आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय की पाठशाला

—-व्याकरण से ‘आत्मा’ क्या है, समझें

सर्वप्रथम यह सुस्पष्ट कर दूँ, आत्मा का मूल शब्द 'आत्मन्' संस्कृत-भाषा का है, जो लिंग के विचार से संस्कृत-हिन्दी में पुंल्लिंग का शब्द है। इसी शब्द से पहले 'जीव', 'परम' तथा 'विश्व' शब्द का प्रयोग कर क्रमश: 'जीवात्मा', 'परमात्मा' तथा 'विश्वात्मा' शब्दों की रचना होती है, जिनका प्रयोग 'पुंल्लिंग' के रूप में किया जाता है। ऐसा इसलिए भी कि व्याकरण-नियमानुसार, 'कर्त्ता' के लिंग के अनुसार क्रिया में परिवर्तन होता है; अनेक कर्त्ताओं की स्थिति में अन्तिम कर्त्ता के लिंगानुसार क्रिया व्यवहृत होती है। 
 
सच यह है कि हिन्दी-शब्दकोशकारों ने समाज में अनुचित प्रचलन के साथ समझौता करते हुए, आत्मा को 'स्त्रीलिंग' स्वीकार कर लिया। समाज में अनुपयुक्त प्रचलन का एक उदाहरण समझें--  'लोग मृतक के आत्मा की शान्ति की कामना करते हैं', जबकि 'श्रीमद्भगवद्गीता' के द्वितीय अध्याय के तेईसवें-चौबीसवें श्लोकों में श्री कृष्ण आत्मा को पूर्णत: अबेध्य, अच्छेद्य, अदाह्य, अप्रभावित, अशोच्य, सर्वव्यापक तथा सनातन बताते हैं तब आत्मा की शान्ति की बात कैसी? 
 
लोग शुद्ध लिखते हैं-- पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ी जाती हैं; वहीं पर यह शुद्ध वाक्य लिखने का साहस नहीं कर पाते-- छात्र-छात्राएँ पढ़ती हैं; वे अशुद्ध लिखेंगे-- छात्र-छात्राएँ पढ़ते हैं। ऐसा इसलिए कि वे सामाजिक प्रचलन को ही शुद्ध मानते आ रहे हैं। यही बात 'आत्मा' लिंग-निर्णय को लेकर भी है, जबकि उक्त दोनों वाक्यों में एक ही नियम का प्रयोग होता है। हमारा समाज निर्द्वन्द्व रहकर आत्मा का प्रयोग 'पुंल्लिंग में करे-- मेरा आत्मा।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १४ जून, २०२२ ईसवी।)