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धर्म क्या है ?

जीवन में पारस्परिक सहजीविता के आधार पर “न्यायपूर्वक” जीना ही धर्म है।

धर्म जीवन को कभी दो भागों में नहीं बाँटता था..राजनीति ने जीवन को दो भागों में बाँट दिया-एक शोषक और दूसरा शोषित ।

धर्म पूजा-पाठ की विषय वस्तु बनकर रह गया, जबकि जीवन जीने की कला को, जीवनव्यवस्था को धर्म कहते हैं ।
कुत्सित राजनीति ने धर्म को न्याय को नष्ट कर डाला ।
जीवन व्यवस्था से जब धर्म कटा तो जीवनव्यवस्था खाली हो गयी ।
राजनीतिज्ञों ने जीवनव्यवस्था के खालीपन को भर दिया ।
जीवनव्यवस्था के सभी खाली पदों पर राजनीति का कब्ज़ा हो गया ।
धर्म ने उस स्थान को छोड़ दिया ।
हम लोग ये सोंचने लगे की साधुता ही धर्म है । हम लोग ये सोंचने लगे की त्याग ही धर्म है ।
जब साधुता धर्म बन गयी, पूजा-पाठ धर्म बन गया ।
परमात्मा को पाने की कला के नाम से धर्म विख्यात हो गया, चारों तरफ साधू-महात्माओं का बोलबाला हो गया, संतों ने जीवन को माया बताया और उससे भागने की विधि को धर्म बताया ।
जीवन से कैसे भागें ? पदों को छोड़ दें ।
बड़ी ख़ुशी मनाई जाती है देश में, जब कोई प्रधानमंत्री की कुर्सी को लात मार देता है और उसकी बड़ी तारीफ़ होती है क्योंकि त्याग को धर्म कहा गया, राग को राजनीति कहा गया ।
तो जो कुरागी लोग थे, जो काम नहीं करना चाहते थे, वे सब राजनीति में उतर गए ।
उन्होंने कहा ये पद तो खाली है और इन पदों पर बहुत पैसा है, सारा सार्वजनिक धन, सारी सार्वजनिक संपदा कहाँ निहित है ।
कुत्सित राजनीति को खाली पदों का लाभ मिला ।
जब त्यागी महापुरुषों, महात्मागांधियों, अन्ना जैसों का जन्म हुवा ।
उन्होंने कहा- “हम प्रधानमंत्री बनकर क्या करेंगे ?”
तो उनके द्वारा खाली किये गए पदों पर कुछ लोग तो बैठेंगे ही ।
श्रेष्ठ लोग पद त्यागी बनने लगे, बुरे लोग पदरागी बनने लगे तो उसका परिणाम यह हुवा जो “आज” हम सब भुगत रहे हैं ।

“”एष धर्मः सनातनः””
धर्म सत् है, शाश्वत है, सनातन है।
धर्म न हिन्दू है, न मुस्लिम है, न सिख है, न ईसाई है ।
धर्म न जैन है, न बौद्ध है, न पारसी है, न बहाई है ।
धर्म किसी झुण्ड, गिरोह, दल, पार्टी, वर्ग, सम्प्रदाय आदि का नाम भी नहीं है ।

धर्म किसी प्रतीक की पूजापद्धति भी नहीं है ।
धर्म किसी उपदेशक का उपदेश, आदेशक का आदेश अथवा, किसी निर्देशक का निर्देश भी नहीं है ।
धर्म किसी मान्यता, प्रथा, परंपरा, रीति, रुढी के बन्धनों का आश्रित भी नहीं है ।

धर्म किसी आध्यात्मिक विधियों, तकनीकियों, उपायों का स्वरुप भी नहीं है ।
धर्म कोई आधिदैविक पूजापद्धति भी नहीं है ।
धर्म किसी व्यक्ति, जाति, वंश, कुल, गोत्र, क्षेत्र, मान्यता, प्रथा, परंपरा, ग्रन्थ, सन्त, देवता, सत्ता आदि पर आधारित भी नहीं है ।

सत्ज्ञान धर्म का मूल आधार है–वेदोsखिलो धर्ममूलम् ।
धर्म की धुरी है – सत्सिद्धान्त ।
धर्म का स्रोत है- अद्वैतदर्शन ।
धर्म कभी अज्ञानजनित अंधी मान्यताओं पर आश्रित नहीं हो सकता ।
सत्यात्मक ज्ञान-विज्ञान के अनुकूल आचार-व्यवहार ही धर्म है ।
अतः धर्म है – सदाचार और सद्व्यवहार ।

✍️?? राम गुप्ता, स्वतन्त्र पत्रकार, नोएडा