सई नदी की करुण कथा : पौराणिक और ऐतिहासिक नदी मर रही है

एक कहानी : तब क्या होगा ?

महेन्द्र महर्षि , 31.7.2018. गुरूग्राम-


चारपाई पर लेटा बुद्ध प्रकाश , जिसे घर पड़ौस के लोग लाड़ में बुधवा कहकर बुलाते हैं , आसमान में चमकते तारों को देखता – देखता न जाने कब सो गया। सुबह जब बकरी की छलाँग की हड़बड़ी में उठने के झटके से बाहर निकलने के बाद स्थिर हुआ तो उसे वह सपना याद आने लगा जो रात के किसी पहर में उसके साथ हो लिया था और फिर अपने आप चुपचाप न जाने कब सरक लिया।

सपनों का झूठा संसार भी कितना अद्भुत होता है। वह हमें अपने साथ कहाँ कहाँ और न जाने कैसे कैसे झूठे सच्चे और काल्पनिक संसार में घुमाते हैं या कभी कभी भयभीत कर देते है।

बुद्ध प्रकाश को जो सपना पहले याद आया वो मीठा – मीठा सा ही तो था। उसने देखा था :
“वह एक बड़ा अफ़सर हो गया है। दफ़्तर की मोटर उसके फ्लेट के नीचे आ गई है , जिसे सूखे कपड़े से रगड़ रगड़ कर ड्राईवर साफ़ करने में लगा है। उधर घर में काम करने वाला सरकारी कर्मीं रसोई से नाश्ता ला कर टेबल पर रख रहा है। सब कुछ सलीक़े से लेकिन कुछ असाधारण सी जल्दी में हो रहा है। बुद्ध प्रकाश को अपने अकेलेपन का अचानक अहसास हुआ। उसे जो मिल गया है उसका मज़ा नहीं आ रहा क्योंकि वह गाँव से शहर तो आ गया मगर उसके माँ-बापू तो वही छोटी सी किसानी कर रहे हैं। भाई कृष्ण प्रकाश , जिसे सब प्यार से किसना कहते हैं , रोज़ 10 – 12 किलोमीटर साईकिल चला कर इंटर कालेज पढ़ने जाता है। उसके पास एक – दो पैंट क़मीज़ हैं जिन्हें धोना और उस्तरी करना बड़ा काम हो जाता है। उस्तरी करने के लिए वह लोटे में चूल्हे से जली लकड़ी के कोयले डाल कर काम चला लेता है। एकबार उसने लोटे को चूल्हे पर गरम करके काम चलाने का एक्सपेरिमेंट कर डाला। नतीजा धुली धुलाई पैंट पर बड़ा सा धुंए का दाग चिपक गया। नतीजतन उस पूरे हफ़्ते उसे रोज़ रोज़ एक पैंट से ही काम चलाना पड़ा था। यह सब एक क्षण में बुधवा यानी बुद्ध प्रकाश के दिमाग़ में कौंध गया। लेकिन दूसरे ही क्षण वह वापस हक़ीक़त पर लौट आया। उसके लिए संभव नहीं था कि गाँव से परिवार को अपने पास बुला कर रख ले। उसके मन में तो दूसरा लड्डू फूट रहा था। उसके दफ़्तर में काम करने वाली क्लार्क दिखने में ठीक ठाक है। उससे बात चलाए तो वह उसकी आदर्श पत्नी होगी। उसका अकेला पन फ्लेट नुमा मकान को घर में तब्दील कर देगा। जब वह गाँव पहुँचेगा तो उसका स्वागत गाँव वाले एक बडे अफ़सर के तौर पर करेंगे और हाँ , घर में बहु लाने के लिए भला कौन है जो उससे ख़ुश नहीं होगा। यही सोचता हुआ वह नीचे उतर गाड़ी में आ बैठा। वह अपने में इतना खो गया था कि दफ़्तर पहुँच कर भी तब तक मोटर में बैठा रहा जब तक की ड्राईवर ने उसे ‘सर ‘ कहकर नहीं पुकारा।

दोपहर में लंच तक चली मीटिंग के बाद उसने बाथरूम में जाकर चेहरा धोया , बालों में उँगली चला कर , गैर ज़रूरतन भी , ठीक किया और आईने में अपने को स्मार्ट महसूस करने के लिए ग़ौर से निहारा। वह अपनी कुर्सी पर आ बैठा। उसके मन में उहाँ-पोह मची थी। वह उसे बुलाए तो किस लिए ? कोई फ़ाइल डिसकस करनी हो तो बडे बाबू को भी बुलाना होगा। फिर बात नहीं बनेगी। बडे बाबू को चलता करके भी अगर वह उस रोक लेगा तो कानाफूसी का माहौल बन सकता है। यह सोच कर उस दोपहर उसने इस आईडिये को छोड दिया और घंटी पर न जाने क्यों जोर से हाथ चला दिया। फ़ौरन चपरासी आया तो उसे लंच के लिए घर जाने को गाड़ी लगवाने को कह , वह जानबूझकर कमरे के उस दरवाज़े से निकला जो बाबुओं के कमरे में से बाहर जाता था। लंच करते हुए सभी बाबू , साहेब के इस अप्रत्याशित अवतरण से , अचकचाते से उठने को हुए कि उसने ‘सारी’ कहते हुए उन्हें ‘कंटीन्यू’ कहा और चुराई नज़रों से उसको खोजा जो उसे ‘अच्छी’ लगने लगी थी। वो बैंच पर बैठी थी और उसके दाएँ – बाँए दो अन्य पुरुष कर्मी बैंच में धँसे थे। यह देखकर उसका मन कुढ़ गया। मानों उसके काँटें में फंसने से पहले ही मछली को दो मछुवारे जाल में डाल कर ले जाने वाले हैं। वो चटपट कमरे से बाहर निकल कर सीढ़ी उतरता हुआ कार में आ बैठा।”

