संवैधानिक संस्थाओं और संविधान का दुरुपयोग : एक गम्भीर प्रश्न

‘संविधान-दिवस’ के अवसर पर ‘सर्जनपीठ’, प्रयागराज के तत्त्वावधान में ‘संवैधानिक संस्थाओं और संविधान का दुरुपयोग : एक गम्भीर प्रश्न’ विषय पर’ २६ नवम्बर को प्रयागराज में एक आन्तर्जालिक राष्ट्रीय बौद्धिक परिसंवाद का आयोजन किया गया।

वरिष्ठ पत्रकार विश्वेश्वर कुमार (वाराणसी) ने कहा,” न्यायपालिका को राजनैतिक सत्ता के प्रभाव से दूर रखने की महती आवश्यकता है। हमें कुछ उदाहरण सामने रखकर अमेरिका के मीडिया-समूह से सीख लेने की जरूरत है। जब हम देशहित में दूरगामी हानि-लाभ के बारे में सोचेंगे तो पायेंगे कि आज जो कर रहे हैं, वह कितना सही या ग़लत है। कार्यपालिका को भी चाहिए कि वह जनहित को सामने रख सत्तादल और उसके नेताओं की चेरी बनने से बचे। एक नामधारी न्यूज एंकर और मीडिया ग्रुप के मालिक की गिरफ्तारी पर पक्ष और विपक्ष में कई बातें हो सकती हैं, हो रही हैं; लेकिन निरपेक्ष क्या है? सवाल तो उठेगा ही। आज संवैधानिक महत्त्व के बड़े पदों पर बैठे लोग न्यायपालिका के सामने लक्ष्मणरेखा खींचने की बातें कर रहे हैं। संविधान-दिवस पर इतना कहना ज़रूर समीचीन होगा कि सत्ता को भी आलोचना सुनने का साहस दिखाना चाहिए।”

वरिष्ठ पत्रकार रमाशंकर श्रीवास्तव (प्रयागराज) ने कहा, “संविधान में जो पहले से क़ानून हैं, यदि वे वर्तमान सन्दर्भ में कारगर नहीं दिखते तो उन्हें समाप्त कर, उनके स्थान पर ठोस क़ानून बनाये जायें।”

डॉ० संगीता बलवन्त (साहित्यकार और विधायक, ग़ाज़ीपुर) का मत है, “हमारा संविधान लोकतन्त्र का आत्मा है। यदि कोई सरकार आत्मा के साथ बलप्रयोग करती है तो वह अति दु:खद और शोचनीय विषय बन जाता है। देश की समस्त संवैधानिक संस्थाओं को स्वतन्त्र रूप से कार्य करने देने की आवश्यकता है, तभी वे लोकहित में निष्पक्षता के साथ अपने दायित्व का निर्वहण कर सकती हैं।”

साहित्यकार डॉ० प्रदीप चित्रांशी (प्रयागराज) ने कहा, “पश्चिमी संस्कृति में लिप्त युवाओं के बीच संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए, ‘संविधान-दिवस’ मनाना आवश्यक है, जिससे राजनैतिक पार्टियाँ संविधान संशोधन के नाम पर देशहित की जगह दलहित न साधने लगें। जिस प्रकार आपातकाल के दौरान संविधान में बदलाव किए गये थे, जिसे अँगरेज़ी में ‘कंस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया’ की जगह ‘कंस्टीट्यूशन ऑफ इंदिरा’ कहा जाने लगा था। इसकी पुनरावृत्ति वर्तमान समय में भी कभी-कभी देखने को मिलती है।”

केन्द्रीय विश्वविद्यालय, इलाहाबाद में हिन्दीविभाग के सहायक प्राध्यापक प्रो० शिवप्रसाद शुक्ल ने कहा, “संविधान का अनुपालन तटस्थ ढंग से हो। १९४७ से संविधान सत्ता पार्टी के इशारे पर चल रहा है। जजों की नियुक्ति जग जाहिर है। न्याय ख़रीदा जा रहा है। न्यायाधीश सरकार के एजेंट बन गए हैं। ई० कोर्ट भी दिखावा है। न्यायालय व्यावसायिक प्रतिष्ठान बना दिये गये हैं।”

अधिवक्त्री प्रतिभा सिंह और सहायक प्राध्यापक नीतू सिंह ने संयुक्त रूप से बताया, “भारतीय न्यायालय में भाषा के संदर्भ में समस्या गम्भीर है। जो व्यक्ति न्यायालय में न्याय माँगने के लिए जाता है, वह वहाँ की प्रचलित भाषा से अपरिचित रहता है। यही कारण है कि संविधान और जन सामान्य दूसरे से बहुत दूर हैं। इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि जनसामान्य को सीधे तौर पर इन संस्थाओं से जुड़कर और उनकी भाषा में उनकी बात सामने रखी जाये, जिससे कि वह हित-अनहित की पहचान कर सके।”

आयोजक आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय की मान्यता है, “देश में जितनी भी संवैधानिक संस्थाएँ हैं, वे सभी आज सत्तात्मक राजनैतिक हठकण्डों की शिकार हो चुकी हैं। सरकारें अपने आवश्यकतानुसार चुनाव आयोग, राज्यपाल, प्रवर्तन निदेशालय, उच्च न्यायालय, उच्चतम न्यायालय इत्यादिक की कार्यशैली ढालने के लिए विवश करती आ रही हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से देश की इन संस्थाओं पर एक प्रकार का प्रहार है। ऐसे में, जब तक इन संस्थाओं की स्वायत्तता सुरक्षित नहीं की जाती, लोकतन्त्र और गणतन्त्र के स्वास्थ्य के लिए घातक बना रहेगा।”

अन्त में, आयोजक ने समस्त सहभागियों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की।