‘पिता’ का ‘अपनी पुत्री’ के नाम एक प्रेरक पत्र

आज (११ सितम्बर) कनिष्ठ पुत्री ‘कर्णिका’ का देश के शीर्षस्थ रेडियो चैनल ‘रेडियो मिर्ची’ मे ‘रेडियो जॉकी’ के रूप मे चार वर्ष पूर्ण हुए हैं।

सुपुत्री कर्णिका!

जीवन्तता के साथ कर्त्तव्यपरायणता का परिचय प्रस्तुत करती रहो। तुमने गत चार वर्षों मे अपने ‘रेडियो मिर्ची-प्रतिष्ठान’ के लिए जिस आस्था, समर्पण, प्रतिबद्धता तथा सेवाभाव का परिचय दिया है, वह निस्सन्देह, अनुकरणीय है। मै तुम्हारे समस्त अधिकारिवृन्द की सदाशयता और सौजन्य-भाव का समादर करता हूँ। तुम्हें अपने समस्त सहकर्मी-सहकर्मिणियों तथा अनुभवसम्पन्न समस्त सहयोगिवृन्द से सीखते रहना है; क्योंकि अनुभवसम्पन्नता तभी रेखांकित होती है, जब तुम अपने कर्मक्षेत्र से सम्बन्धित सम्पूर्ण प्रशिक्षा चरणबद्ध ढंग सेअर्जित कर लो। माँ-सहित अपने बाबू जी का आशीर्वचन और सम्मति ग्रहण करो :–
“स्वाभिमानपूर्वक तन्मयता के साथ हर ललकार (चुनौती) का सामना करने की सामर्थ्य अर्जित करो। कर्त्तव्यमार्ग पर तुम्हारे पग डगमगाने न पाये, इसके प्रति सदैव सजग, सावधान तथा सतर्क रहना। तुम्हारा एकमात्र उद्देश्य, लक्ष्य तथा ध्येय ‘रेडियो सूत्रधार’ (आर० जे०= रेडियो जॉकी) के रूप मे स्वयं को देखना और पाना था, जिसे तुम अपने मौलिक आधार और पुरुषार्थ के बल पर अर्जित कर चुकी हो; अब तुम्हें स्वयं को बहुविध (यहाँ ‘बहुविधि’ अशुद्ध है।) स्थापित करना है। माता-पिता अपनी सन्तति की कल्याणमयी इच्छा का सम्मान करते हैं और हमने भी वही किया है। स्मरण करते रहना, जीवन में कुछ भी ‘असम्भव’ नहीं है। तुम्हारे भीतर ‘ससीम को असीम’ बनाने की शक्ति है; सामर्थ्य है; क्षमता है तथा कुशलता भी। तुम अपने कर्त्तृत्व को उदात्त और विलक्षण-रूप देने के प्रति आग्रही रहना; उसकी ‘उद्भावना’, ‘ऊर्जा’ तथा ‘ऊष्मा’ को समग्र में देखने का अभ्यास करना; वरिष्ठ-वर्ग का समादर करना; कनिष्ठ-वर्ग का यथाशक्य सहयोग-सहायता करना तथा उसके मध्य साहचर्य्य भाव विकसित कर, उसे सबलता प्रदान करना; कटु संवाद के आदान-प्रदान से सुदूर रहना। तुम्हारे लिए जो भी कार्य-निर्धारण किया जाये, मुदित मन से समादरपूर्वक विनयशीलता का परिचय प्रस्तुत करते हुए, निष्पादित करती करना।”

