● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

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वैसे तो भारत ने अन्तरिक्ष-विश्व मे जो छलाँग लगायी है, वह किसी से छिपा नहीं है। आज भारत का आइ० एस० आर० ओ० (भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान-संघटन), जो ‘इसरो’ के नाम से विश्व-विख्यात है और जहाँ से विश्व के कई प्रमुख देशों के अन्तरिक्षयान सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किये जा चुके हैं, अन्तरिक्षविज्ञान के क्षेत्र मे एक अप्रतिम उपलब्धि अर्जित कर, भारत की प्रतिष्ठा मे ‘चार चाँद’ लगा चुका है। वैसा गौरव अर्जित करने मे हमारे अन्तरिक्षविज्ञानियों को चार चरणों से गुज़रना पड़ा है।
लक्ष्य एक ही था, ‘चन्द्रयान’ को ‘चन्द्रमा के भूभाग’ पर उतारना, इसीलिए अन्तरिक्ष-अभियान का नामकरण ‘चन्द्रयान’ किया गया था। ‘चन्द्रयान प्रथम’ का प्रक्षेपण वर्ष २००८ मे किया गया था; परन्तु उसका अवतरण चन्द्रमा की धरती पर नहीं हो पाया था। हाँ, इतना अवश्य हुआ था कि उसने यह ज्ञात किया कि चन्द्रमा पर जल है, जिसको प्रमाणित करने के लिए यान मे लगे विशिष्ट कैमरों से चित्र खींचकर चित्र भी प्रेषित किये थे। हमारे विज्ञानियों को इससे भी संतुष्टि नहीं हुई थी; अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने कुछ सुधार के साथ वर्ष २०१९ मे ‘चन्द्रयान– द्वितीय’ का प्रक्षेपण किया था; परन्तु वह भी चन्द्रमा के तल पर नहीं पहुँच सका। अपनी चन्द्रयान-शृंखला की दो विफलता के बाद भी भारत के इसरो-विज्ञानी हार नहीं माने। उन्होंने विफलता के कारणो का विधिवत् अध्ययन करने के पश्चात् ‘चन्द्रयान– तृतीय’ का प्रक्षेपण आन्ध्रप्रदेश के श्रीहरिकोटा-प्रक्षेपण-केन्द्र से १४ जुलाई, २०२३ ई० को किया था, जो सफलतापूर्वक अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता रहा। भारत ने अपने चन्द्रयान का प्रक्षेपण ‘हेवी लांच ह्वेकिल एलह्वीएम३-एम–४’ से किया था। हमारे अन्तरिक्षविज्ञानियों और प्रौद्योगिकविदों ने प्रक्षेपण के बाद के ४१ वें दिन चन्द्रमा के दक्षिणध्रुव पर ‘चन्द्रयान– तृतीय’ को उतारने की योजना बनायी थी।
अकस्मात् जैसे ही सूचना मिली कि ‘चन्द्रयान– तृतीय’ चन्द्रमा के दक्षिणी भाग मे स्थित ‘ब्लैक होल’ मे घुस गया है, हमारे विज्ञानियों के हाथ-पाँव फूलने लगे थे। इसका एक मुख्य कारण था, अन्तरिक्षविज्ञान मे उन्नत देश रूस की ओर से चन्द्रमा की धरती पर पहुँचाने के उद्देश्य से २१ अगस्त, २०२३ ई० को भेजा गया ‘लूना– २५’ अभियान चन्द्रमा की सतह पर पहुँचने से पूर्व ही नष्ट (क्रैश) हो जाना। चन्द्रयान– तृतीय का कोई अहित न हो और वह निर्विघ्न अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर ले, इसकी कामना के लिए देशभर मे सभी समुदाय के लोग अपनी-अपनी पद्धति से पूजा-पाठ भी करते दिखे थे।
