वैलेण्टाइनोत्सव पर सटीक व्यंग्यात्मक प्रस्तुति : काहेक सोचु करै…

अवधेश कुमार शुक्ला (प्र. अ. जू. हा. कामीपुर)


बबूल के वृक्ष पर पीली- पीली रेखावत, लटकती, झूलती, कुछ गुच्छिल, कुछ स्वतन्त्र लटकनों को देखा । देखने में आकर्षक, आलिंगन को उसी तरह मचलती लगीं, जिस तरह वितानवत, वृक्ष को आच्छन्न किये थी । यह अमरबेल है । अमरबेल अमरत्व नहीं प्रदान करती, बल्कि जिसका वरण करती है, उसी को खाना आरम्भ कर देती है । जिस वृक्ष ने आश्रय दिया इसको, उसने संकटासन्न बना लिया अपने जीवन को ।

अपने दृष्टिपत्रों को एक-एक कर खोते जाना, अहन के मध्य में भी दिनमानी किरणों की वंचना का शाप ढोते जाना तो जैसे इसकी नियति सी बन जाती है। रेखायें कितनी प्रभावी हो सकती हैं- सब जानकर भी अबूझ, व्यस्तता में अटकाती, भटकाती, समझाती रहती हैं। रेखाओं पर चलतें हैं हम, पलते हैं हम, ढलते हैं नव-सांध्य सोपान। रात्रि की विरह साधना सालती है, रह रहकर प्रतीक्षा कराती है । क्रमशः टिक-टिक करती घड़ी की सुइयाँ, सूची भेद सन्नाटे को वेधती, कहती हैं कि शरीर भी तो रेखारूपी शिराओं, धमनियों से बिंधा होकर कार्यशील रह पाता है । एक पोषता है, दूसरा सोखता है । उत्पाद और व्यय का खेल अबाध, अनवरत चलता रहता है। उत्सर्जन और अवशोषण के मानकारों ने सृजन की आभा को विधर्मिणी राम्या के हाथों सनत बितासी बना दिया और जो कभी वैभव के अहं में फूले नहीं समाते थे, अब वे उलटा लटकने वाले अर्ध-पक्षियों के आश्रय स्थल बन गये, अनेक ढह कर धराशायी हो गये, ढक गये प्रतिदिन की धूलि से, अंक में समेटे अतीत की कथाओं,व्यथाओं को। गुणगान केवल उनका होता है, जो विजितवानों में बर्चस्वी होते हैं, अनुसरण किये जाते हैं, केवल उन्हीं के पगचिन्ह ।