कोरोना कोई महामारी नहीं, इसे सुनियोजित तरीक़े से महामारी बनाया गया

सन्त समीर (प्राकृतिक चिकित्सापद्धति के जानकार एवं वरिष्ठ पत्रकार

आयुष मन्त्रालय और साथ में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ नेचुरोपैथी ने एक ऐसी हरकत की है, जिससे यह साबित हो गया है कि हमारे जैसे लोग डेढ़ साल से महामारी के इलाज के बारे में लगातार जो कहते आ रहे थे, वह पूरी तरह सच है। मैंने लगातार लिखा है कि यह साधारण बीमारी है, पर इलाज का ग़लत तरीक़ा अपना कर और भय का माहौल बनाकर इसे महामारी बना दिया गया। ऐसा लगता है कि आयुष मन्त्रालय डरपोक लोगों के ज़िम्मे है, अन्यथा वह यह काम हिम्मत से करता। उसकी परेशानी यह है कि वह जोश में एक बार क़दम आगे बढ़ाता है, पर फ़ार्मा माफ़िया जब उस पर भौंकना शुरू कर देता है तो डर के मारे अपने बिल में वापस लौट जाता है।

अगर आप यह सोच रहे हों कि आयुष मन्त्रालय या इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ नेचुरोपैथी ने कोई शोध वग़ैरह किया होगा, तो ऐसी बात नहीं है। असल में, इन दोनों ने इस बात को बस मान भर लिया कि बिना दवा इस तथाकथित महामारी को पूरी तरह से ठीक किया जा सकता है, चाहे रोगी में हल्के लक्षण हों या गम्भीर। यहाँ तक कि इलाज के इस तरीक़े में मास्क, हैण्ड सेनेटाइज़र, सोशल डिस्टेंसिङ्ग वग़ैरह की भी ज़रूरत नहीं है। दिलचस्प है कि इलाज के उस तरीक़े पर इन्होंने मुहर लगाई, जिसे पूरे देश का मीडिया और एलोपैथी को ही एकमात्र इलाज का तरीक़ा मानने वाले सारे लोग एक स्वर से ‘फेक’ बता रहे थे और लोगों को ऐसे इलाज के जाल में न फँसने के लिए सचेत कर रहे थे।

हुआ यह कि हम तमाम लोग आयुष मन्त्रालय को लगातार रिपोर्ट करने में लगे थे। डॉ. बिस्वरूप रॉय चौधरी ने काफ़ी सङ्गठित होकर काम किया। बीच-बीच में मेरी उनसे मेल-मुलाक़ात होती रही है। उनके साथ पाँच सौ से अधिक डॉक्टर और नेचुरोपैथ महामारी की शुरुआत से ही बिना दवा के सिर्फ़ खानपान से मरीज़ों का पूरी सफलता के साथ इलाज कर रहे थे। मैं चूँकि विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों में समन्वय का हामी हूँ तो मैंने प्राकृतिक चिकित्सा के साथ होम्योपैथी का और कभी-कभार आयुर्वेद का भी इस्तेमाल किया। मैंने अपने बूते क़रीब डेढ़ हज़ार मरीजों का इलाज किया, जो तीन-चार दिन से लेकर हफ़्ते या दस-बारह दिन में चङ्गे हो गए। जिन्होंने कोई एलोपैथी दवा नहीं खाई और पूरी तरह से मेरे तरीक़े पर रहे, उनमें से किसी को भी एक भी ‘पोस्ट कोविड सिम्टम’ नहीं आया। यह ज़रूर हुआ कि एलोपैथी से ठीक हुए कई ऐसे मरीज़ मेरे पास आए, जो ‘पोस्ट कोविड सिम्टम’ से काफ़ी परेशान थे और उन्हें मैंने होम्योपैथी देकर ठीक किया। डॉ. बिस्वरूप ने प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार एक डाइट प्लान बनाया है, जो अब डीआईपी डाइट नाम से मशहूर हो चुका है। कोरोना के लिए उन्होंने ‘नाइस (Network of Influenza Care Experts) प्रोटोकाल’ बनाया है, जिसमें फलों के ताज़ा रस का विशेष इस्तेमाल किया जाता है। आजकल देश की सब्ज़ी मण्डियों में कच्चे नारियल की आवक कई गुना जो बढ़ गई है, वह डॉ. बिस्वरूप के इसी नाइस प्रोटोकाल का नतीजा है।

