मनीष कुमार शुक्ल ‘मन’ लखनऊ-
लिखते लिखते थक गया हूँ लाल गुलाबी गालों पर |
लिखना मुश्क़िल हो रहा है प्रेमिका के बालों पर ||
अब तो लिखना है मुझको भारत माँ के छालों पर |
सब कुछ छोड़े बैठे सीमा पर ऐसे विरले लालों पर ||
सबके दिल से दूर गया जो मैं वो ईमान फ़रार लिखूँ |
हमदर्द बने बैठे संसद में नेताओं का भ्रष्टाचार लिखूँ ||
झूठे कपटी लम्पट बाबा का है कैसा चमत्कार लिखूँ |
रिश्वत लेकर बैठे अफसर को क्यों न मैं गद्दार लिखूँ ||
अपने अंतस की पीड़ा मैं तुम सबको दिखलाता हूँ |
घाव तिरंगे पर कितने हैं अब तुमको बतलाता हूँ ||
शहरीकरण में नष्ट हो गए उन गाँवों तक पहुँचाता हूँ |
राख हो गए जितने जंगल उनसे भी मिलवाता हूँ ||
छोटे छोटे मासूमों का भ्रष्ट आचरण हो जाता है |
हर गम्भीर बुराई का तो स्वयम् वरण हो जाता है ||
घर बैठी महिलाओं का अब चीर हरण हो जाता है |
विद्यालय में पढ़ते बच्चों का भी मरण हो जाता है ||
सबका मैला धोने वाली अब पावन गंगा भी मैली है |
हर नुक्कड़ चौराहे पर इक तस्वीर भयावह फैली है ||
जिन हाथों से अन्न उगा है खाली उन सबकी हथेली है |
सिर्फ़ यही सच मानो कि छछूंदरों के सिर पे चमेली है ||
फिर भी कहते हो देश महान् क्या तुमको लाज नहीं आती |
वीर भगत, आज़ाद, सुभाष की तुमको याद नहीं आती ||
सीमाओं पर मरने वालों की तुम तक आवाज़ नहीं आती |
सड़कों पर मरते भूखों की तुम तक फ़रियाद नहीं आती ||
क्या इसी भविष्य का काला सपना लाल, बाल ने देखा था |
क्या वही देश ये दिखता है जो वीरों ने हमको सौंपा था ||
क्या ऐसे दिन भी भारत देखेगा कभी उन्होंने सोचा था |
क्या मूक बधिर अब होगी पीढ़ी ऐसा उन्होंने समझा था ||
फल फूल रहे इस धरती पर उन ग़द्दारों का प्रतिकार करो |
चढ़ जाओ उनकी छाती पर उनके दिल में हाहाकार करो ||
अपने अंतस में झाँक के देखो कुछ तो सोच विचार करो |
कुछ घाव रफ़ू तिरंगे का हो अब तो ऐसा व्यवहार करो ||