आज भी कलंकित है, ‘उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान’, लखनऊ

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय


अपने अधिकारियों के भ्रष्ट आचरण के लिए प्रसिद्ध लखनऊ-स्थित ‘उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान’ का नाम और काम इतना कलंकित हो चुका है कि उसे ‘पाप-कर्म’ से प्रायश्चित्त सहजता के साथ नहीं मिलनेवाला है।
कई वर्षों से अपने ही नियमों के साथ बलात्कार और व्यभिचार करते हुए, वहाँ के अधिकारी पुस्तकों, पत्रिकाओं तथा व्यक्तियों को पुरस्कृत और सम्मानित करते आ रहे हैं। जिन्हें साहित्य की समझ तक नहीं, उनमें से अधिकतर लाखों रुपये की धनराशिवाले ‘साहित्यभूषण’ पुरस्कार झटक लेते हैं। विडम्बना ही तो है, जिनको ‘श, ष, स ब और व’ की वाचिक और लिखित परम्पराओं का संबोध नहीं; ‘देवनागरी लिपि’ और ‘हिन्दीभाषा’ को शुचितापूर्वक समृद्ध करने-कराने की सामर्थ्य नहीं, वे लोग लाखों रुपये की धनराशिवाले ‘हिन्दी गौरव सम्मान’ पर झपट्टा मार जाते हैं।

‘लोहिया’ के सिद्धान्त और जीवनमूल्यों पर पोंछा लगानेवालों को ‘लोहिया सम्मान’ थमा दिया जाता है।
तरह-तरह और किसिम-किसिम के/की कविताबाज़-कविताबाज़ियाँ और लिक्खाड़ कम, जुगतबाज़ अधिक बरसाती मेढक-मेढकियों की तरह से बिलों से निकल आयी हैं। इतना ही नहीं, देश के एक-से-बढ़कर-एक खेमेबाज़, क़लमबेचू साहित्यकार, कथाकार, विज्ञानलेखक, गिद्धदृष्टि रखनेवाले बुद्धिजीवी, ‘दक्ष-अराम’, ‘उपविश’ करनेवाले कुपात्र साहित्य की खेती करनेवाले उत्तरप्रदेश हिन्दी-संस्थान, लखनऊ के चक्कर लगा रहे हैं, जिससे वहाँ से कुछ टुकड़े मिल जाये।
यह साहित्य और लेखनकर्म को क्षरण की ओर ले जानेवाला पुरस्कारबाँटू संस्थान है।

कुछ वर्षों-पूर्व मैंने ‘उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान’, लखनऊ के अधिकारियों की बेईमान नज़रों को प्रमाणित करनेवाला मुक़द्दमा उच्च न्यायालय, इलाहाबाद में किया था, जो ‘उत्तरप्रदेश-शासन बनाम डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय’ था। उस मुक़द्दमे में उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमन्त्री मुलायम सिंह यादव, भाषा-संस्थान के अधिकारी, मुख्य सचिव, उत्तरप्रदेश-शासन, कवि नीरज, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान के तत्कालीन अध्यक्ष उदय प्रताप सिंह (यादव) और निदेशक तथाकथित आई०ए०एस० सुधाकर अदीब, संस्थान की पत्रिका ‘बालवाणी’ के सम्पादक अनिल मिश्र बुरी तरह से फँस चुके थे। उनके अतिरिक्त ‘विज्ञान परिषद्’, इलाहाबाद का सरगना डॉ० शिवगोपाल मिश्र और समूचा विज्ञान परिषद् फँसा था। डॉ० शिवगोपाल मिश्र संस्थान के घोषित पुरस्कार-नियमों के विपरीत ग़लत तरीक़े से विज्ञान परिषद्, इलाहाबाद के पदाधिकारियों को पुरस्कार दिलाने के लिए पूर्णत: दोषी थे। मेरे सुपरिचित, शिवकुटी, इलाहाबाद के एक वयोवृद्ध कवि-कथाकार का ‘ब्राह्मण (शुक्ल) के नाम पर कलंक अधिवक्ता पुत्र सुनवाई के दिन ग़ायब हो गया था। न्यायालय-परिसर से मैं लगातार फ़ोन करता रहा, परन्तु उस कर्त्तव्यविहीन वकील ने मेरा फ़ोन नहीं उठाया। हाँ, कुछ ही दिनों बाद ‘ऊपरवाले’ ने उसे उठा लिया था। यदि उस दिन वकील ने मेरे उक्त प्रकरण की पैरवी की होती तो उस ‘ऐतिहासिक निर्णय’ सुनाने के बाद उसे भी लोकप्रियता प्राप्त हुई रहती। उसने मुझसे जो धनराशि माँगी थी, मैंने दी थी। मुझे आज तक यह ज्ञात नहीं हो पाया है कि उस वकील ने वैसा घिनौना कृत्य क्यों किया था? मेरा पक्ष इतना मज़बूत था कि उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान की ईंट-से-ईंट बज सकती थी।
सैकड़ों पृष्ठों के विधिक दस्तावेज़ और वे सारे प्रमाण मेरे पास अब भी हैं। उपयुक्त समय आने पर उस प्रकरण को सामयिक और प्रासंगिक परिप्रेक्ष्य में पुन: नये सिरे से याचिका के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, इलाहाबाद; १८ जून, २०१८ ईसवी)