कहानियों में मनोरंजन है और मानसिक तृप्ति भी

आरती जायसवाल के कहानी-संग्रह के रूप में शीघ्र प्रकाश्य प्रथम पुस्तक की भूमिका



डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय (भाषाविद्-समीक्षक)



एक कुशल कहानीकार दो बातों का ही विशेषत: ध्यान करता है : प्रथम, उसे पात्रों के चरित्र और उनकी मानसिक अवस्थाओं का भली-भाँति ज्ञान रहता है। वह पूर्ण रूप से जानता रहता है कि अमुक पात्र किस अवस्था में क्या कहेगा और उसका आचरण किस प्रकार का रहेगा? द्वितीय, दो पात्रों के सम्भाषण में वह चुस्त और छोटे वाक्यों का प्रयोग करता रहता है। उन्हें बिना प्रयोजन सम्भाषण में पड़ने नहीं देता। कुछ कहानियों का आकर्षण उनके कथानक में होता है। वे चरित्र-प्रधान न होकर, घटना-प्रधान होती हैं। उनमें किसी जटिल समस्या को उपस्थित करके, उसका असाधारण रीति से निराकरण करने का प्रयास किया जाता है। कुछ कहानीकार एक सामान्य-सा विषय उठाकर, उसमें एक प्रकार की चामत्कारिकता उत्पन्न कर देते हैं। प्रभाव डालने के लिए कहानी में एक विशेष प्रकार की मानसिक अवस्था उत्पन्न करनी पड़ती है तथा विविध वायुमण्डल प्रस्तुत किये जाते हैं।
वस्तुत: छोटी कहानियों का गद्य में वही स्थान है, जो काव्य में गीति-काव्य का। वे किसी एक भाव को लेकर लिखी जाती हैं। जहाँ वह भाव व्यक्त हो गया वहाँ से यदि एक क़दम भी आगे कहानीकार बढ़ता है तो उसकी कहानी अपने मूल उद्देश्य से परे होने लगती है।
वर्तमान में, सत्तात्मक कहानियाँ लिखी जा रही हैं और छायात्मक भी। वैसे संसार के जड़-पदार्थों की ओर विशेष ध्यान न कर, मानसिक परिस्थितियों के विश्लेषण की ओर अधिक ध्यान करनेवाली, जड़ और स्थूल की अपेक्षा चेतन और सूक्ष्म को महत्त्व देनेवाली छायात्मक कहानियाँ प्रचलन में अपेक्षाकृत अधिक संख्या में लिखी जा रही हैं।
यह सत्य है कि जातीय पक्षपात से स्थायी और सार्वदेशिक साहित्य में व्यतिक्रम आता है परन्तु सिद्धान्तवादी अथवा आदर्शवादी के भीतर जो तीव्र भावना रहती है, वह व्यर्थ नहीं हो सकती। समाज का दारिद्र्य और अधोपतन के साथ सम्बन्ध करनेवाली कहानियाँ बहुतायत में लिखी जा रही हैं, फिर क्यों न लिखी जायें : सार्थक साहित्य वह है, जिसमें उस काल का समाज उन कहानी के पात्रों की आँखों में झलकता रहे।
नवोदित कहानीकार आरती जायसवाल के इस कहानी-संग्रह की कहानियाँ भी इसी समय-सत्य विवेचन से प्रभावित दिखती हैं। आरती ने अपनी कहानियों का आरम्भ यथासम्भव तीव्रतम स्थिति अथवा मर्मस्पर्शी स्थल के निकट से ही किया है। मर्मस्पर्शी स्थल यदि प्रारम्भ से अधिक दूर हो जाता है तब कहानी में शिथिलता आ जाती है। कहानी लिखने के अनेक ढंग हैं : कहीं कहानीकार पात्रों से कथोपकथन कराकर स्वयं सुनता है; कहीं वह प्रथम पुरुष में लेखन करता है; कहीं पात्रों का आश्रय लेता है तो कहीं डायरी का। आरतीे प्रथम प्रकार की लेखन-रीति को अपनाकर यथाशक्य अपनी दक्षता को उजागर करती हैं। जैसा कि देखा गया है कि चरित्र-प्रधान अथवा वातावरण-प्रधान कहानियों में प्रवाह की गति मन्द रहती है। इस कहानी-संग्रह की सम्बन्धित कहानियों की वही दशा है, जो एक स्वाभाविक कहानी की नियति भी होती है। इस संग्रह में कतिपय कहानियाँ ऐसी भी हैं, जिनमें शीघ्रतम गति का प्रयोग है और वे हैं, कथानक-प्रधान कहानियाँ। इस कहानीकार ने अपने सभी पात्रों से वही कार्य कराये हैं, जिसके वे वस्तुत: पात्र हैं। कुछ कहानियों में नवीनता, विचित्रता अथवा आश्चर्य तत्त्व का ऐसा मिश्रण है कि सम्बन्धित पात्र का कार्य अपने ढंग का प्रतीत होता है; किसी के अनुकरण की गन्ध नहीं आने पाती, वहीं कहानीकार ने संकट के समय अपने पात्रों से उस सीमा का कार्य कराया है, जो उसकी और पाठक-वर्ग की अनुमान और आशा के प्रतिकूल हो।
