तुत: सरस्वती ‘कला’ और ‘साहित्य’ की देवी हैँ, जिनका भारतीय संस्कृति मे शीर्ष स्थान है। हमारे पौराणिक ग्रन्थोँ मे सरस्वती ‘नागेश्वरी’, ‘भारती’, ‘शारदा’, ‘हंसवाहिनी’, ‘वीणावादिनी’ इत्यादिक नामो से विश्रुत हैँ तथा अत्यन्त विस्तारपूर्वक उनकी महिमा का वर्णन किया गया है। इसी आधार पर देश के विभिन्न भू-भागोँ मे वसंतपंचमी के अलौकिक अवसर पर माँ शारदा का अर्चन-पूजन-स्तवन अतीव श्रद्धापूर्वक किया जाता है। वसंतपंचमी का पर्व भगवती सरस्वती को समर्पित रहता है।
अब आइए! ‘वसंतपंचमी’ का व्याकरणिक ज्ञान प्राप्त करेँ। वसंतपंचमी मे दो शब्द हैँ :– ‘वसंत’ और ‘पंचमी’। हम पहले ‘वसंत’ शब्द को समझेँगे। यह ‘वस्’ धातु का शब्द है, जिसमे ‘झच्’ प्रत्यय जुड़ा हुआ है। इसप्रकार ‘वसंत’ शब्द का सर्जन होता है। हेमन्त और ग्रीष्म के मध्य की ऋतु ‘वसंत’ है। अब समझते हैँ, ‘पंचमी’ को। पंचम शब्द मे ‘ङीष्’ प्रत्यय के जुड़ने से ‘पंचमी’ शब्द की रचना होती है। चान्द्रमास के प्रत्येक पक्ष की पाँचवीँ तिथि ‘पंचमी’ कहलाती है। इसप्रकार ‘वसंतपंचमी’ का अर्थ हुआ– ‘माघमास की शुक्लपंचमी’। इसे ‘श्रीपंचमी’ भी कहा गया है। आप यदि ‘वसंतपंचमी’ को अलग-अलग करके ‘वसंत पंचमी’ लिखते हैँ तो आपका यह लेखन अशुद्ध माना जायेगा। आप इसे शुद्धतापूर्वक दो प्रकार से लिख सकते हैँ :– (१) वसंतपंचमी (२) वसंत-पंचमी।
‘वसंतपंचमी’ पर्व-आयोजन के मूल मे एक मोहक कथा है। आप भी श्रवण करेँ :–
जब सृष्टि का आरम्भ होने का समय आ गया था तब भगवान् विष्णु ने ब्रह्मा को अपने पास बुलाया और उन्हेँ आदेश किया था– आप मनुष्य-योनि की रचना आरम्भ करेँ। ब्रह्मा ने भगवान् विष्णु का आदेश ग्रहण करने के पश्चात् मनुष्य-योनि की रचना की थी; परन्तु ब्रह्मा अपनी उस रचना से संतुष्ट नहीँ थे। वे भगवान् विष्णु के पास पहुँचे और पुन: रचना करने के लिए अनुमति माँगी थी। विष्णु ने अनुमति दे दी थी। वे अपने लोक ‘ब्रह्मलोक’ लौट आये। अब वे सृष्टिरचना-प्रक्रिया से जुड़ गये। उन्होँने अपने कमण्डल से जल निकालकर उसे पृथ्वी पर छिड़क दिया था, उसके कारण पृथ्वी मे प्रतिक्रिया होने लगी, फलस्वरूप पृथ्वी पर कम्पन होने लगा था तथा देखते-ही-देखते, एक अद्भुत शक्ति प्रकट हो गयी, जिसकी चार भुजाएँ थीँ और वह अत्यन्त सुन्दर थी। उस चतुर्भुजी देवी के एक हाथ मे वीणा एवं दूजा हाथ वर देने की मुद्रा मे था। उनके अन्य दो हाथोँ मे पुस्तक और माला थी। उस चतुर्भुजी देवी ने अपने प्रकट होते ही वीणा का सुमधुर झंकार किया था, जिससे संसार के समस्त जीवधारियोँ को वाणी प्राप्त हो गयी थी। उस प्रभाव का अनुभव करते ही ब्रह्मा ने उस देवी का ‘वाक्देवी’/’वाग्देवी’/’वाणी की देवी सरस्वती’ का नामकरण किया था।
माँ सरस्वती की सर्वप्रथम आराधना करके ‘सरस्वती-पूजन’ का समारम्भ श्री कृष्ण ने किया था। इसके लिए सिर पर मुकुट, गले मे वैजयन्तीमाला, हाथोँ मे मुरली धारण करते हुए, सर्वप्रथम माता सरस्वती की अभ्यर्थना की थी। ‘ब्रह्मवैवर्तपुराण’ के ‘प्रकृति खण्ड’ मे कहा गया है कि श्री कृष्ण-द्वारा पूजित होने पर माँ सरस्वती समस्त लोक मे सबके द्वारा पूजी जायेँगी। इसी अवसर पर श्री कृष्ण ने सरस्वती को यह वर दिया था– हे सरस्वती! अब तुम्हारी पूजा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मे प्रत्येक माघमास की शुक्लपंचमी की तिथि से आरम्भ हो जायेगी। यही विद्यारम्भ की तिथि भी कहलायेगी।
