शब्दों के लिहाफ़ में…

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय


हथेलियों में छुपा लेता हूँ ख़ुद को
और निहाल हो जाता हूँ।
हर ज़रूरत से दूर ख़ुद को रखकर
अपनी कैफ़ीयत की
मंज़रकशी करने लगता हूँ।
शब्दों के लिहाफ़ में नख-शिख
बन्द कर लेता हूँ ख़ुद को।
फिर भी
कभी दरवाज़े तो कभी दरीचे पर
टिक जाते हैं कान।
लगता है,
समय थक गया है।
अन्तस के राग-द्वेष को झिंझोड़ते हुए
आत्म-चेतना को जाग्रत करने लगता हूँ।
(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय; १७ जनवरी, २०१८ ईसवी)