‘परिवर्त्तन, अब भी शेष है’ में युवा कहानीकार आरती ने नाना नकारात्मक स्थितियों-परिस्थितियों और आचरण की सभ्यता पर कटाक्ष करते हुए, भविष्य की कोख पर भी प्रहार किया है। सर्वहारा-वर्ग की दमित-दलित आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करनेवाली पहली कहानी ‘भूख’ में ‘विकास’ के यथार्थ पर कटाक्ष किया गया है, जो कि प्रासंगिक है। रजवा चाय की दूकानवाले अपने मालिक से पूछ बैठता है, “मालिक! क्या कोई भूखा, बेघर और बेरोज़गार नहीं रहेगा? डिजिटल दाल-रोटी से पेट भर जायेगा न?”
दूसरी कहानी में न्यायाधीश के पद का प्रभुत्व इतना बृहद् और निरंकुश हो जाता है कि सारे मातहत उचित-अनुचित का भान किये, न्यायाधीश के ग़लत बात-व्यवहार :– ” तुम्हीं थे न उस रात, मेरे काम को न करने से मना करनेवाले? तुम्हारा व्यापार बन्द करवा दूँगा… तुम अपने को समझते क्या हो, यहीं रहना है न तुम्हें ?’ के पक्षधर बनकर रह जाते हैं और एक निर्दोष न्यायाधीश के समक्ष ‘अपराधी’ की मुद्रा में खड़ा रह जाता है। तीसरी कहानी ‘प्रतिकार’ में एक ऐसी नारी की व्यथा का चित्रण है, जो बेटी, बहन, पत्नी तथा माँ के अधिकार को छोड़कर भी अपने पति के प्रति समर्पित है परन्तु पति उसकी अभिलाषाओं, आकांक्षाओं तथा इच्छाओं पर पद-प्रहार करता जाता है और जब उस पत्नी का नारित्व जाग्रत होता है तब वह जिस परिधि में चलती रहती थी, उसका अतिक्रमण करते हुए, ‘प्रतिकार’ के दहलीज पर आ जाती है फिर…….?
इसी तरह से इस संग्रह की अन्य कहानियों में सामाजिक व्यवस्था के अत्याचारों की अनुगूँज सुनायी पड़ती है।
आशा की जाती है कि ये सभी कहानियाँ पाठक-वर्ग को आन्दोलित करते हुए, एक पल के लिए स्थिर होकर विचार करने के लिए विवश करेंगी। यही प्रभावोत्पादकता एक यथार्थवादी कथाकार को सामान्य से विशिष्ट की कोटि तक ले जाती है।
इस बात से अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि कहानीकार आरती जायसवाल के भीतर का कहानीकार विषयवस्तु का तटस्थ द्रष्टा है और रोचकता को बनाये रखते हुए, समाज के सम्मुख यथार्थ का सम्प्रेषण करने में कुशल है और यही एक संवेदनशील सर्जनशीलता का वैशिष्ट्य है।
कहानीकार आरती की कहानियों में मनोरंजन है और मानसिक तृप्ति भी, क्योंकि किसी भी कहानी में दोनों में से किसी एक का होना अपरिहार्य है। सर्वोत्तम कहानी उसे कहते हैं, जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक तत्त्व पर हो। किसी समस्या का समावेश कहानी को आकर्षक बनाने का उत्कृष्ट साधन है, इस दृष्टि से आरती की कहानियाँ सफल बन पड़ी हैं। उनकी कहानियाँ जीवन के सन्निकट दिखती हैं। उनमें एक प्रसंग और आत्मा की झलक का सजीव और हृदयस्पर्शी चित्रण है, जिनके कारण उनमें प्रभाव, आकस्मिकता तथा तीव्रता की अनुभूति होती है। यही कारण है कि एक सजग पाठक इन कहानियों के साथ तादात्म्य स्थापित कर, प्रत्येक पात्र को अपने समाज के भीतर पाता हुआ दिखता है।
चूँकि पुस्तक के रूप में युवा और संवेदनशील कहानीकार आरती जायसवाल की यह प्रथम कृति है अत: हम सभी का दायित्व बनता है कि अपने-अपने स्तर पर, “पढ़ती रहो-लिखती रहो; उत्तम से अत्युत्तम और अत्युत्तम से सर्वोत्तम की ओर तन्मयता के साथ बढ़ती रहो” की अभिप्रेरणा के साथ ‘परिवर्त्तन, जो अभी शेष है’ का हम स्वागत करें।


सम्पर्क-सूत्र
‘सर्जनपीठ’
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