● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
•••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
अब, जब उत्तरप्रदेश-सरकार को लगने लगा है कि जिन प्राथमिक शालाओँ मे विद्यार्थियोँ की संख्या ५० वा उससे कम है, उसे किसी समीप की पाठशाला मे विलय कर दिया जाये, जिससे उसकी हलकी हो रही जेब भारी बनी रहे; परन्तु उत्तरप्रदेश के मुख्यमन्त्री, शिक्षामन्त्रियोँ से लेकर सम्बन्धित अधिकारियोँ के पास इस विषय पर विचार करने के लिए अवकाश तक नहीँ रहा है कि प्राथमिक शाला मे विद्यार्थियोँ की घटती संख्या के लिए कौन-कौनसे कारक उत्तरदायी हैँ। यदि काम बिगड़ता है तो उसके पीछे दूरदृष्टि का अभाव रहता है। जिस सरकार के पास ‘हिन्दू-मुसल्मान’, ‘गाय-गोबर’, ‘मन्दिर-मस्जिद’-जैसे समाजविभाजक विषयोँ के अलावा कोई रचनात्मक विषय न रहे, उस राज्य का सर्वांगीण पतन सुनिश्चित है। राज्य-सरकार ने कभी सोचा– वह अपने राज्य की प्राथमिक शालाओँ को आदर्श पाठशाला बनाने के लिए क्या कर रही है? उसने अध्यापकोँ की नियुक्ति शिक्षण के लिए करायी है वा फिर नेताओँ की जनसभा मे बलात्पूर्ण वा प्रलोभन देकर एक भीड़ का अवांछित अंग बनाने के लिए? जब तक राज्य-सरकार की नीति और नीयत पारदर्शी नहीँ दिखेँगी, राज्य की प्राथमिक शालाओँ की शिक्षा-व्यवस्था चरमराती रहेगी, चाहेँ जो उपक्रम कर ले। जबसे आदित्यनाथ योगी मुख्यमन्त्री बनाये गये हैँ तबसे लेकर अबतक उन्होँने कितनी बार अपने राज्य की प्राथमिक शालाओँ की दुर्दशा पर अपने सम्बन्धित मन्त्रियोँ और उच्च अधिकारियोँ के साथ बैठक की है? यदि मुख्यमन्त्री शिक्षा के प्रति इतने सजग और चिन्तित रहते तो आज राज्य मे प्राथमिक शालाओँ की जो दुर्गति दिख रही है, नहीँ दिखती।
हमे नहीँ भूलना चाहिए कि जिस राज्य के नागरिक सुशिक्षित नहीँ होँगे, उसकी दुरवस्था (‘दुरावस्था’ अशुद्ध है।) विनिश्चित है। आज उत्तरप्रदेश-राज्य मे प्राथमिक शाला से लेकर विश्वविद्यालय-स्तर तक की शिक्षा-व्यवस्था किसी-न-किसी रूप मे रुग्ण बनी हुई है, जिसमे सुधार के लिए बृहद् स्तर पर एक अराजनीतिक और अनुभवसम्पन्न पारदर्शी ‘परीक्षण-समिति’ का गठन करना अपरिहार्य है। प्रत्येक प्रकार के शिक्षा-स्तर मे शोचनीय (‘सोचनीय’ अशुद्ध है।) स्थिति बनी हुई है; मगर ऐसा लगता है, मानो सरकार की इसके प्रति न तो कोई चिन्ता है और न ही चिन्तन। इसी का परिणाम और प्रभाव है, वर्तमान की विस्फोटक स्थिति।
राज्य-सरकार ने कभी विचार किया है– राज्य मे कई ऐसी प्राथमिक शालाएँ हैँ, जहाँ एक वा दो अध्यापक/अध्यापिका ही हैँ। इतना ही नहीँ, कई ऐसी प्राथमिक शालाएँ हैँ, जहाँ का प्रधानाध्यापक और सहायक अध्यापक अपनी जगह पर किराये पर अपात्र लोग को लगाकर अध्यापन का कार्य करा रहे हैँ और स्वयं राजनीति का झण्डा उठाये हुए ‘इस-उस’ नेता के पिछलग्गू बने हुए हैँ। इतना ही नहीँ, कथित प्रधानाध्यापक और सहायक अध्यापक यहाँ-वहाँ मुँह मारते हुए देखे जा रहे हैँ। यहाँ प्रहारक प्रश्न है :– उन्हेँ ऐसा कदाचार करने के लिए किससे बल मिल रहा है?
