अज्ञेय के निबन्ध ‘संवत्सर’ पर दो टूक टिप्पणी

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

नीचे अज्ञेय के निबन्ध ‘संवत्सर’ का एक अंश दिया गया है, जिसमे वे ‘अतिरिक्त’ बुद्धिवाद बघारते हुए दिखते हैं। अज्ञेय अपने शब्दजाल मे पाठकवर्ग को ऐसे फँसाते हैं कि वह बेचैन हो जाता है और उनके कुचक्र को नष्ट करने के लिए आतुर और आक्रोशित भी।

अज्ञेय के लगभग सभी वाक्य-विन्यास असंतुलित दिख रहे हैं और अशुद्ध भी। इस प्रकार का लेखन ‘क्षणजीवी’ बनकर रह जाता है।

अज्ञेय का प्रथम वाक्य ही अशुद्ध है, जिसमे वे लिखते हैं, “वह द्रष्टा देखता है कि…।” अब प्रश्न है, जब द्रष्टा का अर्थ ही देखनेवाला है; उसका काम ही देखना है तब “द्रष्टा देखता है” लिखने का औचित्य क्या है? यह तो वही बात हुई कि कोई ये कहे :– वह नाक आम सूँघती है। उसकी आँखें आँसू गिराती हैं। इतना ही नहीं, अज्ञेय फिर लिखते हैं, “स्थिर भी है और गतिमान भी है। शिव भी है और शक्ति भी, पुरुष भी है और प्रकृति भी, काल भी है और ऋत भी है और सत्य भी है।”

अज्ञेय का यह लेखन आपत्तिजनक है। उन्हें प्रयोग करते समय यह समझना चाहिए था कि एक ही वाक्य के अन्तर्गत लगातार ‘भी’ का प्रयोग लेखन-स्तर को हास्यास्पद बना देता है; शिथिल कर देता है। यदि कोई यह लिखे :– वह पागल भी है; वह सनकी भी है; वह लम्पट भी है। यहाँ लगातार ‘भी’ का प्रयोग वाक्य को संतुलनरहित बना देता है। यहाँ लिखा जाना चाहिए :– वह पागल, सनकी तथा लम्पट भी है। उन्होंने एक ही वाक्य मे ‘ऋत’ का प्रयोग किया है और ‘सत्य’ का भी, जबकि दोनो समानार्थी हैं। उनका यह प्रयोग उसी प्रकार का है जिस प्रकार से कोई कहे :– मै नर भी हूँ; पुरुष भी हूँ; मर्द भी हूँ। यदि अज्ञेय ने एक ही वाक्य मे ‘ऋत’ और ‘सत्य’ का प्रयोग किया है तो उन्हें दोनो मे भिन्नता को भी बताना चाहिए था; परन्तु यहाँ पर वे मौन दिखते हैं।
अज्ञेय का यह बुद्धि-वैभव नितान्त कृत्रिम बनकर रह जाता है। उनका यह गद्यांश पढ़कर बाणभट्ट की उबाऊ और नीरस गद्य-शैली का स्मरण हो आता है, जिसमे उनका एक-एक वाक्य बीस-पच्चीस पंक्तियों मे समाप्त होता दिखता है।

अज्ञेय के नाम पर ऐसी कृतियों को यदि पाठ्यक्रम मे निर्धारित किया जायेगा तो यह विद्यार्थियों और अध्यापकों के बुद्धि और बोध के साथ एक प्रकार का बलप्रयोग माना जायेगा।

इस अवतरण का अर्थ यदि किसी भी विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों से पूछा जाये तो कुछ ही होंगे, जो समझाते हुए बता सकेंगे। यदि विश्वास न हो तो यहाँ एक-से-बढ़कर-एक विद्वान् हैं; वे ही अर्थ बता दें।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ६ दिसम्बर, २०२२ ईसवी।)