वास्तव मे, सरस्वती जलदेवी हैँ। सरस्वती नदी के नाम पर ही उनका उल्लेख किया जाता है। उनका जल हिमालय से निर्गमित होता है, जो दक्षिण-पूर्व प्रवहमानता के साथ तीर्थराज प्रयाग-स्थित गंगा-यमुना के साथ संगम कर, ‘त्रिवेणी’ के नाम से अभिहित होता है। सरस्वती को ‘वाग्देवी’ और ‘ज्ञानदेवी’ की संज्ञा से भी विभूषित किया गया है। उल्लेखनीय है कि प्राचीनकाल मे इसी सारस्वत अवसर पर गुरुकुलोँ और आश्रमो के स्नातकोँ के ‘दीक्षान्त-समारोह’ आयोजित किये जाते थे।
वसंत को ‘ऋतुराज’ भी कहा जाता है। योँ तो सिद्धान्तत: वसंतऋतु तीन महीने की होती है। तापमान सामान्य रहता है; न तो अधिक शीत की ठिठुरन और न ही अधिक ग्रीष्म की तपन। फाल्गुन का महीना है; शिशिर ऋतु का अन्त हो रहा है। वह शीत, जिसने क्या मनुष्य, क्या पशु, क्या पक्षी, क्या पौधे-पेड़; अर्थात् समस्त जड़-चेतनजगत् मे अपने तीक्ष्ण प्रहारोँ से ‘ठिठुरन’ ला दी थी, अब वही आतंकी शीत अन्तिम श्वास ले रहा है। हवा मे गरमाहट आ गयी है। वसंत का आगमन हो रहा है। उसके स्वागत और अभिनन्दन के लिए लताओँ और वृक्षोँ ने नूतन परिधान धारण कर लिये हैँ। सरसोँ वासंती साड़ी पहन इतरा रही है; इठला रही है तथा वसुधा पर सर्वत्र बिछी हरीतिमा पर अठखेलियाँ खेल रही है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो क्षितिज वसुन्धरा के साथ संवाद करने के लिए ललक हो उठा हो। नभ मे विहगवृन्द उन्मुक्त भाव के साथ अपने वक्षप्रान्त को लहरा-लहराकर योँ उड़ान भर रहे हैँ, मानो अवनि और अम्बर-तल मे स्वच्छ चाँदनी सम्पूर्ण आभा और प्रभा के साथ अपनी समुपस्थिति अंकित करा रही हो। पक्षियोँ का कलरव योँ प्रतीत होता है, मानो उनका समूह समवेत स्वर मे ‘स्वागत-गीत’ गा रहा हो। भौँरे विरुदावली गुनगुना रहे हैँ। बौर की सम्पन्नता से आम की डालियाँ विनम्रतापूर्वक नतमस्तक हो रही हैँ; वहीँ पुष्पवाटिका मे रंग-विरंगे पुष्पोँ से सुशोभित पौधे यत्र-तत्र-सर्वत्र अपना सौरभ बिखेर रहे हैँ। मन-प्राण को सम्मोहित करनेवाले ऐसे प्रफुल्ल वातावरण मे कुसुमाकर ‘वसंत’ का आगमन होता है।
वसंतऋतु मे प्रकृति अपना नव शृंगार करती है। रंग-विरंगे पुष्पोँ से अलंकृत उसका कोमल शरीर दर्शकवृन्द को मन्त्रमुग्ध कर लेता है। ऐसे वातावरण की सृष्टि होती है, मानो प्रकृति ‘नव वधू’-सी प्रतीत हो रही हो। उससे प्रेरित होकर ही कोकिल कूजती है; भ्रमर गुनगुनाते हैँ; अन्य पक्षी कलरव कर, उसका यशोगान करते हैँ तथा मानव रागरंग और और वसंत की मादक गन्ध मे मस्त हो जाते हैँ। मस्ती के ऐसे ही क्षणो मे ‘फाग’ का स्वर स्वत: फूट पड़ता है।
सृष्टि-सौन्दर्य की झाँकी वनो, उपवनो, पर्वतीय क्षेत्रोँ तथा ग्राम्यांचल मे ही देखने को मिलती है और वहीँ पर प्रकृति और निसर्ग के मनोहारी रूप के दर्शन होते हैँ। सुबह-शाम खेतोँ की ओर निकल आइए, आपको सरसोँ के पीले-पीले फूल, हवा मे लहराती जौ-गेहूँ की बालियाँ, छीमियाँ/छेमियाँ तथा श्वेत-नीले फूलोँ से लदे और धरती पर फैले हुए पौधे आपका मन मोह लेँगे और आम्र-मंजरियाँ अपनी सुगन्ध से आपको सम्मोहित कर लेँगी। नगरोँ मे ऐसे मोहक परिदृश्य से नगरवासी वंचित रहते हैँ। वसंत की बहार का वास्तविक आनन्द तो पर्वतीय लोग और ग्रामीण ही ले पाते हैँ।
