एक अन्तरंग संस्मरण
आज (२७ जुलाई) भ्राताश्री, पूर्व-राष्ट्रपति अबुल कलाम जी की निधनतिथि/का निधनदिनांक (‘दिनाँक’ अशुद्ध है।) है।
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
डॉ० अब्दुल कलाम प्रेय थे तो श्रेय भी। उन्होंने जब राष्ट्रपति-पद की शपथ ली थी तब अपने ओजस्वी सम्बोधन मे जो कुछ कहा था, उससे ही प्रतीत हो गया था कि यथार्थ की कठोर भूमि पर खड़ा वह प्रौद्योगोकीविद् अब ‘स्वप्नद्रष्टा’ राष्ट्रनायक की भूमिका का निर्वहण करने के लिए पग उठा चुका था। उसे प्रतीक्षा थी, अपने एक अरब से अधिक देशवासियों के एक ऐसे अभियान की, जनान्दोलन की, जिनके परिणाम-प्रभाव से भारत कुपोषणता, निर्धनता, अशिक्षा तथा बेरोज़गारी से मुक्त हो सके; आर्थिक-सामाजिक-सामरिक रूप मे समृद्ध और आत्मनिर्भर बन सके।
तीव्र गति मे बदलती परिस्थितियों मे डॉ० कलाम ने प्रतियोगिता-प्रतिस्पर्द्धा मे टिकने की क्षमता अर्जित करने, लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने के लिए कर्मनिष्ठा के साथ विकेन्द्रीकरण की दिशा मे प्रयास करने तथा विविध स्तरों, विशेषतः महिला और युवा-वर्ग के शक्तीकरण (‘सशक्तिकरण’ और ‘सशक्तीकरण’ अशुद्ध शब्द हैं।) की आवश्यकता पर बल दिया था। उनका मानना था कि महिलाओं के सबलीकरण से समाज मे स्थिरता आती है।
डॉ० कलाम ने, भारत के लिए जो महान् लक्ष्य निर्धारित किये थे, उन्हें पूर्ण करने की अपनी इच्छाशक्ति जाग्रत् (‘जागृत’ अशुद्ध है।) की थी।
मेरे हृदय मे उनके प्रति समादर था; प्रतिक्रियास्वरूप ‘रामेश्वरम् से राजपथ तक’ और ‘शून्य से शिखर तक डॉ० अब्दुल कलाम’ कृतियों का मैने अलग-अलग अवस्था-वर्ग के पाठकों के लिए प्रणयन किया था।
तत्कालीन राष्ट्रपति और ‘मिसाइल मैन’ नाम से प्रतिष्ठित प्रमुख प्रौद्योगिकीविद् डॉ० अब्दुल कलाम के साथ ‘राष्ट्रपतिभवन मे व्यतीत किये आत्मीय और अन्तरंग क्षणो को अपने पाठक-वर्ग के साथ साझा करना समीचीन समझता हूँ; क्योंकि देश-काल-परिस्थिति-पात्र प्रासंगिक जान पड़ते हैं।
राष्ट्रपति महोदय से मिलना आसान नहीं रहता। इतनी औपचारिकताएँ और वर्जनाएँ रहती हैं कि कोई भी सामान्य व्यक्ति उनसे भेंट कर नहीं पाता। कहाँ सम्पूर्ण भारत के ‘प्रथम नागरिक’ और कहाँ मै, एक ‘अति सामान्य नागरिक’।
