लिखित भावों की ‘पेटी’

— डॉ० अरुण कुमार पाण्डेय (वरिष्ठ सम्पादक)

घर बाहर खड़े होकर दरवाजा खुलवाने के लिए डोरवेल बजाने के बजाय फोनवेल बजाने वाले लोग हों या हर छोटी बड़ी घटना व ‘नवजात भाव’ को साथी/प्रेमी/प्रेमिका के मानस पर अविलम्ब थोपते लोग, संभव है इनमें से काफी लोगों ने चिट्ठियों की यातायात का वह दौर देखा हो! हो सकता है वे लोग उस युग की वंचना भोग रहे हों; लेकिन जिसने मनौती मानकर चिट्ठियां भेजी हैं और जवाबी चिट्ठी पाने की लालसा में परती में उगे कुश में गांठे लगाई हैं। वे जानते हैं कि पत्रों का संवाद कितना प्रभावी होता था। गाँव की तरफ़ डाकिया की साइकिल घूमते ही रोमांचक एहसास होता था। पोस्ट ऑफिस के सामने से गुजरते समय कभी ऐसा न हुआ, जब पोस्टमास्टर से पूछा न हो, ‘हमार कौनो चिट्ठी आय अहै का’! अपने हिस्से की अधिकतर चिट्ठियाँ डाकिया के भी हाथ न लगने दीं थी, सीधे पोस्ट ऑफिस से प्राप्त कीं।

अपने लिखित भावों को सौंपते-सौंपते पत्र-पेटी के प्रति श्रद्धा का भाव जग गया था। जैसे देवी-थान के प्रति होता है। वहां से गुजरते समय अनायास ही माथ नव जाता। लोग विभिन्न कामों से पोस्ट ऑफिस जाते थे। मैं एकबार एनडीए फॉर्म लेने के लिए लाइन में लगा था, उसके अलावा कभी ‘किसी-काम’ से नहीं गया। इसीलिए मेरे लिए पत्र-पेटी ज्यादा महत्त्वपूर्ण रही। थोक में खरीदे जाने वाले अंतर्देशीय पत्र जिस अनुपात में खत्म होते, रंग-विरंगे कागजों पर फूल बुट्टा की किनारियों के बीच लिखे गए भाव उसी अनुपात में संग्रहीत भी होते। यह अलग बात है कि किसी ने मुझे पत्र लिखते, पढ़ते या पत्र पेटी में डालते नहीं देखा होगा।

यह सब सिलसिला दिन दो दिन का नहीं था। दशक भर चला। फोन आने के बाद भी मैं चिट्ठियां लिखता रहा, क्योंकि सिर्फ वही सुलभ था। पत्र में अधिकतर वे ही बातें थी, जो सामने कहने की हिम्मत न हुई, यह कायरता नहीं थी, शायद लिहाज था। तमाम और कारकों के साथ ही यह मुझे सबसे सुरक्षित व व्यवस्थित तरीका लगता। इसीलिए पत्र-पेटी के साथ एक आंतरिक जुड़ाव व आकर्षण महसूस होता है।

कभी तो लगता है जैसे वह ‘सुगंधित काया’ ही ‘अहिल्या की तरह शापित’ होकर पत्र-पेटी बन गई हो और उद्धार के लिए ‘राम-वन-गमन’ की प्रतीक्षा कर रही हो। लेकिन ‘राम’ कभी ‘समाज का आवरण’ त्यागने की हिम्मत न जुटा सके। और वह पड़ी रह गई शापित। टंगी रह गई तार से। उसकी अपनी काया पर भी उसका अधिकार न रहा, जिसने चाहा पत्र डाले, और ताला खोलकर पोस्ट मास्टर ने निकाल लिए। कितना कठिन होता होगा यह सहना कि उसकी अपनी काया पर उसकी मर्जी नहीं!

मैं उस ‘शापित काया’ को जहां भी देखता हूँ श्रद्धानवत होता हूँ। कभी-कभी तो मन करता है उसे स्पर्श कर प्रणाम कर लूं, लेकिन वही….लिहाज!

शिवालिक में गोद में पसरे दुर्गम लेकिन रम्य स्थल पर घूमते ही अनायास ही वह ‘शापित काया’ फिर दिखी। मैंने अंदर झांककर देखा तो वह सभी जज्बात सजीव हो उठे। मैं बाहर फर्श पर बैठना चाहता था लेकिन पोस्ट मास्टर साब ने पहचान लिया, ‘वह जून स्टेट के पास वाली यूनिवर्सिटी में आप रहते हैं न! मैं भी पास में रहता हूँ, शाम को आपको टहलते देखा है, कुर्ते और चश्मे से पहचाना!’

उन्होंने बाहर लाकर एक कुर्सी रख दी। मैं उसी पर बैठ गया। यह पहली बार था जब किसी पोस्ट-ऑफिस में इतनी शांति से बैठा। चाय पी। युवा डाकिया आया तो उससे कहकर फ़ोटो भी खिंचवाई! उस शापित-काया, वह लिखित भाव की कस्टोडियन पत्र पेटी के साथ, शायद यह पहली फ़ोटो है। यह पड़ाव भी बदा था। पियानो की फंसी कीबोर्ड से निकलने वाली धुन की तरह यह पंक्तियां बार-बार कौंधती हैं…

…ले रहा है जन्म मुझमें यक्ष कोई
फिर तुम्हे संदेश भेजवाता हुआ!