एक अभिव्यक्ति

★ आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

यक़ीं नहीं आता
ख़ुद को देख रहा हूँ।
अतीत, वर्तमान तथा भविष्य के गलियारों में
ढूँढ़ रहा हूँ
अपने न होकर भी हो जाने के साक्ष्य को
पर हर बार
ख़ुद को ख़ुद से
ठगा हुआ पा रहा हूँ।
निगाहों में पांचाली ठहर जाती है
और टुकुर-टुकुर ताकतीं
पुरुषार्थ के धनी
पञ्च पाण्डवों की
लाचारगी में सनी
कातर आँखें।
मैंने भी नज़रें
झुका ली हैं
ख़ुद से ख़ुद को हार जो चुका हूँ।
देश-काल-पात्र की
रीति ही निराली है।
हार कर भी
मेरे हस्रतेअर्मां धुँधुआते रहेंगे
और शोला बनकर
लील जायेंगे मेरी
दुर्बलता को।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २९ जून, २०२१ ईसवी।)