लोकतंत्र में पत्रकार पर आफत

राम वशिष्ठ-


20 सितंबर 2017 यानि पाँच दिन पहले त्रिपुरा के मंडई में स्थानीय टीवी पत्रकार शांतनु भौमिक की अपहरण के बाद हत्या कर दी गई । शांतनु की हत्या पर ऐसा आक्रोश नहीं दिख रहा जैसा गौरी लंकेश की हत्या पर था । पहली वजह यह कि शांतनु भारत के पूर्वोत्तर राज्य के पत्रकार थे और राष्ट्रीय मीडिया ने पूर्वोत्तर क्षेत्र की हमेशा अनदेखी की है । दूसरे शांतनु , गौरी लंकेश की तरह किसी एक खास विचारधारा के समर्थक या विरोधी नही थे । यहां सच देखकर समर्थन या विरोध नहीं होता बल्कि गुट, धारा या वाद देखकर होता है । लेकिन लोकतंत्र में पत्रकार की हत्या बेहद चिंतित करती है, बेचैनी पैदा करती है । फेहरिस्त बहुत लंबी है, कुछ लोग ही लिखे जा सकते है, कुछ याद नहीं है वो छूट जाएंगे । कुछ याद हैं लेकिन फिर भी छूट जाएंगे ।
हालिया राम रहीम प्रकरण में एक नाम सबकी जुबान पर आया और वो नाम था पत्रकार रामचंदर छत्रपति का । सिरसा में 21 नवंबर 2002 को गोली मारकर छत्रपति की हत्या कर दी गई और सब जानते है कि किसने और क्यों करायी थी हत्या । क्राइम रिपोर्टर जे. डे. की 11 जून 2011 को मुंबई में गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी । यूपी के शाहजहांपुर जिले के खुटार कस्बे में 1 जून 2015 को स्थानीय पत्रकार जगेंद्र सिंह को जिंदा जलाकर मार डाला । आरोप तब की सपा सरकार में मंत्री और तब खुटार के बाहुबली विधायक राममूर्ति वर्मा पर लगा था । घटना अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की छवि को धूमिल कर रही थी लेकिन यूपी की सपा सरकार जितनी निर्लज्जता के साथ आरोपी के पक्ष में खड़ी हुई, उसकी दूसरी मिसाल मिलना बेहद मुश्किल है । जून 2015 में ही मध्य प्रदेश के बालाघाट में पत्रकार संदीप कोठारी को जिंदा जलाकर मार डाला । बिहार तो मानो पत्रकारों के लिए कब्रगाह बन गया है । बिहार के सिवान में 13 मई 2016 को दैनिक हिंदुस्तान के पत्रकार रंजन राजदेव की गोली मारकर हत्या कर दी गई और आरोप जेल में बंद आरजेडी के बाहुबली नेता शहाबुद्दीन पर लगा । इस घटना को चौबीस घंटे भी नहीं बीते थे कि झारखंड के चतरा में टीवी पत्रकार अखिलेश प्रताप सिंह को गोली मारकर मौत की नींद सुला दिया गया । बिहार के सासाराम में 12 नवंबर 2016 को पत्रकार धर्मेंद्र सिंह की हत्या तो 2 जनवरी 2017 को बिहार के समस्तीपुर में पत्रकार ब्रजकिशोर बृजेश को गोलियों से भून कर मार दिया गया । बेंगलूरू में 4 सितंबर 2017 को गौरी लंकेश की हत्या पर तीव्र प्रतिक्रियाएं आई । लेकिन सब प्रतिक्रियाओं को एक साथ देखने से पता चलता है कि लोकतंत्र के चौथे खंभे की फिक्र किसी को नहीं… बस सबका अपने मतलब के लिए शोर है । शांतनु भौमिक की हत्या से साबित हो गया कि लोकतंत्र के चौथे खंभे के लिए शोर और सन्नाटा दोनों केवल सुविधानुसार होता है । शांतनु भौमिक को अश्रूपूर्ण श्रद्धांजलि ।