कवि दिव्येन्दु दीपक ‘आधुनिक दिनकर’, रीवा (मध्यप्रदेश)-

करता रहा जो साधना सब त्याग परहित,
भूलकर संताप निज ले अधर स्मित,
धूप, पानी, शीत के जो शीश चढ़ता,
रह झोपड़ी में अन्य हित जो महल गढ़ता,
बाधक बने पथ में तो पर्वत तोड़ता जो,
बनाकर राह गांवों को शहर से जोड़ता जो,
सजग हो रात मालिक द्वार पर सबको जगाता,
पिलाकर रक्त अपना फैक्ट्रियों को भी चलाता,
किये उत्सव यहाँ हमने खुशी के बीज बोये,
चखे व्यंजन सभी ने किन्तु उसने प्लेट धोये,
हो के निःस्वार्थ नित, जन जन के सपनों को सजाता,
बनाकर ताज भी जो हाथ अपना ही गंवाता,
सौंप निज संतान कुदरत को धरा पर,
सिखाता बस यही रोना न बेटा दूर है घर,
दफन अरमान कर उर में सदा ही मौन रहता,
कुछ मान उसको भी मिले, ये कौन कहता,
तप त्याग निष्ठा सत्य जीवन की कहानी,
दमकती शौर्य से जिसके समूची राजधानी,
पर हो रहा जो अब मही पर वो नया है,
किये बिन पाप ही वह आज पापी हो गया है,
बरसते पीठ पर उसकी नियति के क्रूर कोड़े,
चुरा नजरें खड़ा है दूर मालिक मुँह सिकोड़े ,
समझ ना आ रहा कि क्या गलत औ क्या सही है,
बनायी स्वर्ग थी जो भूमि, उसकी अब नहीं है,
यह सोचकर की त्राण देगा घर पुराना,
हम हीन हैं, विकसित मगर सारा जमाना,
लिये भावुक हृदय कुंठा में निशदिन जल रहा है,
वह मौत के साये में पैदल चल रहा है,
शीश गठरी है, टंगे कंधों पे झोले,
फूटते असमय ही पैरों के फफोले,
बेहाल मां का कष्ट बालक बांटते हैं,
धधकती भूमि पर चलकर सफर कुछ काटते हैं,
बेमोल श्रम पेशा है जिसका खानदानी,
रहा वह खोज व्याकुल प्यास में इक बूँद पानी,
सत्य मानो विधि से उसकी ठन रही है,
सड़क के तीर ही संतान मांए जन रही है,
देख उसको कौंधती बिजली गगन से,
बुझाती प्यास खूं की रेल उस निर्दोष तन से,
जमा पूंजी जो लाती थी सदा मुस्कान लब पर,
पड़ी वह रोटिका भी रो रही मजदूर शव पर,
माँ भारती शोणित में सनती जा रही है,
शहर से गांव रक्तिम लीक बनती जा रही है,
पिसकर पड़ी इंसानियत अब फ़र्श पर है,
मचा यह शोर कि बस देश अपना अर्श पर है,
लाल गढ़ से गूंजती थी जो सदायें,
दलित कल्याण हित में की गई वो घोषणायें,
जान पड़ता है कि सारी दोगली थीं,
संवेदनायें सब तुम्हारी खोखली थीं,
आधार है वह देश का, आधेय हो तुम,
देश की गरिमा उसी से, हेय हो तुम,
जो लथपथ है पड़ा पथ पर भयंकर चोट खाकर,
तुम्हारी साख जगमग है उसी से वोट पाकर,
पा के अधिकार व्यापक मोद में तुम यूँ न फूलो,
दिया किसने तुम्हे यह सिंह आसन ये न भूलो,
मजदूर जिस दिन कर्म से मुख मोड़ लेगा,
उस रोज सच में मुल्क भी दम तोड़ देगा ।।