‘चन्द्रयान– तृतीय’ के ‘विक्रम लैण्डर’ के लिए भी आर-पार की स्थिति बन चुकी थी। २३ अगस्त को ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो देशवासियों की धड़कन थम गयी हो, फिर भी पलकें आशान्वित-निराशान्वित होकर ‘चन्द्रमा’ की ओर उठी हुई थीं; अकस्मात् २३ अगस्त, २०२३ ई० को यह सूचना बिजली की कड़क के साथ विश्वभर मे प्रसारित हो गयी :– भारत के ‘चन्द्रयान– तृतीय’ का लैण्डर ‘विक्रम’ २३ अगस्त को अपराह्ण ६ बजकर ४ मिनट २ सेकण्ड पर चन्द्रमा के दक्षिण-ध्रुव पर सफलतापूर्वक उतर आया है। यह सूचना सम्प्रेषित होते ही भारत ने अन्तरिक्षविज्ञान के इतिहास मे एक अभूतपूर्व स्वर्णिम अध्याय लिख दिया है :― भारत चन्द्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर अपना अन्तरिक्षयान बिना किसी कठिनाई के सफलतापूर्वक उतारनेवाला विश्व का प्रथम देश होने का गौरव अर्जित कर चुका है। हमे नही भूलना चाहिए कि चन्द्रमा के ध्रुवीय क्षेत्र अन्य क्षेत्रों से अत्यन्त भिन्न हैं। वहाँ कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ सूर्य के प्रकाश का अभाव रहता है; यहाँ तक कि वहाँ का तापमान –२०० डिग्री सेल्सियस से भी नीचे चला आता है।
जैसे ही ‘चन्द्रयान– तृतीय’ ने चन्द्रमा-तल का संस्पर्श किया वैसे ही उसके विक्रम लैण्डर ने विश्ववासियों को एक संदेश प्रेषित किया था :– मै अपने लक्ष्य को प्राप्त कर गया और भारत भी।
ज्ञातव्य है कि पृथ्वी के बाहर चन्द्रमा एकमात्र ऐसा पिण्ड है, जहाँ मनुष्य पहुँचा है। चन्द्रमा के अस्तित्व के कारण ही पृथ्वी का अस्तित्व है। अब तक लगभग १०० अन्तरिक्षयान चन्द्रमा पर भेजे जा चुके हैं। २४ मनुष्यों ने अब तक चन्द्रमा की यात्रा की है, जिनमे से १२ मनुष्यों ने चन्द्रमा पर चहलक़दमी भी की है। वहाँ से अब तक ३८२ किलोग्राम मिट्टी और पत्थर के टुकड़े प्रयोग करने के लिए पृथ्वी पर लाये जा चुके हैं। पृथ्वी से चन्द्रमा की कुल दूरी ३ लाख ८४ हज़ार किलोमीटर है, जहाँ १४ दिन अन्धेरा और १४ दिन उजाला रहता है। जब पृथ्वी पर रात्रि होती है तब तापमान –१०० डिग्री सेल्सियस से भी कम हो जाता है। ‘चन्द्रयान– तृतीय’ के लैण्डर और रोवर अपने सौर पैनल से १४ दिनो तक विद्युत-उत्पादन कर तो सकते हैं, जबकि रात्रि होते ही उसकी विद्युत-उत्पादन करने की प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाती है।
अपनी इसी सफलता के साथ भारत चन्द्रमा के किसी भी भाग मे अपने यान को सफलतापूर्वक उतारनेवाला ‘विश्व का चतुर्थ देश’ होने का श्रेय प्राप्त कर चुका है। स्मरणीय है कि इससे पूर्व क्रमश: संयुक्तराज्य अमेरिका, सोवियत संघ (अब रूसी परिसंघ) तथा चीन के अन्तरिक्षविज्ञानी ही ऐसी सफलता अर्जित कर चुके हैं।
