गुजरे 70 सालों की आजादी में क्या कभी भी वास्तविक आजादी महसूस हुई ?

संकलित- 


क्या इन गुजरे 70 सालों की आजादी में कभी भी वास्तविक आजादी महसूस हुई है…… भाषाई आधार पर हम आज भी गुलाम ही हैं…. आज की आजादी गाँधी की नही…. हाँ नेहरू की जरूर है… आजादी का आंदोलन चरम पर था. महात्मा गांधी देश भर में घूम-घूम कर अंग्रेजों से मुक्ति की अलख जगा रहे थे. अंग्रेजों के अलावा वे ‘अंग्रेज़ी’ को हटाने का भी साथ-साथ ही आह्वान कर रहे थे. उन्होंने कुछ समय पूर्व ही हिन्दी के प्रचार के लिये अपने पुत्र देवदत्त गांधी  को तब के मद्रास प्रांत में भेजा था. ऐसे ही एक अभियान के दौरान ओडिशा की एक सभा में किसी ने गांधी से पूछा कि आप अंग्रेज़ी के विरुद्ध क्यूं हैं?

अंग्रेज़ी शिक्षा ने ही तो राजा राम मोहन राय, लोकमान्य तिलक और आपको पैदा किया है. महात्मा का उत्तर था  ‘मैं तो कुछ नहीं हूं;  पर लोकमान्य तिलक भी जो हैं, उससे कहीं अधिक बड़े हुए होते यदि उनको अंग्रेज़ी द्वारा शिक्षा का बोझ ढोना न पड़ा होता. गांधी ने आगे सवाल किया, श्री शंकराचार्य, गुरू नानक, गुरू गोविन्द सिंह और कबीरदास के मुकाबले राजा राम मोहन राय और लोकमान्य तिलक आखिर क्या हैं? आज तो सफर के और प्रचार के इतने साधन मौजूद हैं. उन लोगों के समय तो कुछ भी नहीं था, तो भी उन्होंने विचार की दुनिया में कितनी बड़ी क्रान्ति मचाई थी. यह हम लोगों का मोह है, जो अंग्रेज़ी शिक्षा को ही देशोन्नति का कारण बताते हैं.’’

ये उस समय की बात है जब आज़ादी मिलने में कुछ दशक शेष था. तब गांधी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि आज़ादी के सात दशक बाद भी कोई देश भक्त, हिन्दी की लड़ाई लड़ने के लिए उनके ही नेहरू के परिवार की तरफ ही कातर निगाहों से देखता रहेगा और तकरीबन रोज ही लांछित-अपमानित होकर उसे खदेड़ा भी जाता रहेगा. भारतीय प्रौद्यौगिकी संस्थान (आईआईटी) से स्नाताक श्याम रूद्र पाठक पिछले साढे चार महीने से हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं के सम्मान की मांग को लेकर सोनिया गांधी के आवास दस जनपथ पर धरनारत हैं. रोज ही उन्हें शाम को वहां से जबरन उठा कर निकट के पुलिस चौकी में बैठा दिया जाता है. सुबह उठ कर अपने मुट्ठी भर साथियों के साथ वे पुनः डट जाते हैं अपने अभियान पर. उनकी एकमात्र मांग यही है कि उच्चतम न्यायालय और उच्च अदालतों में हिन्दी समेत स्थानीय भारतीय भाषाओं में कामकाज की अनुमति मिले. फिलहाल संविधान का अनुच्छेद 348 इन अदालतों में अंग्रेज़ी के अलावा किसी अन्य भाषा में काम-काज की अनुमति नहीं देता है. इससे पहले भी पाठक आइआइटी में हिन्दी व्यवहार को लेकर कई सफल आंदोलन चला चुके हैं.
यह भारत जैसे रीढ़-विहीन, स्वाभिमान रहित देश में ही संभव है कि अपने ही देश में किसी को अपने राष्ट्र की भाषा के सम्मान हेतु इस तरह जूझना पड़े. शायद ही अन्य कोई देश ऐसा होगा जिसका स्वाभिमान इतना कुंद हो गया हो कि उसे न्याय भी साम्राज्यवादियों की भाषा में चाहिए. वर्तमान जनगणना के अनुसार केवल 3 प्रतिशत लोग अंग्रेज़ी बोलने वाले हैं. आखिर ऐसा कोई और कौन सा देश ऐसा होगा जिसे न्याय उस भाषा में मिलती है जिसे उसके 97 प्रतिशत नागरिक नहीं जानते हैं? देखा जाय तो शासकों की भाषा का महत्त्व बढ़ जाना कोई अनोखी बात नहीं है. फिरंगियों से पहले मुगलकाल के समय से एक कहावत चली आ रही है, ‘पढ़े फ़ारसी बेचे तेल, देखो भाई किस्मत का खेल.’ यानी तब के शासकों की भाषा ‘फारसी’ पढ़ कर उस भाषा का ज्ञाता होकर आप विशिष्ट कार्य ही करते, तेल नहीं बेचते. लेकिन मुग़ल गए और उनके साथ-साथ उनकी भाषा भी तेल लेने चले गयी. लेकिन अगर अंग्रेज़ी साथ ऐसा नहीं हो पाया तो इसका एकमात्र कारण यही नज़र आता है कि मुट्ठी भर अंग्रेज़ीदा काले फिरंगियों ने जिनके हाथ ही नए निजाम का बागडोर आया वे ऐसे लोग थे जो जिन्होंने अंग्रेज़ी के कारण समाज में प्राप्त अपने विशिष्ट हैसियत को छोड़ना नहीं चाहा. ये वो नेहरूवादी लोग थे जिनके लिए खुद का हित राष्ट्र हित से ऊपर था.

