बालकृष्ण भट्ट हिन्दी-साहित्य के प्रथम व्यावहारिक आलोचक थे— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ

पुण्यतिथि (२० जुलाई) के अवसर पर

स्वनामधन्य निबन्धकार और पत्रकार पं० बालकृष्ण भट्ट इलाहाबाद में जन्मे, पले, बढ़े तथा अन्तिम श्वास भी यहीं लिया। तब तक वे साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्रों में अपना महत् प्रभाव स्थापित कर चुके थे।

भाषाविज्ञानी और समीक्षक आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने पं० बालकृष्ण भट्ट के सारस्वत योगदान का स्मरण करते हुए बताया, “हम जब आलोचना की चर्चा करते हैं तब दो प्रकार की आलोचना दिखती है :– पहली, सैद्धान्तिक और दूसरी व्यावहारिक। भारतेन्दु हरिश्चन्द ने जब ‘नाटक’ नामक कृति का प्रणयन किया था तब उससे सैद्धान्तिक आलोचना का आरम्भ हुआ था और जब पं० बालकृष्ण भट्ट ने लाला श्रीनिवास के नाटक ‘संयोगिता स्वयंवर’ की समीक्षा अपनी पत्रिका ‘हिन्दी प्रदीप’ में ‘सच्ची समालोचना’ नाम से अपनी आलोचना प्रस्तुत की थी तब उसका प्रभाव इतना व्यापक था कि उसे ‘ हिन्दी-साहित्य की प्रथम व्यावहारिक आलोचना’ की संज्ञा देनी पड़ी थी।” आचार्य पं० पृथ्वीनाथ ने यह भी बताया, “भट्ट जी एक निर्भीक पत्रकार थे। ‘वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट’ के पारित होने पर जब भारतीय प्रेस की स्वाधीनता समाप्त कर दी गयी थी तब सर्वप्रथम पं० बालकृष्ण भट्ट ने ‘हिन्दी प्रदीप’ में ‘हम चुप न रहें’ शीर्षक से एक अग्रलेख प्रकाशित कर उस एक्ट का खुला विरोध किया था, परिणामस्वरूप लॉर्ड रिपन-द्वारा उस एक्ट को वापस लेना पड़ा। ऐसे तेजस्वी सारस्वत पुत्र को हम नमन करते हैं।”

पं० बालकृष्ण भट्ट के योगदान की चर्चा-शृंखला में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधानमन्त्री विभूति मिश्र ने बताया, ” भट्ट जी के निबन्धों में भाव, वर्णन, कथा तथा विचार लक्षित होते हैं; परन्तु उनका विचार-प्रधान निबन्ध सर्वाधिक महत्त्व के माने जाते हैं। वे ‘बुद्धि-प्रधान’ निबन्धलेखन में दक्ष थे। उनके निबन्धों में पाण्डित्य-प्रभाव को समझा जा सकता है। उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर मैं अपनी और सम्मेलन की ओर से श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।