भाषा-शुचिता की ओर ‘दैनिक जागरण-परिवार’ के बढ़ते चरण

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

‘दैनिक जागरण-परिवार’ ने ‘हिंदी हैं हम’ के अन्तर्गत हमारी भाषा-शुचिता अभियान को गति देते हुए, ‘शहीद-शहादत’ तथा ‘शहीद की पत्नी’ के स्थान पर हमारी भारतीय संस्कृति, परम्परा तथा मूल्यबोध से सम्पृक्त सात्त्विक शब्द क्रमश: ‘बलिदानी-बलिदान’ तथा ‘वीरांगना’ को प्रयोग में लाने के लिए अपनी कटिबद्धता को सार्वजनिक कर दिया है। तीन दिनों पूर्व ‘दैनिक जागरण’ के समस्त संस्करणों में इसे लागू भी कर दिया गया है।

इन शब्दों के व्यवहार में आने के दो दिनों पूर्व ‘दैनिक जागरण’ के सम्मान्य राष्ट्रीय सम्पादक विष्णुप्रकाश त्रिपाठी जी का फ़ोन आया,”भइया! ‘शहीद’, ‘शहादत’ तथा ‘शहीद की पत्नी’ के लिए नये शब्द बताइए।” अपने अनन्य अनुज त्रिपाठी जी के प्रश्न को पाकर मुझे आत्यन्तिक प्रसन्नता हुई थी। ऐसा इसलिए भी कि उक्त तीनों शब्द मुझे भी खटक रहे थे। उसी समय मैं बोल पड़ा, ”भ्राता जी! शहीद के लिए ‘बलिदानी’; शहादत के लिए ‘बलिदान’ तथा शहीद की पत्नी के लिए ‘वीरांगना’। फिर क्या था, हम दोनों के उस सत्संग से हमारे ये तीनों शब्द, जो सामाजिक व्यवहार-स्तर पर लुप्तप्राय थे, पुन: जीवन्त हो चुके हैं।

सम्मान्य राष्ट्रीय सम्पादक जी हिन्दी-भाषा के उन शब्दों को पत्रकारिता के क्षेत्र में अधिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्प हैं, जो शुद्ध हैं; सरल हैं; बोधगम्य हैं तथा सम्प्रेषणीय हैं, साथ ही जो शब्द व्यवहार-स्तर पर दुर्लभ और दुष्प्राप्य होते जा रहे हैं; उस पर ‘दैनिक जागरण’ के संरक्षक सम्माननीय संजय गुप्त जी का समाचारपत्र में प्रकाशित सामग्री की शुद्धता के प्रति आग्रह हमें ऊर्जावान् बनाता है और हमारी इच्छाशक्ति को एक निरापद (सुरक्षित) पंख भी देता है।

मेरी तो यही इच्छा है कि देश के समस्त समाचारपत्रों में एकरूपता दिखे। इसके लिए मैं देश में प्रकाशित समस्त समाचारपत्रों के प्रमुख सम्पादकगण के सम्पर्क में दशकों से रहा; लेकिन इस विषय पर शेष सम्पादकगण बाध्यता-विवशता के पाठ पढ़ाते रहे। इतना ही नहीं, भाषा-शुचिता और मानकीकरण के लिए जब मैं पुन: फ़ोन करता था तब उधर की घण्टी बजती ही रहती थी। कुछ का उत्तर होता था,” सर/पाण्डे जी! अभी मैं एक मीटिंग में हूँ। अभी पाँच मिनट में काल बैक करता हूँ।”

“मैं अभी बाहर हूँ।” आदिक-आदिक चालाकियाँ। पाँच मिनट पाँच वर्षों से अधिक हो चुके हैं; बाहरवाले साहिब अब भी बाहर हैं।

कालान्तर में, कुछ ने फ़ोन किये थे; लेकिन अपने लिए।
एक ने पूछा, ” उज्ज्वल-प्रज्वल की गणित समझाइए।” मैंने बताया, “आपका वाक्य ही अशुद्ध है।” उधर से उत्तर आया,”क्यों?” मेरा उत्तर था, “आपको कहना चाहिए– उज्ज्वल-प्रज्वल का गणित समझाइए।” गणित पुल्लिंग का शब्द है। इतने में, उस सम्पादक जी को मिर्ची लग गयी। उन्होंने फ़ोन-सम्पर्क-विच्छेद कर दिया था। एक सम्पादक ने प्रश्न किया था,”पाण्डे सर जी! विद्यालयी और पाठशालीय में क्या कोई डिफरेंस है?” उनसे मैंने कहा, “आपने जिन शब्दों का यहाँ प्रयोग किया है, वे अशुद्ध हैं। पहली बात, सर के साथ ‘जी’ का प्रयोग नहीं होता। डिफरेंस के स्थान पर आप ‘भिन्नता’/’अन्तर’ का प्रयोग कर सकते थे। ‘विद्यालयी’ और ‘पाठशालीय’ सार्थक शब्द नहीं है।” उनका उत्तर था, “सर! हमारे यहाँ तो होता है।” इतना सुनते ही, मैंने फ़ोन को कान से अलग कर बटन दबाकर एक तरफ़ रख दिया था। घण्टी बजती रही, उठाया नहीं। एक बड़े क़दवाले सम्पादक हैं। उन्होंने सम्पादकीय पृष्ठ पर अपने आदमक़द चित्र के साथ रविवासरीय स्तम्भ के अन्तर्गत एक वैचारिक लेख छापा था, जिसका शीर्षक था, ‘जनों का जनतन्त्र जाग्रित’। पढ़कर मैंने अपना माथा ठोंक लिया, फिर तो ‘मुक्त मीडिया’/सोशल मीडिया पर उक्त शीर्षक को शुद्ध करते हुए, अपने स्वभावानुसार एक यथार्थ टिप्पणी कर दी थी। वे भी अप्रसन्न रहते हैं। बहरहाल, उक्त समस्त गतिविधियों का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं।

‘दैनिक जागरण-परिवार’ मेरी सुनता है; उसे समझता है और लोकोपयोगी होने पर उसे सार्वजनिक करता है, यही परम (परम् अशुद्ध है।) सन्तोष का विषय है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २१ जून, २०२० ईसवी)