एक शब्दचित्र
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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आकाशगामी वायुयान से आकाश-दर्शन मन-प्राण (‘प्राणों’ अशुद्ध है।) को आह्लादित कर देता है; मेघ का रूप-परिवर्तन होते रहने से मन-मस्तिष्क मे एक अद्भुत विचार-शृंखला कौँधने लगती है; विचार-प्रक्रिया ‘शून्य से शिखर की ओर’ अग्रसर होने लगती है; एक विचार से दूसरे विचार का संघर्षण होने लगता है और उससे उत्पन्न द्युति (कान्ति, चमक) अभिनव सम्भावनाओँ के समीप ले आने (समीप के लिए ‘जाना’-‘जाने’ का प्रयोग अशुद्ध है।) लगती है, जिनमे ‘रचना का धरातल’ संलक्षित होने लगता है। ऐसा प्रतीत होने लगता है, मानो कविकुल गुरु, कवि-कलाधर, कवि-शिरोमणि, कवि-सम्राट् (‘सम्राट’ अशुद्ध है।) कालिदास-प्रणीत ‘मेघदूतम्’ का नायक, अलकापुरी से निष्कासित कामार्त/कामातुर यक्ष अपनी विरहाकुल प्रेयसी को मेघ के माध्यम से अपना प्रणय- संदेश सम्प्रेषित कर रहा हो।
विमान की प्रथम पंक्ति और गवाक्ष/वातायन/झरोखा/खिड़की के समीप आसनासीन होकर मेघ के साथ कल्पना-जगत् मे संवाद/कथोपकथन करने का सुख अनिर्वचनीय/अवर्णनीय/अकथनीय/वर्णनातीत/कथनातीत/वर्णन/कथन से परे रहा है।
आज भी जब ‘आकाशलोक’ का वह विमुग्धकारी दर्शन स्मृतिपटल/स्मृति-पटल पर छाने लगता है तब ‘मेघ’ का रूप-सौन्दर्य मन को बाँध लेता है। चित्रांकन करनेवाला मेरा उपकरण और हस्तद्वय स्वयं को धन्य मान रहे होँगे; मेघ-दल के प्रति अपनी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति भी कर रहे होँगे।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३ दिसम्बर, २०२४ ईसवी।)