फूटा कुम्भ जल जलहि समानी…

अमित धर्मसिंह


उनकी आँखों में पानी था
लाज-शर्म का,
रिश्तों की लिहाज का,
अपनी हालत पर शर्मिंदगी का पानी
भरा था उनके रोम-रोम में।

उनके दिल में छुपे
दुखों के पहाड़ों से फूटते रहते थे झरने,
ये झरने पहाड़ों की हदें पार करके
खुश्क आँखों के पठारों को तर करते हुए
आ समाते थे
उनकी मैली बाजुओं और झीने आँचल में।

एक दिन
इन झरनों ने
बाजुओं और आँचल की भी हदें पार कर दीं।

पानी था कि
लबालब भरता जा रहा था
उनके जीवन में
उनके अस्तित्व में,
उनके आँचल के पार
उनकी हिम्मत के पार
उनकी जिजीविषा के पार
पानी ने तांडव मचा दिया था।

अंततः वे उठे
अपने कद से बड़े होकर,
एक अजीब हिम्मत के साथ
वे लड़ने दौड़े पानी से
निहत्थे,
वे वाकई
तंग आ चुके थे
रोज-रोज की हार से।

इसलिये यह
आखिरी लड़ाई उन्होंने
जीतने के लिये नहीं,
पूरी तरह हार जाने के लिये लड़ी,
तभी तो-
वे सरयू में राम की तरह
पानी में नहीं उतरे,
न ही किसी गोताख़ोर की तरह
तैरने के लिये छलाँगे पानी में,
वे मजबूरन कूदे पानी में,
उनका कुम्भ कबीर के कुम्भ की तरह नहीं फूटा,
उन्होंने जबरन फोड़ा अपने कुम्भ को
कि पानी ने उनका जीना हराम कर दिया था।।