हमारे गांव का नाम ‘बरी’ पीढ़ियों से है लेकिन बूढ़े-बुजुर्ग बताते हैं कि पहले हमारे गांव का दक्षिणी और पश्चिमी भाग इस तरह बरा (जला) ऊसर जैसा नहीं हुआ करता था। शारदा नहर की शाखा आने के बाद धान और गेहूं की फसल तो अच्छी होने लगी। गांव का भूजल स्तर भी बढ़ गया लेकिन पेड़-पौधों के लिए यह नहर अभिशाप साबित हुई।
हमसे एक पीढ़ी पहले तक घर के बिल्कुल पास वाला जानवरों का चारागाह जो अब लगभग ऊसर में बदल चुका, यहां कभी बाग हुआ करती थी । विडंबना यह कि इसका नाम अभी भी ‘बाग’ लेकिन इसमें 2-3 बबूल के पेड़ को छोड़कर और अन्य कोई बड़ा वृक्ष नहीं है।
फलदार वृक्षों के मामले में तो हमारा गांव जब से मुझे याद है तभी से कंगाल रहा है। आम के गिने-चुने पेड़ थे। एक हमारा खुद का बड़ा वाला आम का पेड़, एक कृपाल दादा का चुचुनिहा, एक जोधे बाबा का पेड़ , 2-3 भारत बाबा के और एक देसी तथा एक मीठे, बड़े आम वाला जुगनू पा-सी का कलमी आम का नया पेड़।
इसी तरह जामुन के पेड़ भी गिने-चुने ही थे। एक राठौर फूफा का घर के बिल्कुल पास बगिया वाला जामुन का पेड़, तीन पेड़ मौसिया के घर के पिछवारे थे। हालांकि वह हमारे पापा के मौसिया थे, पर हम लोग भी उनको मौसिया ही कहते थे। मौसिया के जामुन वाले पेड़ तो सरकारी थे, कोई भी उन पर चढ़कर या नीचे से बिन के जामुन खा सकता था। राठौर फूफा वाली जामुन पर कुछ प्रतिबंध था। मौसिया और राठौर फूफा के पेड़ में गल्लेहवा (नीम के गल्ले/निम्बौरी जैसी छोटी और गोल) जामुन लगती थी ।
पूरे गांव की सबसे बढ़िया और स्वादिष्ट जामुन सरदार कमार के पेड़ में लगती थी। उसमें फरेंद (लंबी, बड़ी , खूब गूदेदार, शहद जैसी मीठी) जामुन लगती थी। फरेंद सबसे पहले पक जाती और खाने में तो बिल्कुल मिश्री जैसी थी ही।
गर्मी की छुट्टियों में हम बच्चों के गैंग का लक्ष्य सरदार कमार की जामुन के पेड़ से जामुन खाने का रहता था। पापा और घरवाले हमारे ऊपर निगरानी रखते कि भयंकर लू वाली दोपहरी में यह लोग कहीं बाहर न जाने पाए। लेकिन हम शैतान बच्चे पापा के खर्राटे भरते ही (पापा की सबसे अच्छी बात थी कि वह सोते ही खर्राटे लेने लगते थे) हम चार बच्चों का कुख्यात गैंग सरदार कमार के जामुन की तरफ भाग पड़ता।
गैंग के हर सदस्य का रोल पहले से ही तय था । एक सदस्य सरदार कमार के घर की तरफ का माहौल देखने के लिए जाता। एक सदस्य जामुन के पेड़ के नीचे खड़ा रहता और दो सबसे होशियार और तेज़ सदस्य पेड़ के ऊपर चढ़ जाते । दस मिनट से भी कम समय में हमें मिशन को अंजाम देना होता था।
हमारे दो-तीन अभियान सफल रहे तो हमारा हौंसला बढ़ गया था। एक बार सरदार कमार ने हमें भागते हुए देख लिया और बाबा से शिकायत कर दी कि तुम्हारे घर के बच्चे भरी दुपहरी में जामुन तोड़ने आते हैं । बाबा ने हमसे पूछा तो हम लोग साफ मुकर गए । लेकिन बाबा को हम लोगों की कई कारस्तानी पहले से पता थी। उन्होंने हमें समझाया कि जामुन के पेड़ की डाल बहुत नाजुक होती है। जरा सी असावधानी होने से गिरकर चोट लगने की बहुत अधिक संभावना है। फिर चेतावनी भी दी कि अगर पकड़े गए तो अंजाम बुरा होता। अब हमारे ऊपर और कड़ी निगरानी नजर रखी जाने लगी ।
एक सप्ताह तक हम घर से कहीं नहीं निकल पाए। लेकिन उस दिन शायद 29 या 30 जून थी और अगले सोमवार से विद्यालय खुलने वाले थे। हमें वापस लालगंज आना था। इसलिए हमसे न रहा गया और हमारा गैंग सबसे बचते- बचाते मिशन को अंजाम देने के लिए चल पड़ा। हमने पूरी होशियारी से कुछ जामुन तोड़े और कुछ जामुन तोड़कर सफलता पूर्वक अपने साथ घर ले लाए जिन्हें हमने घर के पीछे वाले बंगले । (फूस के छप्पर) में छुपा दिया ताकि अगले दिन उन्हें खाया जा सके।
लेकिन शायद उस दिन हम लोगों की किस्मत इतनी अच्छी नहीं थी। अम्मा ने घर में घुसते समय हम लोगों को पकड़ लिया और पूछा कि यह ‘चांडाल चौकड़ी’ कहां से आ रही है। हम लोग पूरी मासूमियत से बोल दिए कि पीछे वाले तालाब के पास छुपम-छुपाई खेल रहे थे।
अम्मा बोली जिस तरह तुम लोग पसीने -पसीने हो रहे हो , ऐसा नहीं लगता कि तुम लोग यहीं छाया में खेल रहे थे। जरूर तुम लोग इस भयंकर गर्मी वाली दुपहरी में सरदार कमार के पेड़ से जामुन तोड़ने गए होगे??
हम लोग हमेशा की तरह साफ मुकर गए। फिर पता नहीं क्या सोचकर अम्मा बोली-” ठीक है। सब लोग अपनी जीभ दिखाओ।”
और
उसके बाद हमारी जीभ और पीठ का रंग एक जैसा हो गया।
(आशा विनय सिंह बैस)
जामुन के लिए अम्मा से खूब मार खाने वाले