हमे जानना होगा कि ‘चन्द्रयान– तृतीय’ के लैण्डर के चन्द्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने के लिए चार चरणो का सहारा लेना पड़ा था, तब लैण्डर से चन्द्रमा की दूरी ३० किलोमीटर की थी।
चार चरणों पर एक दृष्टि
१– रफ़ ब्रेकिंग चरण :– इस चरण के अन्तर्गत जब लैण्डर की दूरी चन्द्रमा से ३० किलोमीटर की थी तब लैण्डर की गति ६ हज़ार किलोमीटर प्रति घण्टे से कम की गयी थी, जिससे कि ‘चन्द्रयान– तृतीय’ को बिना किसी कठिनाई के उतारा जा सके।
२– एटिट्यूड होल्डिंग चरण :– लैण्डर को क्षैतिज स्थिति मे चन्द्रमा से ३० किलोमीटर की दूरी से ७.४३ किलोमीटर की दूरी तक लाया गया था, फिर उसे क्षैतिज स्थिति से थोड़ा लम्बवत् स्थिति मे पहुँचाया गया था।
३– फ़ाइन ब्रेकिंग चरण :– इस चरण के अन्तर्गत लैण्डर ने २.९ मिनट मे क्षैतिज अवस्था मे रहकर २८.५२ किलोमीटर की दूरी तय की थी, जिससे कि लैण्डर उतरनेवाले स्थान के ऊपर आ जाये। इसके लिए लैण्डर की चन्द्रमा से १ किलोमीटर की दूरी कम की गयी थी। हमे नहीं भूलना चाहिए कि ‘चन्द्रयान– द्वितीय’ ने उक्त दूसरे और तीसरे चरणो के मध्य ही अपना नियन्त्रण खो दिया था, जिससे कि वह नष्ट हो गया था।
४– टर्मिनल डिसेण्ट चरण :– इस चरण के अन्तर्गत लैण्डर की चन्द्रमा से दूरी ८०० मीटर की थी। उसे लम्बवत् स्थिति मे चन्द्रमा के धरातल पर सहजतापूर्वक उतारा गया था।
भारत ने अपनी इस अद्वितीय सफलता से शेष विश्व को यह बता और जता दिया है कि उसके पास लैण्डर को चन्द्रमा के धरातल पर बिना किसी कठिनाई के उतारने और 'रोवर' को वहाँ चलाने की सामर्थ्य है। 'चन्द्रयान– तृतीय' अभियान के उतरने का स्थान 'चन्द्रयान– द्वितीय'-जैसा ही था; अर्थात् चन्द्रमा के दक्षिणी ध्रुव के पास ७० डिग्री अक्षांश पर। हाँ, 'चन्द्रयान– तृतीय' के लिए उसका क्षेत्र-विस्तार किया गया था। जहाँ 'चन्द्रयान– दो' मे उतरने का स्थान (लैण्डिंग साइट) ५००×५०० मीटर था, वहीं 'चन्द्रयान– तृतीय' का स्थान ४ किलोमीटर×२.५ किलोमीटर निर्धारित किया गया था।
किसी भी लैण्डर की शक्ति उसका इंजन होता है और इंजन की संख्या इतनी अधिक भी न हो जाये कि वह अधिक मात्रा मे ईंधन साथ न ले जा सकने मे असमर्थ दिखे। इसी को ध्यान मे करते हुए, इस बार के लैण्डर मे चारों कोनो मे चार इंजन (थ्रस्टर) लगाये गये हैं, जबकि 'चन्द्रयान– द्वितीय' पाँच इंजनो से युक्त था; पाँचवाँ इंजन उसके मध्य मे लगाया गया था। 'चन्द्रयान– तीन' के दो इंजनो को क्रियाशील रखा गया था, जबकि दो को इसलिए निष्क्रिय कर दिया गया था कि आपात्काल मे वे सहायक सिद्ध हों। यही कारण था कि दो इंजनो ने ही अपने कार्य सफलतापूर्वक कर लिये थे।