डॉ० कलाम का जब नाम राष्ट्रपति-पद के प्रत्याशी के रूप मे सार्वजनिक हो रहा था तब उससे पूर्व ही मै उन पर एक मौलिक कृति ‘रामेश्वरम् से राजपथ तक’ का प्रणयन आरम्भ कर चुका था। पुस्तक प्रकाशित हुई थी और मैने उन्हें ‘डॉ० कलाम के नाम’ से राष्ट्रपतिभवन के पते पर भेज दी थी। मै अन्य कृति के सर्जन मे व्यस्त था कि मेरे पास २.३० अपराह्न के समय एक फ़ोन आया था। फ़ोन करनेवाले ने कहा, “मै डी०एम०, इलाहाबाद बोल रहा हूँ। राष्ट्रपतिभवन मे आपको महामहिम राष्ट्रपति जी से मिलने के लिए बुलाया गया है। आप अगले सप्ताह की कोई दो ‘डेट’ बता दीजिए और आपके साथ कितने लोग रहेंगे। ‘मिनट-टु-मिनट’ कार्यक्रम भेज दीजिए।”
मै प्रसन्न इसलिए था कि मैने पुस्तक ही भेजी थी; भेंट करने की इच्छा व्यक्त नहीं की थी। बहरहाल, मैने अपनी सारस्वत निधि ‘लोकप्रिय विज्ञान-प्रौद्योगिकी-विषयक ३२ पुस्तकों के साथ महामहिम राष्ट्रपति डॉ० कलाम जी से भेंट की थी। पहली भेंट और अवर्णनीय अन्तरंगता! कल्पनातीत रही। उसके बाद अनेक प्रसंग ऐसे रहे, जिनके कारण हम दोनो आत्मीयता के पाश मे आबद्ध होते रहे। कालान्तर मे, हम ‘दो भाई’ के रूप मे मिलते रहे। ‘रामेश्वरम् से ‘राजपथ तक’ बाल-किशोरों के लिए पुस्तक रही। उसके बाद मैने एक बृहद् पुस्तक ‘शून्य से शिखर तक डॉ० अब्दुल कलाम’ का लेखन किया था।
हम इतने घुल-मिल चुके थे कि कहीं से नहीं लगता था कि मै किसी राष्ट्रपति के समक्ष हूँ और उन्होंने भी मुझे कभी ‘राष्ट्रपति’ होने का अनुभव नहीं करने दिया था। एक रात्रि श्रद्धेय भ्राताश्री कलाम जी ने कह दिया था, “तुम मेरा ‘चोट्टा’ भाई है’, फिर जब मैने उन्हें ‘चोट्टा’ का अर्थ गहराई के साथ बताया था तब वे खिलखिलाकर हँस पड़े थे। बाद मे सुधार करते हुए उन्होंने कहा, ”तुम मेरा ‘छोट्टा’ भाई है; यंगर ब्रदर; ऐम राइट? ‘छोटा’ को उन्होंने इतना खींच कर कहा था कि मेरी हँसी फूट चुकी थी और छूट भी चुकी थी। अपनी हँसी को किसी तरह से सँभालते हुए, दबाते हुए मैने फिर कहा, ”आप अब भी अशुद्ध बोल रहे हैं।” तब न जाने कैसे देश के राष्ट्रपति को मैने एक अति अनुशासित शिक्षक की तरह से टोका था। उनका उत्तर था, ”चोट्टा को छोट्टा ‘काह’ दिया, हो गया ना?” मैने कहा, ”जी नहीं। आपने फिर ग़लत कहा है।” फिर मैने बताया, ”आप मेरे कहने के बाद कहिए, “तुम मेरे छोटे भाई हो।” उन्होंने उसे दोहराया, फिर मैने कहा, ”अब कहिए :― चोट्टा को ‘छोटा’ कह’ दिया।”
विविध प्रसंगों पर वार्त्ता करते समय जब मै स्वास्थ्य, शिक्षा तथा नियोजन-क्षेत्रों मे शासकीय नीतियों पर प्रहार करना चाहता था तब अपनी ‘अनामिका’ हिलाते हुए, एक अनुशासित अभिभावक की भाँति ‘वर्जना’ का संकेत करते थे।