ख़ैर, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ नेचुरोपैथी और आयुष मन्त्रालय के सञ्ज्ञान में ये सब बातें हम लोग लम्बे समय से ला रहे थे, तो उनके लोग महाराष्ट्र के अहमद नगर में बिस्वरूप जी के बनाए कोविड अस्पताल तक पहुँचे और इस आश्चर्यजनक सच्चाई से रूबरू हुए कि कैसे तमाम नाइस एक्सपर्ट बिना मास्क, बिना हैण्ड सेनेटाइज़र और बिना सोशल डिस्टेंसिङ्ग के सैकड़ों लोगों का मज़े में इलाज कर रहे हैं। सच्चाई सामने थी तो मन्त्रालय ने इस प्रोटोकाल को उपयोगी मानकर एक पत्र जारी कर दिया, लेकिन इसके बाद मामला उल्टा तब पड़ गया, जबकि डॉ. बिस्वरूप ने एक प्रेस सम्मेलन करके सार्वजनिक रूप से प्रचार कर दिया कि कैसे मन्त्रालय ने प्राकृतिक चिकित्सा को कोविड में कारगर माना है। मन्त्रालय को शायद अन्दाज़ा नहीं था कि फ़ार्मा माफ़िया उस पर बर्र की तरह टूट पड़ेगा। नतीजा हुआ कि मन्त्रालय ने एक छोटी-सी रिलीज़ जारी की कि हमने नाइस प्रोटोकाल को कोई अप्रूवल नहीं दिया है, बल्कि नाइस प्रोटोकाल पर हमारा निष्कर्ष सिर्फ़ ‘एकेडेमिक’ था।

इसे कहते हैं डरकर पूछ पीछे समेट लेना। मन्त्रालय से पूछना चाहिए कि ‘एकेडेमिक’ का जाल-बट्टा क्या है और नाइस टीम को दी गई आपकी चिट्ठी का क्या अर्थ निकाला जाए? बहरहाल, इससे यह साफ़ सङ्केत तो मिल ही रहा है कि यह महामारी नहीं है और इसे सुनियोजित तरीक़े से महामारी बनाया गया है। यक़ीनन इस पर क़ाबू पाना बहुत आसान था। इसी बीच एक और ख़बर आ गई है, जो जाने कैसे बीबीसी ने एक लेख की शक्ल में छाप दिया है। इस ख़बर के अनुसार दुनिया के वैज्ञानिकों ने स्पष्ट रूप से माना है कि वायरस की वजह से आई प्राकृतिक इम्युनिटी टीके से पैदा हुई इम्युनिटी की तुलना में हर हाल में बेहतर है। यह भी कि इफ़रात में टीकाकरण का कोई मतलब नहीं है। यह तब और भी बेकार है, जबकि जाने-अनजाने आप वायरस की चपेट में आकर इम्यून हो चुके हों। अलबत्ता, फ़ार्मा माफ़िया का एक ही उद्देश्य है कि किसी भी तरह एक-एक व्यक्ति की बाँह में टीका ठोंका ही जाना चाहिए, ताकि कारोबार फले-फूले; वैज्ञानिकों को जो कहना है कहते रहें, आख़िर जनता ने टीका लगवाने का मन बना लिया है, तो परेशानी क्या?

कई दिनों बाद जब मैं ऐसी पोस्ट लिख रहा हूँ तो मुझे पता है कि तीन सौ उन लोगों के फेसबुक खाते हमेशा के लिए बन्द कर दिए गए हैं, जो महामारी पर सवाल उठा रहे थे। मुझे भी कई मित्रों ने सचेत किया है, पर मैं मानकर चल रहा हूँ कि ऐसा कुछ होगा तो वह भी कुछ अच्छे के लिए ही होगा। रास्ते और खुलेंगे। टेलीग्राम चैनल शुरू होने को है, वेबसाइट पर काम चल रहा है, यूट्यूब का काम भी कुछ और तरीक़े से आगे बढ़ाने की तैयारी है। अगले महीने इलाहाबाद में हम क़रीब सौ समाजकर्मी इकट्ठे हो रहे हैं, समाज के लिए काम करने के कुछ और भी रास्ते तलाशे जाएँगे।

एक आख़िरी बात यह कि मोदी जी के प्रशंसक मेरे कई मित्रों को ऐसा लगता है कि जब मैं महामारी के ख़िलाफ़ लिख रहा हूँ तो एक तरह से जैसे मोदी जी के ख़िलाफ़ ही लिख रहा हूँ। ऐसे मित्रों से यही कहूँगा कि मोदी जी क्या, मैं तो अपने भी ख़िलाफ़ रहता हूँ। सच्चाई यह है कि मैं मोदी जी कई बातों की भरपूर तारीफ़ करता हूँ। कोविड के इलाज के तौर-तरीक़े पर सवाल उठाने का मतलब मोदी-विरोध क़तई नहीं है। इसके उलट, मैं तो उन साथियों का विरोध करता हूँ, जो कहते हैं कि किसानों या देश के कुछ और मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए मोदी जी कोरोना का खेल खेल रहे हैं। ऐसे मित्रों को ध्यान देना चाहिए कि कोरोना सिर्फ़ भारत का नहीं, पूरे विश्व का मामला है। वह परम मूर्ख होगा, जो सोचता होगा कि भारत के मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए मोदी जी अमेरिका, फ्रांस, इटली, इङ्ग्लैण्ड में कोरोना का जालबट्टा फैला सकते हैं? असल बात कुछ यों है कि विश्व स्वास्थ्य सङ्गठन नाम की आधी ‘फ्राड’ संस्था की अगुआई में फ़ार्मा माफ़िया ने दुनिया भर की सरकारों को मूर्ख बनाया है और सरकारें अपने देश की जनता को मूर्ख बना रही हैं। मोदी जी भी यही कर रहे हैं। तञ्जानिया जैसे जिन देशों ने मूर्ख बनने से इनकार कर दिया, उन देशों में महामारी की कोई समस्या नहीं है।