अपनी इस गरिमामयी सफलता से उल्लसित भारतीय विज्ञानियों ने अब 'सूर्य' तक पहुँचने के लिए 'आदित्य एल–१' के प्रक्षेपण करने की तत्परता का जयघोष कर दिया है। इस प्रकार अन्तरिक्ष और आकाश के रहस्यों का उद्घाटन करने के लिए भारतीय अन्तरिक्षविज्ञानियों की महत्त्वाकांक्षा श्लाघनीय है।
इन दिनो विश्व के प्रमुख देश, विशेषत: संयुक्तराज्य अमेरिका, रूसी परिसंघ तथा चीन चन्द्रमा पर पहुँचने की होड़ मे क्यों शामिल हैं, इसे समझने की आवश्यकता है। इसके मुख्यत: चार कारण दिखते हैं :– (१) जल की सम्भावना (२) बहुमूल्य धातुओं की सम्भावना (३) भू-राजनैतिक कारण (४) प्रवास-आवास-निवास की सम्भावना। अब यह सम्भावना प्रबलतम हो चुकी है कि चन्द्रमा के दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्र मे जल की उपलब्धता है। चन्द्रमा के जल का खेती के लिए उपयोग किया जा सकता है। उस जल से एक नयी ज़िन्दगी मिल सकती है। जल को ऑक्सीजन और हाइड्रोजन मे तोड़ा जा सकता है, फिर हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के सहयोग से शक्तिशाली और शुद्ध यान-ईंधन का निर्माण किया जा सकता है। इसका उपयोग यह भी है कि 'मंगलग्रह' जानेवाले अन्तरिक्षयानो को चन्द्रमा के भूभाग पर उतारकर, उनमे ईंधन भरा जा सकता है। यह भी सम्भावना जतायी जा रही है कि चन्द्रमा के बीहड़ धरातल के भीतर तरह-तरह के मूल्यवान धातु हैं, जिनमे सोना, प्लेटिनम, टाइटेनियम प्रचुर मात्रा मे हो सकती हैं। वहाँ रेडियोधर्मिता-मुक्त हीलियम गैस होने की प्रबलतम सम्भावना प्रकट की जा रही है। विद्युतीय निर्माण की वस्तुओं मे सहायक कई प्रकार की धातुएँ भी हो सकती हैं। एक अन्य कारण यह भी है कि इस समय संयुक्तराज्य अमेरिका और चीन बहुत तेज़ी मे अन्तरिक्ष-प्रौद्योगिकी मे अपना लोहा मनवाना चाह रहे हैं; वहाँ वे अपना स्थायी अन्तरिक्ष-केन्द्र बनाकर अपना सिक्का जमाना चाहते हैं, जबकि दूसरी ओर, भारत और रूस भी उन्हीं के नक़्शे क़दम पर चल पड़े हैं; कोई किसी से कम नहीं दिखता; सभी चन्द्रमा पर मानव-बस्ती-निर्माण करने की दिशा मे प्रयत्नशील हैं।
आख़िरी कारण यह है कि ‘मंगलग्रह का कोई भी मार्ग ‘चन्द्रमा’ से होकर ही जाता है। धरती से कम दूरी पर होने के कारण चन्द्रमा-अभियान को आरम्भ करना और सम्पर्क बनाये रखना, अन्य ग्रहों की अपेक्षा सरल है। भविष्य मे चन्द्रमा का उपयोग एक केन्द्र के रूप मे भी किया जा सकता है, जिससे अन्तरिक्ष मे दूसरे ग्रहों की दूरी तय करना आसान हो जायेगा।
भारत आज अन्तरिक्षविज्ञान के क्षेत्र मे अत्यन्त उन्नत दिख रहा है और वर्तमान सफलता से उसके अन्तरिक्षविज्ञानियों और प्रौद्योगिकविदों का उत्साह और विश्वास चरम पर है। वे और अभूतपूर्व उपलब्धियों से देश का मस्तक उन्नत करते रहें, हम भारतवासियों की यही कामना है।
(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २५ अगस्त, २०२३ ईसवी।)