पटिया-पञ्चायत

महेन्द्र नाथ महर्षि (सेवा. नि. वरिष्ठ अधिकारी दूरदर्शन, दिल्ली), गुरुग्राम

कस्बाई गलियों वाले जीवन में बड़ा सुकून परसा रहता था। दिन सुबह पौ फटने से शुरू होता और गली की गहमागहमी धीरे-धीरे बढ़ती। दूर मंदिर से रह रह कर घंटे की टन टनाटन बताती कि लोग दहलीज़ पर माथा टेक कर लोटे से जय शंभु पर जल चढ़ाने , पुजारी की आरती थाली पर आने दो आने की भेंट चढ़ा देवता से दिन अच्छा गुजर जाने की प्रार्थना के साथ ड्योढ़ी पर छोड़ी चप्पल- चट्टी पैर में डाल जल्दी जल्दी घर के लिए निकल लेते थे।

बच्चे मुरझाए ,आँख मलते, अलसाए से बस्ते लटकाए, स्कूलों के लिए टोलियों में घरों से निकलने लगते। दुकान खोलने का कोई तय वक्त नहीं होता था लेकिन लोगों की जैसी ज़रूरत होती उस मुताबिक़ गलियों की दुकानें खुलती-बंद होती थीं।
गलियों के घरों के बाहरी दरवाज़े पर बूढ़े , अपने मन मुताबिक़ बेकाम होते हुए भी कुछ न कुछ करते दिखते। और नहीं तो गली में आते जाते बच्चों-लोगों के साथ टोकाटाकी ही उनका काम होता। सब्ज़ी-फल टोकरी में रखे माली-मालन आवाज़ लगा कर अपने रोज़ के ग्राहकों को बताते कि आज क्या लाए हैं। सब्ज़ी ताज़ा होती और परिवार की महिला एक दिन की ज़रूरत के लिए पाव आधा सेर तुलवा लेती। फ़्रिज नाम की मशीन तब होती नहीं थी। होती भी तो बिजली थोड़े ही होती थी। रात का उजाला तेल के दीये से होता या घासलेट की डिबरी से। लालटेन घरका चलता-फिरता लैंपपोस्ट होता था। घर में इकलौता और घर के ज़रूरतमंद किसी भी सदस्य का उस पर पहला हक़ होता।

दिन भर, गली दुकान पर गाहकों और कामकाजी लोगों से गुलज़ार रहती। दुकान का सामान अंदर ही रखा जाता और गाहक उँगली से इशारा करके दिखाने की माँग करता तो दुकानदार गाहक की हैसियत अपनी आँख से पहचान कर ही वह दिखाता या टाल देता कि वह उसके लिए ठीक नहीं है।
गाहक के बैठने के लिए दुकान से बाहर निकला एक लकड़ी का फट्टा होता जिसे उसके चौड़ाई में कम होने के कारण ‘पटिया’ पुकारते थे। लालटेन की रोशनी वाली बस्ती में दुकानें सूरज ढले बंद हो जातीं और शाम के सात बजते बजते , लोग घरों से खाना खाकर टहलने, पान खाने या फिर छटाँक भर रबड़ी,कलाकंद ,पेड़ा, हरे पत्ते के दोने में तुलवा कर चिगलते पटिया पर बैठ, छोटी से लेकर गंभीर विषयों पर ऊँची आवाज़ में अपनी राय ज़ाहिर करते।

कोई बोलता, नेहरू ने गोवा चुटकी मारते ख़ाली करा लिया। पाकिस्तान में औरतें सुन्दर होती हैं पर उनके मियाँ खड़ूस लगते हैं। अंग्रेज औरतें सिगरेट पीती हैं। शराब पीकर क्लब में ऊँची एड़ी के सेंडल में फिरकनी की तरह नाचती हैं। उनके कपड़े बड़े रंगीन और जाँघों तक नंगी टांगों को दिखाते कोई शर्म नहीं करते।पलाजा सिनेमा में नादिरा की फिलम लगी है। अगले इतवार को किंगकौंग की फ़िल्म मैजेस्टिक हाल में आ रही है। डीएवी में नया हैडमास्टर आया है। कहते हैं सारे बदमाश लड़कों को पहले ही दिन पीट दिया। यार कालू दादा ने कतल कर दिया लेकिन बच जाएगा। उसके ख़िलाफ़ कोई गवाह खड़ा होकर अपनी मौत थोड़ी बुलाएगा। जब पटिया पंचायत हाफ वे पहुँचने को होती तो गली का एक पढ़ा-लिखा रिटायर तहसील दार अपनी लाठी टेकता आ पहुँचा तो पूरी पटिया पंचायत उठ खड़ी होती। हर कोई उन्हें बैठने के लिए अपनी जगह देने की पेशकश करता। उनके तशरीफ़ फ़रमाते ही पटियापंचायत पुन: रंगत में आ जाती। अब विषय पलट जाते। डिस्ट्रिक्ट जज ने जो सजा सुनाई वो तो पहले किसी ने सोचा भी नहीं था। तब तहसीलदार जी भी अपने किसी फ़ैसले की ढींग सुना देते थे।

जब यह दौर चलता होता तो जगन्नाथ हलवाई का नौकर पटियादारों से पूछने आ जाता कि दूध ले आए ? सबके लिए गर्मागर्म झाग पर मलाई पड़े दूध वाली पीतल की थाली में रखे कुल्लहड सामने आ जाते। नाक में शकोरे की सुगंध, कढ़ाई की तली में ज़रा से जल गए दूध की गंध में अचानक पटिया के नीचे बह रही नाली की सडांध वाला भभका , सभी को शकोरे हाथ में उठाए चल देने को मजबूर कर देता। कोई कुछ बोलता नहीं , पर सभी की सिकुड़ती नाक, पटिया-पंचायत के समापन की घंटी बजा देती। लोग ख़ाली शकोरे इधर-उधर फेंकते अंधेरी गली में अपने दरवाज़ों की ओर चल पड़ते।

ख़ाली हो गई पटिया पर गली के कुत्ते, सुस्ताने-भोंकने के लिए चढ़ जाते जिन्हें गली का चौकीदार ठकठक करके उठाता पर वे ढीट बने गर्दन उठाए ज़रा सी नज़र डाल , फिर पंजों के बीच अपनी थूथन रख सोने का उपक्रम करते। चौकीदार, ‘ जागते रहो ‘ पुकारता हुआ डंडा पटकता आगे निकल जाता। वो जानता था कि चोर उससे नहीं पटिया पर पधरे गली के कुत्तों से ज़्यादा परेशान रहते हैं।

पटियापंचायत का दौर कब कहाँ खो गया कौन बताए। यह तो बस अब यादों के सहारे ही है।

महेन्द्र महर्षि
17.6.2020
(दुबई प्रवास)