राजर्षि टण्डन जी स्वदेशी के रक्षक थे— डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

नगर की बौद्धिक, शैक्षिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक संस्था ‘सर्जनपीठ’ की ओर से कुशल वक्ता, सन्त राजनेता तथा विदेह-जैसे वीतरागी महामानव राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन की जन्मतिथि का आयोजन आज (१ अगस्त, २०१८ ईसवी) कीडगंज में किया गया था।
इस अवसर पर ‘राजर्षि टण्डन और उनका बहुआयामिक व्यक्तित्व’ विषयक बौद्धिक परिसंवाद की अध्यक्षता करते हुए भाषाविद् डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने कहा— राजर्षि टण्डन जी स्वदेशी के रक्षक थे। स्वदेशी के प्रचारक ने अपने शरीर को अंग्रेजी दवाओं से उसी प्रकार दूर रखा, जिस प्रकार से उन्होंने अँग्रेज़ी वस्त्रों से स्वयं को दूर कर भारत-भारती के प्रति अटूट आस्था रखी थी।

संयोजक साहित्यकार डॉ० प्रदीप कुमार चित्रांशी का कहना था— प्रेम और श्रद्धा के प्रतिमूर्ति के रूप में ‘भारतरत्न’ के सर्वोच्च अलंकरण से युक्त मनीषी, हिन्दी के महाप्राण ने जब अपना शरीर छोड़ा था तब प्रयागवासियों ने अपने को असहाय तो पाया ही, हिन्दी के प्रचार-प्रसार को भी धक्का लगा था।

डॉ० सरोज विश्वकर्मा का मत था— राजर्षि की पवित्र आत्मा हिन्दी के उन्नयन के लिए किसी रूप में अवतरित होकर भारतभूमि में आयेगी तब कहीं हिन्दी की समृद्धि होगी।

डॉ० दानबहादुर गुप्त का विचार था– टण्डन जी की यह बात कि किसानों की सहायता के लिए काँग्रेस को लड़ने के लिए तैयार होना पड़ेगा, अब प्रासंगिक जान पड़ती है।

डॉ० रचना निगम ने कहा— भूमि-व्यवस्था और समाज-विकास पर टण्डन जी के विचार क्रान्तिकारी थे। इस अवसर पर डॉ० मुरली यादव, सरिता सिनहा, अपूर्व आदिक ने विचार व्यक्त किये।