● हिमाचलप्रदेश में ‘भाषा-संस्कृति-साहित्य’ का सम्मोहक संगम
पृथ्वीनाथ पाण्डेय (भाषाविद् और समीक्षक)–

प्रकृति की गोद कितनी अनुपम होती है, इसका व्यावहारिक बोध तब हुआ जब पिछले दिनों हिमाचलप्रदेश के सोनल जनपद में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के बहत्तरवें अधिवेशन में मुझे ‘विशिष्ट वक्ता’ के रूप में सहभागिता करने का अवसर प्राप्त हुआ था। वहाँ की पर्वतीय संस्कृति और सभ्यता का संगम देखते ही बनता था। पथरीले क्षेत्र कितने दुर्गम और कष्टसाध्य होते हैं, धरातल से लगभग हज़ार फीट की ऊँचाई की ओर डग भरते समय अनुभव हो रहा था। वहाँ मेरा और कुछ अन्य अतिथियों का प्रवास-स्थल ‘केसी होटल’ इतनी ऊँचाई और कष्टप्रद स्थान पर स्थित था कि एक बार वहाँ जाने के बाद अधिवेशन-स्थल पर आने की इच्छा बाध्यतावश ही होती थी।

आयोजन-स्थल वहाँ का राजकीय संस्कृत महाविद्यालय था, जो बहुत ही नीचे की ओर, दूसरे शब्दों में तलहटी की ओर जाकर खुलता था। वहाँ के विद्यार्थी, अध्यापक तथा शिक्षकेतरगण आचरण-स्तर पर भी संस्कृत लक्षित हो रहे थे। प्राचार्य डॉ० उत्तमचन्द चौहान का पुरुषार्थ और समर्पण तथा आचार्य डॉ० मुकेश शर्मा की सक्रियता देखते ही बनती थी। उस त्रिदिवसीय आयोजन में देश के अधिकतर राज्यों से पधारे विद्यार्थी, शोधविद्यार्थी, अध्यापक, प्रतिनिधिवृन्द इत्यादिक के मुखमण्डल को देखकर ऐसा लग रहा था, मानो पर्वतीय अंचल को देखने और देख लेने का कुतूहल होड़ करता दिख रहा हो। फिर हो भी क्यों न, वहाँ देवस्थल और सुरम्य परिवेश में प्रकृति के साथ संवाद करता हुआ हिमाचलप्रदेश का सोलन भाषा-साहित्यप्रसाद बाँट रहा था। बहुत कम लोग जानते होंगे कि हिमाचलप्रदेश एक ऐसा राज्य है, जिसकी पहचान सबसे अलग है; ऐसा इसलिए कि ‘शतद्रु’ और ‘विपाशा’ नदी केवल हिमाचलप्रदेश में मिलती हैं। उसी राज्य के यशस्वी पूर्व-मुख्यमन्त्री, विशेषत: कृती साहित्यशिल्पी शान्ता कुमार ने अधिवेशन का उद्घाटन करते हुए भाषा-संस्कृति को समन्वय की दृष्टि से निरूपित करते हुए जब कहा था, ” भाषा के अभाव में संस्कृति पंगु है और संस्कृति के बिना भाषा गूँगी है” तब अधिवेशन के निष्कर्ष का अध्याय खुलता हुआ-सा दिखने लगा था, जो कि अधिवेशन का सारतत्त्व भी था।

समापन-अवसर के मुख्य अतिथि हिमाचलप्रदेश के राज्यपाल बण्डारू दत्तात्रेय का हिन्दी के प्रति अनुराग देखते ही बनता था। यद्यपि उच्चारणस्तर पर स्खलन होता रहा तथापि वे हिन्दी-ध्वज को उन्नत बनाये रहे। अपने सम्बोधन में उन्होंने देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता और हिन्दीभाषा की महत्ता को स्वीकार करते हुए, विधिवत् ढंग से स्वयं के लिए हिन्दीभाषा सीखने की इच्छा प्रकट की थी।
‘हिमाचल की साहित्य-सम्पदा’ पर जब वक्तावृन्द वहाँ के कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, व्यंग्यादिक विषयों पर जानकारी देने लगे तब ऐसा प्रतीत होता था, मानो साहित्यसागर का आन्दोलन अपनी उपस्थिति अंकित कराने के लिए गर्जन-तर्जन कर रहा हो। एक-से-बढ़कर-एक प्रतिभाएँ उस पर्वतीय अंचल में रहकर सारस्वत साधना करती आ रही हैं। फिर हो भी क्यों न, वह सुरम्य और नैसर्गिक स्थल ऋषि-मुनियों और साधकों का रहा है। वहाँ का लोकसाहित्य (कथा-गाथा) की बिखरी विपुलता को आज समझने की आवश्यकता है और उन्हें एकत्र और संंकलित कर उनका मुद्रण कराते हुए हिमाचलप्रदेश की गरिमा-महिमा में श्रीवृद्धि करने की भी।
उक्त महाविद्यालय की छात्र-छात्राओं ने स्वाभाविक रूप में जिस प्रकार से रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत किये थे, उससे सभागार संस्कृतमय हो चुका था और सम्मोहित भी।

हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधानमन्त्री विभूति मिश्र अस्वस्थ रहते हुए भी तीनों दिनों के सत्रों में उपस्थित रहकर दूरस्थ अंचलों से आये हुए समस्त अतिथिगण को “चरैवेति-चरैवेति” का आह्वान करते हुए दिख रहे थे।
साथ-साथ रहते; संग-संग चलते; संवाद करते; जलपान-भोजन करते; एक ही कक्ष में शयन करते स्वचित्र अंकन करते समय इष्ट-मित्रों को भी समेटते एक ऐसा मोह मन-प्राण में उतर आया था, जो सहज ही संग-साथ छोड़ने के लिए तत्पर नहीं था, फिर भी सम्मेलन के अगले अधिवेशन में पुनर्मिलन का आश्वासन बँधे हाथों को खोलता रहा; अन्तत:, दिशाएँ बदल चुकी थीं और हम गन्तव्य के लिए प्रस्थान कर चुके थे।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ७ मार्च, २०२० ईसवी)