कालान्तर मे, हमारे सम्मिलन मे कहीं-कोई औपचारिकता नहीं रही और हम दोनो औपचारिकताओं से परे रहकर, एक अलग रूप में स्वयंसिद्ध होते रहे। डॉ० कलाम ‘हिन्दी’ सीखना चाहते थे; उन्हें समय नहीं मिल पाता था। एक स्थिति ऐसी आयी कि उस महामानव ने न जाने क्या सोचा-विचार किया और एक झटके में मुझे ‘गुरु’ बना लिया था।
इसके पीछे भी एक आत्मीय घटना है। हुआ यों कि मेरे हाथों मे मेरी एक पुस्तक ‘भारतीय वैज्ञानिक (‘विज्ञानी’ शुद्ध है।) और उनकी देन’ थी। उसको देखते ही उन्होंने मुझसे ले ली। कलाम साहिब टूटी-फूटी हिन्दी बोल लेते थे। मेरी कोशिश थी, उनकी हिन्दी न बोल पाने की झिझक समाप्त करूँ। उनका प्रश्न था, “तुमने (तुम्हारे) इस बुक मे क्या है ?” मैने बताया, “इसमें इण्डियन साइंस्टिट के बारे मे है।” फिर वे चहक कर बोले,”मेरा भी।” मेरा उत्तर था,”आप साइंटिस्ट नहीं हैं।” वे विस्मित होकर पूछ बैठे, ”देन ह्वाट?’ (फिर क्या हूँ?) मैने उन्हें बताया, “आपके सभी काम ‘टेक्निकल’ रहे हैं :― ‘उपग्रह’, ‘पेसमेकर’, ‘परमाणुबॉम्ब’ से लेकर ‘मिसाइल’ तक।” तब वे समझ गये थे। मैने बताया, “आप एक कुशल ‘टेक्नोलॉजिस्ट’ हैं, फिर मैने बताया,” मेरी पुस्तक मे भी ग़लत है।” वे बोले, “हाऊ?” मैने बताया कि वैज्ञानिक की जगह कुछ और होगा; प्रकाशक ने शुद्ध शब्द बदल दिये हैं। तभी उनके सामने मैने तीन शब्द लिखे थे और उनके अर्थ पूछे थे। वे शब्द थे :― साइंस, साइण्टिस्ट तथा साइण्टिफ़िक। मैने उनसे इन तीनो के अर्थ पूछे थे। उन्होंने कहा,”बिग्यान।” मैने उच्चारणसहित सुधारा था,”विज्ञान कहिए।” दूसरे शब्द ‘साइंटिस्ट’ का अर्थ ‘बैग्यानिक’ कहा। मै चुप रहा। जब ‘साइंटिफ़िक’ का अर्थ पूछा था तब अपना सिर खुजलाते रहे और स्वयं से अर्थ लेते हुए, गरदन हिलाते रहे; यानी ‘यह नहीं, वह नहीं’ का भाव-प्रदर्शन, फिर जब कुछ नहीं सूझा तब उन्होंने कहा, “अच्छा, यू टेल मी।” मैने बताया, “साइण्टिस्ट का अर्थ ‘विज्ञानी’ और ‘साइण्टिफ़िक’ का ‘वैज्ञानिक’ है। यह सुनते ही, कलाम साहिब मेरे गाल पर चपत लगाते हुए बोल पड़े, “पाण्डे! तू मेरा ट्यूटर बन जा।”
अब तो उनके हाथ का दिया हुआ ‘मट्ठा’ बार-बार याद आता है। उनकी स्मृतियों पर आधारित पाण्डुलिपि ‘क्या भूलूँ-क्या याद करूँ’ रखी हुई है; परन्तु उनके शरीरान्त के बाद मै बहुत टूट गया था; बिखरा नहीं। एक ‘बड़ा भाई’ सदैव के लिए बिछुड़ चुका था। वे मेरे भविष्य के लिए बहुत-कुछ करना चाहते थे। मै कहता था,”मुझे सिर्फ़ आपका ‘आशीर्वाद’ चाहिए। इस पर वे