वर्तमान मे, उत्तरप्रदेश मे कुल प्राथमिक शालाओँ की संख्या १ लाख ११ हज़ार ६ सौ १४ है। अब यहाँ यह विचारणीय प्रश्न है :– इतनी बड़ी संख्या मे प्राथमिक शालाओँ के होने के बाद भी विद्यार्थियोँ की संख्या क्योँ घटती आ रही है? आदित्यनाथ तो एक ‘योगी’ कहलाते हैँ, क्या वे योगबल पर इसे देख नहीँ समझ सकते? सच तो यह है कि इसके लिए पूरी तरह से उत्तरप्रदेश-शासन उत्तरदायी है। अब प्रश्न है, ऐसा क्योँ? तो कभी-कभी प्रश्न का उत्तर प्रतिप्रश्न हो जाता है। जब उत्तरप्रदेश-शासन को यह ज्ञात है कि शासकीय प्राथमिक शालाओँ की परिधि मे किसी निजी प्राथमिक शाला को मान्यता न देने का प्रविधान (यहाँ ‘प्रावधान’ अशुद्ध है।) की व्यवस्था है, फिर विभागीय अधिकारी नियमो का उल्लंघन करते हुए, एक किलोमीटर की परिधि मे ही निजी शिक्षण-संस्थाओँ को मान्यता क्योँ दिये हुए हैँ? ऐसे मे, माता-पिता और अभिभावक अपने बच्चोँ की शिक्षा शासकीय प्राथमिक शालाओँ मे दिलायेँगे वा फिर निजी प्राथमिक शालाओँ मे? राज्य-सरकार के विभागीय अधिकारी ‘सुविधा-शुल्क’ लेकर अवैध तरीक़े से कुकुरमुत्तोँ की तरह से निजी प्राथमिक शालाओँ की खेती कराते आ रहे हैँ और शासकीय प्राथमिक शालाओँ की पूर्णत: उपेक्षा? ऐसे मे, राज्य-सरकार का धर्म है कि वह कठोर क़दम उठाते हुए, मान्यतारहित निजी शिक्षण-संस्थाओँ को बन्द कराये। उसके पश्चात् परिषदीय पाठशालाओँ के एक किलोमीटर की परिधि मे नियम-विरुद्ध दी गयी मान्यता को वापस ले। ऐसा करने से आज राज्य-सरकार को प्राथमिक शालाओँ मे निर्धारित संख्या से कम की संख्या मे दिख रहे बच्चोँ की आसानी से दाख़िला कराया जा सकता है। उत्तरप्रदेश मे जितने भी राज्य और केन्द्र-शासन के कर्मचारियोँ के बच्चे-बच्चियाँ हैँ, उन सबको शासकीय प्राथमिक शाला मे अध्ययन करने के लिए बाध्य किया जाये और वैसा न करने पर उनकी वेतन-वृद्धि और पदोन्नति रोक ली जाये। यदि इसप्रकार से कठोरतापूर्वक क़दम उठाये जायेँगे तो कहीँ स्थिति मे सुधार आ सकता है।
किसी राज्य के मुख्यमन्त्री का परम दायित्व होता है कि वह अपने राज्य के नागरिकोँ को हर तरह की सुख-सुविधा उपलब्ध कराने की दिशा मे प्रयत्नशील हो, जबकि जब भी चुनावी मौसम होता है, उत्तरप्रदेश के मुख्यमन्त्री ‘मीडिया’ के शब्दोँ मे ‘पोस्टर ब्वॉय’ बनकर चले जाते हैँ और मुँहफट-अन्दाज़ मे विपक्षियोँ को धमकी तक दे डालते हैँ। कभी ‘बुल्डोजर बाबा’ का रूप धारण कर लेते हैँ। यदि उसी समय मुख्यमन्त्री अपने राज्य के नागरिकोँ के कल्याण, विशेषत: शिक्षा के विकास के लिए कुछ कार्य कर गये रहते तो आज उत्तरप्रदेश देश का एक आदर्श राज्य कहलाता; परन्तु स्थिति बदतर हो चुकी है, जिसे सही राह पर लाने के लिए साधना की आवश्यकता है; आत्मबल और इच्छाशक्ति की भी।
