प्रसंगवश———-
डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय-
बचपन (८-१०वर्ष) में देखता था कि आये-दिन कोई व्यक्ति द्वार पर याचक की मुद्रा में आ खड़ा होता था। उस व्यक्ति के कन्धे पर ‘पगहा’, गाय-बछिया को बाँधनेवाली डोर लटकी रहती थी। पूछने पर बताता था :– अनजाने में उससे गाय/बछिया की हत्या हो गयी है, इसलिए प्रायश्चित्तस्वरूप भिक्षा माँगकर एक वर्ष तक आजीविका के लिए साधन जुटाने हैं। ऐसे में, श्रद्धावश कोई चावल, दाल तो कोई आटा, हल्दी, नमक, सब्ज़ी आदिक उसकी झोली में डाल देता था।
अब तो परिदृश्य ही बदल चुका है। कल तक जो “डंके की चोट पर” गोकशी कराता था, आज अवसरवादी-हिन्दूवादी राजनीतिक दल की ओर से उसे पुरस्कारस्वरूप किसी राज्य का उपमुख्यमन्त्री बना दिया गया है। छिनरई करने में उस्तादों को हिन्दूवादियों के संघटन से जोड़कर ‘छिनरपन’ को बढ़ावा दिया जा रहा है, हमने सप्रमाण देख लिये हैं और देख रहे हैं।
अब आइए! इस ‘छिनरपन’ को व्याकरण की कसौटी पर कसें :–
यह शब्द व्याकरण-सम्मत है। एक शब्द ‘छिनरा’ है, जिसका ‘स्थानिक’ प्रयोग होता है, जिसका कोई सर्वमान्य व्याकरण नहीं है। यह विशेषण-शब्द है। थोड़े मार्जित रूप में इसे ही ‘छिनाल’ कहते हैं, जिसकी संस्कृतशब्द ‘छिन्ना’ (स्त्रीलिंग) से रचना होती है। ‘छिन्न’ में ‘टाप’ प्रत्यय के जुड़ते ही ‘छिन्ना’ की उपस्थिति हो जाती है, अर्थात् ‘व्यभिचारिणी’ का विग्रह साकार हो उठता है। इसे भोजपुरी बोली में ‘छिनार’ कहते हैं। बोलियों को आधार बनायेंगे तो इसके अलग-अलग नाम मिलेंगे, जो अपनी आँचलिकता के कामुक सौन्दर्य का बोध कराते हैं। हिन्दी ने इसे ‘छिनाल’ के नाम से स्वीकार कर लिया है, जबकि क्रिया-कलाप में कोई विभेद नहीं है।
हिन्दीसाहित्य में पद्यविधा के अन्तर्गत प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त ने इसका जीवन्त चित्रण किया है, “पात हत लतिका वह सुकुमार पड़ी है छिन्नाधार।”
(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ७ अक्तूबर, २०१९ ईसवी)