तालाब, एडवेंचर और पापा

गर्मी की छुट्टी की लंबी दुपहरियों में हमारा मुख्य एजेंडा होता था घर वालों की नजर बचाकर घर के पास स्थित दनकुंवा तालाब में नहाने जाना। कभी हम इसमें सफल हो जाते तो कभी असफल।

लेकिन इस एडवेंचर से हम बहुत कम उम्र में बिना किसी खर्चा-पानी और ट्रेनर के एक स्किल जरूर सीखने में सफल रहे – वह था तैराकी। कब और कैसे सीखा यह तो ठीक से याद नहीं लेकिन इतना जरूर याद है कि 14-15 साल की उमर होते-होते हम आधा तालाब एक बार में तैर लेते थे और एकाध मिनट डुब्बी मार के पानी के अंदर-अंदर कुछ दूरी निकल जाते थे। बैलों को धोने के लिए जब एकौनी गांव के नहर जाने लगे तो पुल से नीचे गहरे पानी में कूदना और डाइव करना भी सीख लिया।

हमारी इस प्रतिभा से मुहल्ले के सारे हमउम्र बच्चे, कुछ बड़े और घर के कई सदस्य अवगत थे। लेकिन पापा को मेरे इस स्किल के बारे में बिल्कुल भी जानकारी नहीं थी।

एक बार पूर्णिमा के दिन हम सपरिवार कानपुर के जाजमऊ स्थित गंगाघाट में स्नान करने गए। घाट के किनारे स्थित एक पंडा के ठीहे (तख्त) पर कपड़े वगैरह रखे । फिर केवल अंडरवियर पहने हुए पापा के साथ गंगास्नान करने के लिए गंगा जी के चरण छूते हुए प्रवेश कर गए । पापा ने गंगा स्नान करने से पहले ही सबको ताकीद कर दी थी कि कोई गहरे जल में नहीं जाएगा। सात डुब्बी लगाओ और फिर वापस जाकर गीले कपड़े बदलकर, पूरे कपड़े पहनो। कंघी करो, पंडा से तिलक लगवाओ और घर के लिए प्रस्थान करो।

पापा का कहना मानते हुए, मैं तैरना जानते हुए भी गहरे जल में नहीं गया। उनके आसपास ही अलग-अलग नाम लेकर सात डुब्बी लगाता रहा। चूंकि मैं छोटा था, इकहरा बदन था, फुर्ती भी थी इसलिए मेरी डुब्बी सबसे पहले पूरी हो गई। पापा और अन्य लोग शायद अभी चार-पाँच तक ही पहुंचे थे। इसलिए मैंने सोचा कि बचे हुए समय का सदुपयोग पापा को अपनी प्रतिभा दिखाने में कर लूं। वह खुश हो जाएंगे और मेरी तारीफ भी करेंगे।

इसलिए मैंने गहरी सांस लेकर एक डुब्बी ली और करीब एक मिनट तक पानी के अंदर ही रहा। फिर कुछ दूर जाकर बाहर निकल आया। अब मैं वहां से डुब्बी लगाकर फिर पापा के पास लौटने ही वाला था कि देखता हूँ पापा मेरी ओर आग्नेय नेत्रों से देखते हुए बढ़े चले आ रहे हैं। उन्होंने मुझे बहुत जोर से डांटा और बोले-” अभी बाहर निकलो, हो गया तुम्हारा स्नान।” इसके साथ ही उन्होंने अन्य सभी लोगों को भी तुरंत गंगा जी से बाहर आने को कह दिया।

मुझे कुछ समझ न आया। कहाँ तो मैं उम्मीद कर रहा था कि पापा मेरी प्रतिभा की तारीफ करेंगे, मेरी पीठ थपथपाएंगे। यहां तो वह उल्टा बहुत जोर से गुस्सा हो गए। एक-दो अपवाद को छोड़ दिया जाए , तो पापा मारते तो किसी को भी नहीं थे। अपने छात्रों को भी नहीं। मैं तो पापा का प्रिय था, उनका घोषित चम्मच था। मुझे इस तरह से शायद ही उन्होंने कभी डांटा हो। अतः यह तो समझ आ गया कि आज कुछ ज्यादा ही गलत मैंने कर दिया है। वरना पापा का यह रौद्र रूप मुझे देखने को न मिलता। क्या गलत किया है, बस यह पता न था। सामान्य समय में तो मैं पापा से सही-गलत की परवाह किये बिना कुछ भी पूछ लेता था। लेकिन उस समय पापा का गुस्से से तमतमाया हुआ लाल चेहरा देखकर मेरी हिम्मत न पड़ी उनके पास जाने की।

इसलिए मैं चुपके से अम्मा के पास गया और पापा के तेज गुस्से का कारण पूछा तो वह बताने लगी –

“अरे बच्चा, तुम डुब्बी लगाने के बाद काफी देर बाहर न निकले तो तुम्हारे पापा किसी अनजान भय की कल्पना करते हुए, वहाँ जाकर तुम्हें ढूंढने लगे, जहां तुमने डुबकी लगाई थी। उस स्थान पर तुम्हें न पाकर, वह और भी ज्यादा डर गए। मगरमच्छ, घड़ियाल, भंवर, कोई अनहोनी जैसे तमाम खयाल उनके मन में आने लगे। वह तो अच्छा हुआ कि तुम थोड़ी ही देर बाद कुछ दूरी पर दिख गए, नहीं तो वह पता नहीं क्या करने वाले थे।”

अम्मा की पूरी बात सुनकर मुझे अपनी नासमझी, बचपना, मूर्खता समझ में आ गई। मैं यह सोच के सिहर उठा कि वह कुछ सेकंड पापा के लिए कैसे गुजरे होंगे। उन्होंने क्या-क्या नहीं सोच लिया होगा। कहीं वह मुझे ढूंढने के लिए गहरे जल में कूद जाते तो क्या होता? किसी अनहोनी को सोचकर उन्हें कुछ हो जाता तो क्या होता?

हमारे समय पापा को ‘सॉरी’ बोलने की प्रथा तो थी नहीं। इसलिए मैं अपनी मूर्खता की क्षमा मांगने हेतु पापा के सामने अपराधी सा खड़ा हो गया। पापा ने मेरी ओर कुछ प्यार से देखा तो मेरी आँखों से आँसू अपने आप ही झर-झर कर बहने लगे। मैं तो सब कुछ समझ ही गया था, मेरे आंसुओं ने शायद पापा को भी सब कुछ समझा दिया था। वह मेरे पास आये और अपने सीने से चिपका लिया। फिर बहुत देर तक मुझे दुलराते रहे।

(विनय सिंह बैस, पापा के प्रिय पुत्र)