आँकड़ोँ पर विश्वास किया जाये तो उत्तरप्रदेश मे ऐसी परिषदीय पाठशालाओँ की संख्या १ लाख ३२ हज़ार हैँ, जहाँ आठवीँ कक्षा तक की पढ़ाई करायी जाती है। राज्य-सरकार की योजना है कि जिन परिषदीय पाठशालाओँ मे विद्यार्थियोँ की संख्या ५० से कम है, उन्हेँ समीप की किसी अन्य परिषदीय पाठशाला मे विलय कर दिया जायेगा। इतना ही नहीँ, किसी पाठशाला के मार्ग मे नदी-नाला, उच्च मार्ग रेलमार्ग हैं तो उस स्कूल का भी विलय किया जायेगा।
यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि जिन परिषदीय पाठशालाओँ का दूसरी परिषदीय पाठशालाओँ मे विलय किया जायेगा तो जिनका विलय किया जायेगा, उन भवनो का क्या होगा? इसके उत्तर मे लखनऊ के बेसिक शिक्षा अधिकारी का कहना है कि उन भवनो मे आँगनवाड़ी, बालवाटिका, पुस्तकालय और खेलकूद की गतिविधियाँ संचालित की जायेँगी। अब प्रश्न है कि जिन शालाओँ का विलय किया जायेगा, उनके सहायक अध्यापक कहाँ जायेँगे? इस पर कोई कुछ कहने के लिए तैयार नहीँ है; परन्तु इन हथकण्डोँ पर रौशनी देने से यह जानकारी छनकर आने लगती है कि उन सहायक अध्यापकोँ को नयी भरती किये जानेवाले सहायक अध्यापकोँ की जगह पर रखा जायेगा। इसका मतलब है कि इधर कोई नयी नियुक्ति होने की सम्भावना दूर-दूर तक दिख नहीँ रही है। राज्य की राजधानी लखनऊ मे ही ४४५ प्राथमिक और उच्च प्राथमिक शालाएँ हैँ, जिन्हेँ विलय करने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी गयी है, वहीँ सुलतानपुर मे ऐसी शिक्षण-संस्थाओँ की संख्या ४४४ है। एक जानकारी यह भी प्राप्त हुई है कि उत्तरप्रदेश-राज्यसरकार प्रत्येक जिले मे एक ‘मुख्यमन्त्री मॉडल कम्पोजिट स्कूल’ (कक्षा १ से १२ तक) खोलने की तैयारी मे लगी है, जो स्मार्ट क्लास, सी० सी० टी० ह्वी०, पुस्तकालय, पेय जल, कम्प्यूटर-कक्ष, वाइ-फाइ, ओपेन जिम, प्रसाधनकक्ष, मिड-डे-मिल, पाकशाला, विज्ञान-प्रयोगशाला, कौशल-विकास-संसाधन, डाइनिंग हॉल आदिक सुविधाओँ से युक्त रहेगा। इन शिक्षण-संस्थाओँ मे १,५०० विद्यार्थियोँ को प्रवेश देने की तैयारी की जा रही है। इस पूरी योजना पर सरकार ३० करोड़ रुपये व्यय करेगी। यहाँ भी घूम-फिरकर वही प्रश्न हमारा पीछा करता दिख रहा है :– क्या उनमे बन्द किये जानेवाले प्राथमिक शालाओँ और उच्च परिषदीय शालाओँ के सहायक अध्यापक पढ़ायेँगे वा फिर नयी नियुक्तियाँ की जायेँगे?
