अपनी बेटियों को ‘श्रीमती’ नहीं, ‘शक्तिमती’ बनाइए!

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

नपुंसक और पुरुषार्थविहीन हैं वे, जो बेटी बचाने की बात तो करते हैं; परन्तु उन्हीं के लोग जब बेटियों का शीलहरण करते हैं तब वे ‘शीलहरणकर्त्ताओं’ के साथ खड़े होते दिखायी पड़ते हैं। ऐसे लोग शासन करने के नाम पर देश की लज्जा, शील, संकोच तथा मर्यादा के साथ बलात्कार करते आ रहे हैं। उन्होंने घोर चतुराई का परिचय देते हुए, समाज के प्रत्येक घटक की दशा-दिशा ऐसी बना दी है कि सभी आपस में लड़ते-कटते-मरते दिख रहे हैं। यही कारण है कि जनसामान्य संघटित नहीं हो पा रहा है, जिसके कारण क्रान्ति का बिगुल मौन है। अब देश के सामाजिक परिदृश्य को समझने की आवश्यकता है।

सचाई यह है कि आज का औसत भारतवासी ‘रोटी’ के लिए जूझते-जूझते अपनी वास्तविक ऊर्जा समाप्त कर दे रहा है और घर-परिवार की समस्याओं से इतना ग्रस्त हो जा रहा है कि उसकी विचारशक्ति और जूझने की प्रवृत्ति क्षीण होती जा रही है। हमारे देश के सत्ताधारी भी यही चाहते हैं। आज मीठी-मीठी ‘मन की बातों’ में उलझाकर, दूर से ही वादों की लोरियाँ सुनाकर, कारनामों के अफ़ीम चटाकर, सब्ज़बाग़ दिखाकर देश की सामान्य जनता को दिग्भ्रमित किया जा रहा है।

“बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ”– यह मंचीय नारा प्रत्येक निम्न और मध्यम वर्ग के परिवारों के सदस्यों के गालों पर ‘चाँटा’ का काम कर रहा है। वास्तविकता यह है कि आज देश की ‘एक’ भी बेटी सुरक्षित नहीं है। ऐसे में, हमारा-आपका दायित्व क्या बनता है? यह प्रश्नात्मक विषय विचारणीय से अधिक ‘शोचनीय’ बन चुका है।

आप हर बेटी को शस्त्रास्त्रविद्या में निपुण बनाइए; आत्मरक्षा की समस्त कलाओं से भरपूर कीजिए। उसके भीतर आत्मरक्षार्थ इतनी आग भर दीजिए कि देश का हर बलात्कारी, यौनउत्पीड़क, अपहरणकर्त्ता, छेड़ख़ानी करनेवाला, हत्यारा आदिक उसकी लपट का अनुभव करता रहे, फिर देखिएगा, कोई भी ‘महिला-पुरुष अपराधी’ सहजता से आँखें मिलाने का दुस्साहस नहीं कर सकेगा; वह आँखें निकाल लेगी। अपनी बेटियों को दबाकर मत रखिए; उन्हें समयसत्य ऐसा संस्कार दीजिए कि वह महादुर्गा और महाकाली बनकर अत्याचारियों का विनाश कर सके। उसके मन-मस्तिष्क में ऐसा संस्कार सम्पूरित कीजिए कि वह ससम्मान आत्मरक्षा कर, समाज की चरमराई नीवँ को शक्त और सुदृढ़ कर सके।

जय महाशक्ति।

(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ९ अक्तूबर, २०१९ ईसवी)