जड़बुद्धि गोँडानिवासी, गणित-अध्यापक ‘घनश्याम अवस्थी’! सुनो

एक जाहिल है; गोँडा का रहनेवाला बताया जाता है, जिसका नाम ‘घनश्याम अवस्थी’ है। वह गोँडा के किसी शिक्षालय मे गणित का अध्यापक है। मेरे घर भी आ चुका है। जब लोग उससे शब्दोँ के बारे मे पूछते थे तब मुझे फ़ोन-माध्यम से उन शब्दोँ का अर्थ पूछकर उन लोग को बताकर ‘व्याकरणाचार्य’ बन जाया करता था। वह मेरे द्वारा बताये-समझाये गये शब्दोँ और उनके अर्थोँ को लेकर अपने नाम से आत्मप्रचार करता रहा; एक-दो बार संकेत भी किया था; परन्तु मनबढ़ तो ‘मनबढ़’। अन्तत; मैने उसे अपने समस्त समूह से बहिष्कृत कर दिया था; लगभग एक वर्ष हो चुके हैँ।

घनश्याम अवस्थी नामक उस परजीवी प्रजाति ने पिछले दिनो मेरे विरुद्ध एक कुत्सित-गर्हित टिप्पणी सार्जनिक की थी, जिसमे उस निरीह व्यक्ति ने मेरे द्वारा बताये गये ‘अनुस्वार’ और ‘अनुनासिक’-प्रयोग को लेकर विद्यार्थियोँ-अध्यापकोँ एवं अन्य जन के मध्य एक भ्रम और संशय की दीवार खड़ी कर दी थी। पहले वह व्याकरणसम्मत मेरे सारे अभिनव प्रयोग और स्थापना को उपयुक्त मानता था। जब मैने उसे एक अप्रासंगिक व्यक्ति समझते हुए, अपने मन-मस्तिष्क से सदैव के लिए सुदूर कर दिया तब उसकी ‘पापबुद्धि’ दुष्चक्र रचने लगी, जिससे मेरे कई स्नेहिल शिष्य-शिष्याओँ, अध्यापक-अध्यापिकाओँ, साहित्यकारोँ आदिक ने दु:खी मन से उसके कुकृत्य का परिचय देते हुए, फ़ोन-माध्यम से बताया तथा उसका सम्प्रेषण प्रेषित किया था। मै मौन बना रहा; परन्तु उसकी धृष्टता के विरुद्ध मेरे आत्मीयजन एवं शुभचिन्तकवृन्द ने मुझसे मेरा मौन तोड़ने के लिए आग्रह किया तब मुझे ऐसी प्रतिक्रिया करनी पड़ी है।

‘घनश्याम अवस्थी’ गणित का अध्यापक है। वह अवस्था और पात्रता मे भी सुदूर पीछे है। उसे चाहिए था कि अपनी वस्तुपरक दृष्टि का परिचय देता; परन्तु वह तो उद्धत प्रकृति का एक तुच्छ जीव निकला।

मैँ गोँडा-निवासी, गणित-अध्यापक, बहुरूपिये ‘घनश्याम अवस्थी’ से प्रश्न करता हूँ :–
गणित-मास्टर घनश्याम अवस्थी! मैंने के ‘मै’ पर बिन्दी है तो उसके ‘ने’ पर क्योँ नहीँ है? नीवँ के ‘नी’ पर बिन्दी क्योँ नहीँ लगेगी? हमने के ‘ने’ पर बिन्दी क्योँ नहीँ लगायी गयी है? नोक के ‘नो’ पर बिन्दी क्योँ नहीँ लगायी गयी है? नन्हे-मुन्नो लिखते समय मुन्नो के ‘नो’ पर बिन्दी क्योँ नहीँ?
हमने शब्द के ‘ने’ पर बिन्दी क्योँ नहीँ लगायी जाती? शब्द ‘क्योँकि’ का उच्चारण करते हो और लिखते हो, ‘क्योंकि’; ऐसा दोगलापन क्योँ? जहाँ, तहाँ, वहाँ, कहाँ इत्यादिक लिखते और कहते हो; हैँ, हूँ, होँ, नहीँ, कहीँ, यहीँ इत्यादिक शब्दोँ मे अनुनासिक क्योँ नहीँ?

क्षुद्रजीवी-कापुरुष घनश्याम अवस्थी! भविष्य मे ध्यानावस्था की अवधि मे किसी ‘प्रबुद्ध शेर’ को जाग्रत् करने की धृष्टता कदापि मत करना, वरना तुम्हेँ चबाकर निगल जायेगा। वह तुम्हारे गोँडा-स्थित विद्यालय मे आकर तुम्हारा ऐसा वन्दन-अभिनन्दन करेगा कि तुम्हारी जाने कितनी पीढ़ियाँ ‘पर-अपमान’ करने का ध्यान आते ही भीतर तक सिहर उठेँगी।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पण्डित पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ११ दिसम्बर, २०२४ ईसवी।)