हमे इस पक्ष पर भी गम्भीरतापूर्वक विचार करना होगा कि उत्तरप्रदेश मे इसी वर्ष ६५,००० शिक्षक-शिक्षिकाओँ की भरती प्रस्तावित थी। चूँकि अब परिषदीय पाठशालाओँ के विलय की गतिविधियाँ तीव्र हो चुकी हैँ अत: ये नियुक्तियाँ ठण्ढे बस्ते की और जाती दिखने लगी हैँ; क्योँकि जिन शिक्षण-संस्थाओँ मे रिक्त स्थान हैँ, उनमे विलय किये जानेवाली शिक्षण-संस्थाओँ की शिक्षक-शिक्षिकाओँ का समायोजन किया जायेगा। हम इसे कह सकते हैँ :– उत्तरप्रदेश-सरकार एक तीर से कई निशाने लगाने जा रही है। यह भी सच है कि विलय हो जाने से शिक्षक-शिक्षिकाओँ के पदोँ की नियुक्ति-संख्या हज़ारोँ की संख्या मे घटेगी, जिसके कारण भविष्य मे भरती की सम्भावना भी जाती रहेगी।
उत्तरप्रदेश-सरकार पहले भी विलय के कृत्य कर चुकी है, जिसका दुष्परिणाम सामने भी आ चुका है। वर्तमान मे आँकड़ोँ पर ग़ौर करेँ तो २८ हज़ार प्राथमिक शाला घट चुके हैँ। वर्ष २०१७-१८ मे बेसिक शिक्षा परिषद् की शिक्षण-संस्थाएँ थीँ, जिनमे से १ लाख ५८ हज़ार से अधिक प्राथमिक शाला थी। कम्पोजिट पाठशालाओँ के गठन के लिए न्यूनतम संख्यावाले लगभग २८ हज़ार शिक्षण-संस्थाओँ का समीप की शिक्षणशालाओँ मे विलय किया गया था, जिसके कारण २८ हज़ार प्रधानाध्यापक के पद घट गये। यहाँ प्रधानाध्यापकोँ के साथ एक विडम्बना यह भी है कि लगभग एक दशक से प्रधानाध्यापक के पद पर कोई पदोन्नति नहीँ हुई है। ७० से ७५ प्रतिशत शिक्षण-संस्थाओँ के प्रधानाध्यापक मात्र ‘कार्यवाहक प्रधानाध्यापक हैँ, जिनसे सारे काम वही कराये जाते हैँ, जो एक प्रधानाध्यापक करता है; परन्तु उन्हेँ कोई अतिरिक्त भत्ता नहीँ दिया जाता। दूसरी ओर, जिन परिषदीय पाठशालाओँ का विलय किया गया था, उनमे विद्यार्थी भी कम होते देखे गये। सरकार के इस विलयन-नीति का दुष्परिणाम निकट भविष्य मे दिखनेवाला है; क्योँकि सब जानते हैँ कि परिषदीय पाठशालाओँ मे अधिकतर वे ही बालक-बालिकाएँ पढ़ने के लिए जाती हैँ, जो अभावग्रस्त होती हैँ। ऐसे मे, घर से विद्यालय की दूरी होने पर सुरक्षा की दृष्टि से उनके माँ-बाप जोख़िम नहीँ उठायेँगे। वे विद्यार्थी पढ़ाई छोड़ देँगे वा फिर पास के किसी निजी पाठशाला मे नाम लिखवा लेँगे। सरकार भी ज़िम्मादारी से पल्ला झाड़ लेना चाहती है, इसीलिए वह एक तरह से निजी शिक्षण-संस्थाओँ को प्रोत्साह करती दिख रही है। सरकार की इसी नीति का दुष्प्रभाव रहा कि बेसिक शिक्षा परिषद की पाठशालाओँ मे वर्ष २०१७-१८ की अवधि मे १ करोड़ ३७ लाख विद्यार्थी थे; वर्ष २०२१-२२ मे विद्यार्थियोँ की संख्या बढ़कर १ करोड़ ९१ लाख तक पहुँच गयी थी, जिसका मुख्य कारण करोना-अवधि थी, जिसमे संक्रमणकाल के कारण लोग के पास निजी शिक्षण-संस्थाओँ मे जमा करने के लिए शुल्क नहीँ थे, जिसके कारण उन्होँने अपने बच्चोँ का दाख़िला परिषदीय प्राथमिक शालाओँ मे कराया था। विगत तीन वर्ष मे यह संख्या घटकर १ करोड़ ४९ लाख तक सरक आयी है।
उत्तरप्रदेश-सरकार को विलय करने से पूर्व यह भलीभाँति विचार करना होगा :– क्या विलय कर देने से संख्या बढ़ जायेगी? उसमे गुणात्मक वृद्धि होगी? जिन अभ्यर्थियोँ की ६५,००० भरती-प्रस्ताव के अन्तर्गत नियुक्ति होनी है, उनके भविष्य का क्या होगा?
सम्पर्क-सूत्र :–
prithwinathpandey@gmail.com
9919023870