सपने का यह भाग इससे आगे चला कि नहीं , उसे याद नहीं आया। लेकिन एक और सपना रात के बक़ाया पहर में आ लगा।

“उसे लगा कि वह गाँव के बंद पड़े हैल्थ सेंटर के बाहर लगे लाइट के खम्बे की रोशनी में कुछ उन लड़कों के साथ , जो दो-दो तीन-तीन की संख्या में अपनी साईकिलों पर 8 या 10 किलोमीटर की दूरी पार कर , उसकी सलाह से रेलवाई के इम्तिहान की तैय्यारी करने आए हैं , उन्हें पढ़ा रहा है। उसे उम्मीद है कि वो तो पास होगा ही , जो उसकी मदद ले रहे हैं वो सब भी कम्पीटीशन में सफल होकर नौकरी पर लग जाएँगे।” बुद्ध प्रकाश को ख़्याल आता है कि उसके साथ मेहनत कर रहे वे सभी लड़के जब एक दूसरे की साईकिल पर उसके गाँव आते हैं तो कच्ची पगडंडियों पर साईकिल पर ज़ोर लगाना कोई हँसी खेल नहीं। थका देने वाली यह मेहनत भी वो सब मिल बाँट कर कर लेते हैं। कुछ आधे आधे रास्ते पैडल मारते हुए पसीने तर आते हैं तो कुछ , “आते हुए तू चला तो दूसरी तरफ़ लौटते हुए मैं खींचूँगा” जैसे कान्ट्रेक्ट पर 10-12 किलोमीटर हर शाम चलते भरी रात उन्हीं पगडंडियों से यह सपना पाले हुए लौटते भी हैं कि एक दिन तो होगा जब उनके भी ‘अच्छे दिन आएँगे’।

बुद्ध प्रकाश का सपना अभी और आगे भी चलता , मगर ऐसा नहीं होता कि सपनों का संसार वास्तव में साकार होता ही हो। सुबह की इस बेला में पता नहीं कहां से एक बकरी अपने झुंड में से बिछुड ,बुद्ध प्रकाश की चारपाई पर , भोर की बेला में देखे जा रहे सपने को चूर – चूर करती एक छलाँग में निकल गई। बुधवा हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसने देखा की बकरी की एक छलाँग ने चारपाई की पहले से ढीली हिलती टाँग को अपाहिज बना दिया था। वो एक ओर झुकी , टूटी चारपाई पर धँसा , उकड़ूँ हुआ बैठा है। उसे याद आया कि उसे कम्पीटीशन का इम्तिहान देने बैंगलुरु जाने की चिट्ठी कल ही तो मिली थी। मगर वो गाँव से बैंगलुरु एक हफ़्ते बाद कैसे पहुँचेगा। उसे ₹1356/- का टिकट लेना है मगर इतने रूपये वह कहाँ से जुगाड़ेगा। रिज़र्वेशन शहर जाकर कराने में भी वो अकेला कितनी भागदौड़ करेगा ? उसके सहपाठी भी तितर- बितर और परेशान हैं क्यों कि उन्हें भी गाँव से बारह – चौदह सौ कि.मी. दूर परीक्षा केन्द्र पर जाना होगा। उन सब का क्या होगा ?

अब तो डर ये भी होने लगा है कि कौन जाने टी. वी. पर रवीश कुमार की रिपोर्ट का ऐसा असर हो कि इस चक्कर में कम्पीटीशन परीक्षा ही रद्द हो जाए और चार साल से चल रही हाडतोड मेहनत भी रद्दी का ढेर बन जाए।

बुद्ध प्रकाश के , मोटर-घर-बीबी से लेकर और न जाने कितने ही ऐसे सपनों को , मुंगेरी लाल के सपनों की तरह बिखरने में देर नहीं लगी।

उन्मुक्त बकरी की एक छलाँग , विकलांग को एक लात में पूरा अपाहिज बना देती है। वो बकरी , घास-पत्ती चरने के साथ साथ , अपने रेबड में मज़े करती बेफ़िक्री में तब तक जीती रहती है जब तक उसकी माँ खैर मनाती है। लेकिन कब तक ? बुधवा यानि कि बुद्ध प्रकाश का रेबड जिस दिन भीड़ बन गया उस दिन पूरी तरह रौंद भी तो सकता है !!

बकरी की , उस माँ को यह मालूम नहीं कि वह भी एक सपना ही देख रही है- उसका अपना नंबर भी तो अचानक आ सकता है !!! तब क्या होगा ?