दुनिया भर के उदहारण हमारे सामने हैं जहां पहले गुलाम रहे देश भी आज़ाद होते ही सबसे पहले अपनी भाषा को ससम्मान जगह देकर ही आगे बढे. फ़्रांस जैसे देश जिनकी लिपि तक रोमन है, बावजूद वहां अंग्रेज़ी के प्रति हिकारत जैसी स्थिति है. ज़र्मनी, जापान, चीन ऐसे सभी देश इसके उदाहरण हैं जिन्होंने ना केवल राज-काज के लिए अपनी भाषा में व्यवहार करना शुरू किया बल्कि तकनीकी/वैज्ञानिक शब्दावली भी उनकी अपनी भाषा में है. इसके बावजूद वे देश नवाचार को प्रोत्साहन दे-दे कर नए-नए आविष्कार आदि कर हमसे मीलों आगे निकल गए. अगर संदर्भवश यहां हम केवल क़ानून की भाषा और उन्हीं शब्दाबली की बात करें तो आज संविधान का भी सुन्दर हिन्दी अनुवाद आपके सामने है. डी. डी. बसु या सुभाष कश्यप का ‘संविधान’ पढते हुए कभी किसी हिन्दी भाषी को ऐसा महसूस नहीं होता कि वे समझ नहीं पा रहे हों. अगर कुछ न्यायिक शब्द क्लिष्ट हैं भी तो व्यवहार में उसे लगातार लाया गया होता तो आजतक शायद सरल शब्द तलाश लिए गए होते. जैसे सम्प्रेषण और साहित्य की भाषा में भी प्रयोगों के दौर से गुजर आज हमारे पास सुन्दर हिन्दी या प्रांतीय भाषाएँ हैं वैसा ही न्यायिक शब्दाबली के साथ भी किया जा सकता था. लेकिन इच्छा शक्ति का अभाव, शोषण की मनोवृत्ति और सत्ता पाने की तीव्र ललक ने देश में यह स्थिति पैदा की है कि श्याम रूद्र जैसे किसी प्रतिभाशील अभियंता को, जो अन्यथा कई उत्पादक कार्यों में लग देश के विकास में अपना योगदान देते, आज सड़क पर मातृभाषाओं के सम्मान हेतु ही अपनी सारी उर्जा को खपाना पड़ रहा है.

विडंबना यह है कि यह उस भारत की बात है जहां सौभाग्य से गांधी, पटेल, सुभाष, राजेन्द्र प्रसाद जैसे नेता मिले. ऐसे जिन्होंने अलग-अलग भाषा-भाषी और अंग्रेज़ी के उद्भट विद्वान होने के बावजूद अंग्रेज़ी को उतना ही खतरनाक समझा जितना अंग्रेज़ को. ये वो लोग थे जिनके लिए आजादी का मतलब भाषा की गुलामी से भी मुक्ति था. हमें हरिवंश राय बच्चन जैसे विद्वान मिले जिन्हें लोग हिन्दी के कवि के रूप में ही जानते हैं, जिन्होंने राज-काज के लिए हमें हिन्दी शब्दावली उपलब्ध कराया, अपना जीवन राष्ट्रभाषा की सेवा में खपा दिया जबकि वे अंग्रेज़ी के दुनिया के मुट्ठी भर विद्वानों में से एक थे. लेकिन इतने के बावजूद, नेहरु प्रभृति कुछ पाश्चात्य विचारों में रचे-पेज नेताओं के कारण राष्ट्रभाषा को वो जगह नहीं मिल पाया जिसकी वो अधिकारिणी थी. गांधी तो शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को बनाने के इतने आग्रही थे कि वे पाठ्यक्रम निर्माण तक भी इंतज़ार नहीं करना चाहते थे. डा. राजेन्द्र प्रसाद अपनी आत्मकथा में लिखते हैं ‘‘मैं यह समझता हूं कि अंग्रेज़ी शिक्षा की नींव पड़ी थी अँगरेज़ हाकिमों की आवश्यकता की पूर्ति के कारण. वे कुछ ऐसे हिंदुस्तानियों को चाहते थे, जो रूप रेखा में तो हिन्दुस्तानी हों, पर विचार और मानसिक वृत्ति में अँगरेज़ ही हों.’’ अफ़सोस यही हैं कि आजतक भाषा के मामले में भी हम ऐसे ही अंग्रेज़ी मानसिकता वाले लोगों के ही गुलाम रह गए. अभी भी हमें चेतने की ज़रूरत है. निश्चय ही ऊपरी अदालतों में भारतीय भाषाओं का इस्तेमाल कर ही हम भाषा की इस गुलामी से मुक्त हो सकते हैं.