‘सर्जनपीठ’ के तत्त्वावधान मे १० अगस्त को बाबू चिन्तामणि घोष की निधन-तिथि (११ अगस्त) की पूर्व-सन्ध्या मे एक आन्तर्जालिक राष्ट्रीय बौद्धिक परिसंवाद का आयोजन ‘सारस्वत सदन’-सभागार, अलोपीबाग़, प्रयागराज से किया गया था, जिसमे देश के कई चिन्तकों और विचारकों की सहभागिता थी।
मुख्य अतिथि के रूफ मे कोलकाता (बंगाल) से आलोचक डॉ० श्याममनोहर त्रिपाठी ने बताया, “बाबू चिन्तामणि घोष ने बंगाल की साहित्यिक मिट्टी की पहचान काशी और इलाहाबाद मे करायी थी। उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा इसलिए करनी होगी कि हिन्दीभाषा पर पकड़ न रखते हुए भी उन्होंने इलाहाबाद मे ‘इण्डियन प्रेस’ की स्थापना करके यह बता और जता दिया था कि व्यक्ति अपनी इच्छाशक्ति के बल पर असम्भव को भी सम्भव कर सकता है।”
अध्यक्षता करते हुए, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के प्रधानमन्त्री विभूति मिश्र ने कहा, “चिन्तामणि घोष का साहित्यिक अवदान अति प्रशंसनीय है। उन्होंने हिन्दीभाषा और साहित्य की समृद्धि मे अपना जो महत् योगदान किया है, हिन्दी साहित्यजगत् उनके प्रति सदा ऋणी रहेगा।”
आयोजक भाषाविज्ञानी आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने सविस्तार बताया, “बाबू चिन्तामणि घोष के पिता जीविकोपार्जन-हेतु इलाहाबाद आये थे; परन्तु अस्वस्थ रहने के कारण उनका यहीं निधन हो गया था, तब चिन्तामणि घोष की अवस्था मात्र १२ वर्ष की थी। उनके कोमल कन्धों पर अपने परिवार के आजीविकोपार्जन की समस्या आ खड़ी हुई थी। बालक चिन्तामणि घबराया नहीं। समय अत्यन्त अभाव मे कटता रहा। अन्त मे, वे एक अँगरेज़ी-समाचारपत्र मे ₹१० के मासिक वेतन पर लिपिक के पद पर काम करने लगे। चिन्तामणि के मन मे स्वाध्याय कर, अपने भविष्य को सँवारने और समाज के हित मे काम करने की अत्यन्त ललक थी। वे कबाड़ियों के यहाँ जाते थे और वहाँ से पुरानी पुस्तकें ला-लाकर उनका अध्ययन करते थे। इसप्रकार उनकी हिन्दीभाषा संतोषजनक हो गयी। चिन्तामणि घोष हिन्दी-साहित्य का विस्तार करना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि वे एक ऐसे मुद्रणालय की स्थापना करें, जो उत्तर-भारत का सर्वोत्तम मुद्रणालय सिद्ध हो। उनकी कल्पना तब साकार हुई थी जब इलाहाबाद मे वर्ष १८८४ मे ‘इण्डियन प्रेस’ की स्थापना की गयी थी। कालान्तर मे, उस मुद्रणालय से रामायण, महाभारत, विविध भाषाओं के शब्दकोश, शैक्षिक पुस्तकों, भाँति-भाँति की हिन्दीसमाचारपत्र-पत्रिकाओं :― देशदूत, हल, बालसखा, सरस्वती, विज्ञानजगत्, मंजरी, शिक्षा आदिक का जिस मनोरम ढंग से मुद्रण होता था, उसे देखकर अँगरेज़ अधिकारी भी दाँतो तले अँगुली दबाने के लिए बाध्य हो जाते थे। जिस ‘गीतांजलि’ कृति पर कबिन्द्र रबिन्द्र को ‘साहित्य के नोबेल एवार्ड’ से विभूषित किया गया था, उसका मुद्रण उसी इण्डियन प्रेस से हुआ था। आज वही इण्डियन प्रेस समुचित देखरेख के अभाव मे दुरवस्था मे दिख रहा है; क्योंकि अपने कर्त्तव्य के प्रति अत्यन्त समर्पित दिखनेवाले बाबू चिन्तामणि घोष-जैसे त्याग-तपस्या करनेवाले लोग अब वहाँ नहीं रह गये।”
हैदराबाद के साहित्यकार डॉ० अरविन्द चेलियम् ने कहा, “मैने इण्डियन प्रेस का नाम बहुत सुना है और वहाँ की कई पुस्तकें हमारे लाइब्रेरी मे भी हैं। चिन्तामणि घोष-जैसा ‘डेडीकेटेड’ लोग अब मिलना बहुत मुश्किल है।”
इनके अतिरिक्त डॉ० रोज़ा विलियम (वाराणसी), डॉ० कुसुमित बन्दोपाध्याय (दुमका, झारखण्ड), डॉ० हरीराम शर्मा (आगरा), डॉ० अन्नादुरम् (अमरावती, आन्ध्रप्रदेश) की भी सहभागिता रही।
अन्त मे, परिसंवाद के आयोजक और संचालक आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने समस्त विचारकों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की थी।