नाराज़ होकर कहते थे ,”तू मेरा चोट्टा (छोटा) भाई है न, मेरे को ड्यूटी बनती है तेरे लिए; और लोग आते हैं तो इतना बाड़ा पेपर लेकर आता है और बोलता है :― मेरे लिए ये, वो करना है और तू ‘प्रेजेण्ट टाइम का गांधी जी’ होता है क्या? आय विल फुलफिल योर डीजायर। आस्क मी। बगल की केबिन जब तक मै रहेगा, तेरे लिए।” इस पर मैने श्रद्धेय अग्रज कलाम जी का चरणस्पर्श करते हुए कहा था, “भ्राताश्री! मुझे कुछ नहीं चाहिए। इस पर पुन: असन्तुष्ट होकर बोले, “तू जा अब एलाहाबाड। आय विल कम ह्वेरी सून। ‘देन’ हम मिलेगा।”
मेरा आरक्षण ‘राष्ट्रपति-भवन’ की ओर से कराया गया था। उन्होंने आशीर्वादस्वरूप बहुत सारी वस्तुएँ प्रदान की थीं, जिनमे ‘दो सफ़ारी सूट के वस्त्र’, ‘चादर’, ‘कम्बल’, ‘एक बड़े आकार का ‘पॉलीकार्बोनेट हार्ड ट्रॉली सूटकेस’, ‘मिष्टान्नपूर्ण दो डिब्बे’, ‘एक कैमरा’, ‘विज्ञान-मन्त्रालय’ की वार्षिक रिपोर्टों की पुस्तकें, अण्टार्कटिक से सम्बन्धित पुस्तकें, परम्परागत-अपरम्परागत ऊर्जाविज्ञान की वार्षिक रिपोर्ट, पर्यावरण-मन्त्रालय की वार्षिक रिपोर्ट, ‘तकनीकी शब्दावली आयोग’ की ओर से प्रकाशित विज्ञान-विषयक विविध शब्दकोश तथा अन्य वैज्ञानिक पुस्तकें थीं। अमूल्य उपहार के रूप मे ‘श्रीमद्भगवद्गीता’, विशिष्ट दैनन्दिनी (डायरी) तथा विशिष्ट प्रकार की दस लेखनी के दो पैकेट थे। एक कर्मपुरुष-द्वारा दूजे कर्मपुरुष को दी गयी ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ उपहार सबसे बढ़कर रहा। घर पहुँचकर आशीर्वादस्वरूप उपर्युक्त (‘उपरोक्त’ अशुद्ध है।) उपहार देखकर आँखें छलछला आयी थीं। दूसरे दिन मै लौट आया था। मै तो मात्र ₹३५० मूल्यवाले बैग़ लेकर गया था और ‘सुदामा’ को ‘कृष्ण’ ने भौतिकता और आत्मिकता से भरपूर करके विदा किया था; उस अविस्मरणीय आत्मीयता के प्रति निशश्ब्द हूँ।
‘राष्ट्रपतिभवन’, नई दिल्ली से ‘अलोपीबाग़’, इलाहाबाद की राह तय करते हुए, प्रतीत हो रहा था, मानो हम दोनो संवाद करते हुए और एक-दूसरे की जीवनगठरी खोलते हुए, दूरी तय कर रहे हों और ‘राजधानी एक्सप्रेस’ मुदित मन से स्वच्छन्द फर्राटा भरती हुई, ‘पड़ाव-दर-पड़ाव’ को अर्थपूर्णता प्रदान करते हुए, गन्तव्य की ओर बढ़ती जा रही हो।
नीचे श्रद्धेय डॉ० कलाम जी ने मेरे विषय में एक ऐसी टिप्पणी की थी, जिसमे उनका सदाशयता, सौजन्य, सौमनस्य तथा सौहार्द एकसाथ प्रतिबिम्बित हो रहे थे।
(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २७ जुलाई, २०२३ ईसवी।)