हे ईश्वर! हम ‘भारतीय’ कितने मूर्ख हैं

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय-

आपने कभी विचार किया है :– भारतीय अपनी सन्तति की जन्मतिथि (जन्मदिन का प्रयोग अशुद्ध और अनुपयुक्त है।) के अवसर पर आयोजित समारोहों में जलती हुई मोमबत्तियों को क्यों बुझाते हैं? ‘केक’ को नृशंसतापूर्वक चाक़ू से क्यों काटते हैं; फुलाकर टाँगे गये गुब्बारों को क्यों फोड़ते हैं? किसी प्रतिष्ठान, समारोहादिक के अवसर पर बाँधे/चिपकाये गये फ़ीते को बीच से अथवा कहीं से भी क्यों काटते हैं? ऐसा विधान किस भारतीय ग्रन्थ में है, जबकि ‘शास्त्रकार’ और ‘ग्रन्थकार’ भी इन्हीं विधियों का समर्थन करते आ रहे हैं और व्यवहार भी। कैसा है, यह द्विप्रकारीय आचरण? निस्सन्देह, इन प्रश्नों के सम्यक् और स्वीकार्य उत्तर किसी भी भारतीय के पास नहीं है। ऐसा इसलिए कि सभी ‘अन्धभक्त’ हैं और बिना विचार किये ‘परम्परा’ के पीछे चलनेवाले लोग हैं।

अब समस्त ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के ढक्कन खोलिए :–
उपर्युक्त प्रकार से आयोजित किये-कराये जानेवाले समस्त आयोजन निरर्थक होते हैं; क्योंकि किसी भी उत्सव में ‘हिंसा’, ‘विस्फोट’, ‘विध्वंस’ आदिक का विधान नहीं होता। समारोह में प्रकाशमान मोमबत्तियों को बुझाने का तात्पर्य है, ‘कुलदीपक’ को बुझाना। हमें बुझी हुई मोमबत्तियों को जलाकर वातावरण को प्रकाशमान करना होगा। ‘केक’ पर चीरा लगाकर उसे ‘प्रसाद’-रूप में बाँटने का अर्थ है, ‘हिंस्र’ प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना। केक भारतीय व्यंजन नहीं है। ऐसे अवसर पर ‘केक’ की व्यवस्था करनी ही नहीं चाहिए। मोमबत्तियाँ जलते ही बच्चे के सुखद भविष्य की कामना करते हुए उपलब्ध आहारादिक ग्रहण करना चाहिए। फूला हुआ, मस्ती के साथ झूमता हुआ गुब्बारा प्रसन्नता और सम्पन्नता का सूचक है। हम भारतीय उसी गुब्बारे को किसी नुकीली वस्तु से छेदकर अथवा माचिस की जलती तिल्ली का स्पर्श कराकर फोड़ते हैं तब हम अपनी सुख-समृद्धि को नष्ट करते हैं। गुब्बारे को उसकी उसी अवस्था में झूमने देना चाहिए। हम जैसे ही किसी प्रतीकात्मक वस्तु को पृथक् करके उद्घाटन करते हैं तब हम उस समारोह को खण्डित कर देते हैं। हमें कटे हुए दो फ़ीतों को आपस में जोड़कर उद्घाटन करना चाहिए; जैसा कि हमारे आयोजनों में यही व्यवस्था रहती है।

हम भारतीयों को सद्बुद्धि प्राप्त हो, कामना है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३० सितम्बर, २०१९ ईसवी)