“तुम्हारे ‘बाबू’ जी ने आज जो अपना स्थान बनाया है, उसके लिए उन्हें अहर्निश कितना संघर्ष करना पड़ा था; कृष्णपक्ष को बलपूर्वक किस भाँति शुक्लपक्ष की गोद मे डालना पड़ा था, उसकी आंशिक झलक ही तुमने देखी होगी। जब तुम्हारा अस्तित्व नहीं था तब से लेकर अब तक अपनी अस्तित्व और अस्मिता के लिए उन्हें कितना अध्यवसाय करना पड़ा है, इससे तुम विधिवत् परिचित नहीं हो। मै यहाँ इसका इसलिए उल्लेख कर रहा हूँ कि अपनी प्रतिबद्धता की आग को ठण्ढी मत होने देना। क्या उचित है और क्या अनुचित, इनका संबोध और संज्ञान करने के लिए स्वयं के साथ संवाद करती रहना; चिन्तन-अनुचिन्तन जीवन और भविष्य को एक सुखमय आकार और आयाम देते हैं, जो सर्वकालीन प्रेरणास्पद होते हैं।”
“आज तुम जहाँ पर हो, उससे तुम्हें बहुत ‘आगे’ जाना है। यह तो एक प्रवास (पड़ाव) है। इसी व्यवस्था मे रहकर कर्त्तव्य-निर्वहण करते हुए, ‘सम्यक् मार्ग’ के वरण और निर्धारण करने की अभियोग्यता ग्रहण करो; क्योंकि तुम्हारा गन्तव्य इसी रेडियो-तन्त्र का मान करते हुए, लोकप्रियता का चरम संस्पर्श करना है।”

“हाँ, ‘देवनागरी लिपि’ और ‘हिन्दीभाषा’ हमारी राष्ट्रीय गरिमा के प्रतीक हैं, इसलिए उनकी ‘अवहेलना’ और ‘उपेक्षा’ कदापि न करना। उक्त माध्यम का समुचित और सार्थक प्रयोग करते हुए, तुम अपनी प्रस्तुति के आधार पर जनसामान्य को शुद्ध और उपयुक्त शब्द-प्रयोग को उनका मनोरंजन करते हुए, बता और समझा सकती हो।”

“एक सामान्य ‘मिर्ची’ मे कितनी तीक्ष्णता होती है और उसका कितना और कैसा प्रभाव होता है, इसका तुम्हें अनुभव होगा ही, फिर तुम तो ‘रेडियो मिर्ची’ के प्रसारण-तन्त्र के साथ अधिकृत रूप से सम्बद्ध होकर उस परिवार की सक्रिय सदस्या भी हो। ऐसे मे, अब तुम्हारा दायित्व गहनतर (‘गहन से गहन’ अशुद्ध है।) होता जायेगा।”

“निष्ठापूर्वक संकल्पबद्ध होकर ‘चरैवेति-चरैवेति- चरैवेति’ मूल मन्त्र को अङ्गीकार (ग्रहण) कर, ‘अतीत’ के प्रेरक अध्यायों को ‘वर्तमान’ के साथ सम्बद्ध कर, ‘भविष्य’ के लिए समुज्ज्वल सम्भावनाओं के द्वार अनावृत करने की पात्रता अर्जित करो। जिजीविषा (जीने की इच्छा) और जिगीषा (जीतने की अभिलाषा) को अपना मित्र बनाना; क्योंकि एक दिन जीवनसंग्राम के यही सामरिक तत्त्व तुम्हारी ‘कीर्तिकथा’ को शिखर (‘उत्तुंग शिखर’ अशुद्ध है।) पर समासीन करते हुए, तुम्हारी कुशलता, दक्षता, निपुणता तथा प्रवीणता को रेखांकित करेंगे।”

“प्रत्याशित दु:ख मे अप्रत्याशित सुख की अनुभूति करती रहना। जीवन के प्रति ‘उपालम्भ (परिवाद/शिकायत)-भाव’ का प्रत्यक्षीकरण मत करना। मेरे भाव और विचार सीमा से परे हैं; क्योंकि वे किसी भी प्रतिकूल निषिद्ध/वर्ज्य रेखा से सुदूर रहा करते हैं।”

“तुम अपनी स्वस्थ प्रखरता और मुखरता की धार को बनाये रखना; क्योंकि वही तुम्हारे लिए ‘शस्त्र’ हैं और ‘शास्त्र’ भी।”

“शब्द संजीवनमय होते हैं। इन्हें आचरण मे ढालती रहना और स्वयं को समय-सत्य स्वस्थ और निरापद (सुरक्षित) आकार देती रहना।”

तुम्हारे बाबू जी।

(आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय)

★ चित्र-विवरण :– पुत्री कर्णिका ‘रेडियो मिर्ची’ मे कार्यभार ग्रहण करने के अनन्तर चार वर्ष यापन कर, चिर-संचित अभिलाषा की पूर्णता पाकर प्रसन्नता की अभिव्यक्ति करती हुई।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ११ सितम्बर, २०२३ ईसवी।)