वसंत के आगमन का प्रभाव प्रकृति पर ही नहीँ, मानव के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। वसंतऋतु मे प्रात: उन्मुक्त और स्वच्छ हवा मे टहलना, स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होता है। इससे पाचनशक्ति मे वृद्धि होती है और शरीर नीरोग रहता है। चूँकि वसंतऋतु मे वायु विशुद्ध और सुगन्ध से सराबोर रहती है इसलिए उसमे श्वास लेने से फेफड़ोँ मे किसी प्रकार के रोग होने की सम्भावना नहीँ रहती है। चारोँ ओर हर्ष और उल्लास का वातावरण होने से मन उत्साह से भरा रहता है; आलस्य पास फटकने नहीँ पाता। इस प्रकार वसंतऋतु का आगमन मानव के लिए एक ईश्वरीय वरदान की भाँति है।
जो लोग ‘वसंतऋतु की उपयोगिता और महत्ता को मात्र हिन्दू-सम्प्रदाय मे देखते-पाते हैँ, उन्हेँ अपना दृष्टि-विस्तार करना होगा। सूफ़ी-सम्प्रदाय के धर्माचार्योँ ने भारत के मुसलमानो के मध्य वसंतऋतु की महिमा का मण्डन किया है। मुग़ल-काल से ही सूफ़ीजन के बड़े-बड़े देव-उपासनास्थलोँ मे वसंतपर्व की महत्ता को रेखांकित किया गया है। इसके लिए ‘निज़ाम औलिया का वसंत’, ‘ख़्वाजा बख़्तियार काकी का वसंत’, ‘खुसरो का वसन्त’ इत्यादिक को समझा जा सकता है। अमीर खुसरो और निज़ामुद्दीन औलिया गीत-संगीत के साथ वसंतऋतु को मनाते थे। सूफ़ी कवि खुसरो स्वरचित गीत गाते थे,
“आज वसंत मना ले सुहागन, आज वसंत मना ले। अंजन-मंजन कर पिया मोरी लम्बे नेहर लगा ले।”
बांग्लादेश मे बंगाली कैलेण्डर के अनुसार, वसंतऋतु (बोशोन्तो उत्सोब) के प्रथम दिन बंगाली माह फाल्गुन का आयोजन किया जाता है और पश्चिमबंगाल मे पारिवारिक उत्सव, मेला इत्यादिक आयोजित किया जाता है। पाकिस्तान मे वसंतपर्व सीमित रूप मे मनाया जाता है। वहाँ का जनमानस इसी पर्व को ‘जश्ने बहाराँ’ के नाम से लगभग एक माह तक मनाता है। लाहोर और पंजाब मे वसंत का उत्साह देखते ही बनता है। लाहोर मे ‘वसंत-मेला’ का आयोजन धूम-धाम के साथ किया जाता है। वहाँ के भारतीय कालूराम ने अट्ठारहवीँ शताब्दी के उस भारतीय बलिदानी की पुण्य स्मृति मे वसंतपर्व का आयोजन समारम्भ किया था, जिसने इस्लामधर्म स्वीकार करने से अस्वीकार कर दिया था। राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत उस वीर सुपूत का नाम ‘हक़ीक़त राय’ था। महाराजा रणजीत सिँह लाहोर मेँ इसी अवसर पर कई उत्सव आयोजित करते थे; पतंगबाज़ी भी होती थी। पंजाबत प्रान्त मे भी ‘वसंतपंचमी’ का हर्षोल्लास के साथ आयोजन किया जाता था। होलिकोत्सव का आरम्भ भी इसी अवसर पर होता है। भारतीय गाँवोँ मे सांस्कृतिक वातावरण का सर्जन होने लगता है; ढोलक पर थाप पड़ने लगती है। सम्पूर्ण वातावरण हर्ष और उल्लास से भर जाता है।
ऋतुराज वसंत वस्तुत: धरती पर भगवान् का प्रतिनिधि बनकर आता है। उसके साम्राज्य मे छोटे-बड़े, निर्धन-धनी प्रफुल्ल रहते हैँ। वह जन-जन मे नव कृति की उमंग भरता है। वह ऐसा उदार और कृपालु राजा है, जो जन-कल्याण के लिए अपनी सम्पूर्ण सम्पदा और विभूति जन-जन पर न्योछावर कर देता है। वह प्रतिवर्ष हमसे कुछ लेने के लिए नहीँ, अपितु देने के लिए ही आता है। ऐसे पर्व की जय हो! सम्पर्क-सूत्र :–
‘सारस्वत सदन’
२३५/ ११०/२-बी आलोपीबाग़, प्रयागराज– २११ ००६ (यायावरभाषक-संख्या : ९९१९०२३८७० (9919023870) prithwinathpandey@gmail.com