● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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मेरा आरम्भ से स्वभाव रहा है कि जिस क्षेत्र मे जाओ, वहाँ ऐसा कर्म करो कि तुम्हारी स्थापना करने के लिए वहाँ की परिस्थिति विवश और बाध्य हो जाये। दूसरे शब्दोँ मे― तुम उस क्षेत्र के लिए ‘अपरिहार्य’ हो जाओ, अन्यथा उस क्षेत्र मे जाकर किसी का ‘झुनझुना’ बजाने के लिए कदापि मत जाओ। मेरे भीतर महत्त्वाकांक्षा कूट-कूटकर भरी हुई है, साथ ही ललकार (चुनौती) के साथ कठोर अध्यवसाय करने के प्रति ललक और समर्पण भी है। हाँ, कभी स्वाभिमान और जीवनमूल्योँ के साथ समझौता नहीँ किया; भले ही कोई मूल्य चुकाना पड़े, जिसका भुगतान आज भी कर रहा हूँ, फिर भी सीना चौड़ा है।
मैने अपने सर्जनधर्म का प्रारम्भ ‘बालसाहित्यरचना’ से किया था। मैने बालसाहित्य के क्षेत्र मे प्रवेश करने के अनन्तर हर विषय पर रचा और लिखा भी। बच्चोँ के लिए समाचारपत्रोँ (‘नन्हे-मुन्नो का अख़बार’ और ‘बालमित्र’) का सम्पादन और प्रकाशन किया था। साहित्य की दोनो विधाओँ :– पद्य और गद्य के विषय क्रमश: कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, ज्ञान-विज्ञान, कोश, विश्वज्ञानकोश, व्याकरण, निबन्ध इत्यादिक पर इतना रचा और लिखा है कि आज मेरी शिशु से लेकर बाल-अवस्थावर्ग के पाठकोँ के लिए ही ६०० से अधिक पुस्तकेँ हैँ; मेरा अन्य लेखन तो अलग ही है।
हाँ शिशु और बाल के लिए सर्जनकर्म हस्तामलक नहीँ होता, प्रत्युत सर्वाधिक कठिन कर्म बालसाहित्यसर्जन (‘सृजन’ अशुद्ध है।) ही है। यह ऐसा इसलिए है कि बालमनोविज्ञान का स्थायित्व नहीँ होता। बच्चोँ की भावना का बोध वही कर सकने मे क्षम (‘सक्षम’ अशुद्ध है।) रहता है, जो बालप्रवृत्ति के साथ जुड़ सकने मे समर्थ दिखता है।
यहाँ मेरी कुछ पुस्तकोँ के आवरणपृष्ठ प्रस्तुत हैँ, जिनमे अभिनव विविधता है।