
★ आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
इन दिनो गोस्वामी तुलसीदास की यह अर्द्धाली/चौपाई विवाद के केन्द्र मे है। दीर्घकाल से इस विवादास्पद चौपाई के सन्दर्भ मे विद्वज्जन, आलोचक- उपदेशक-समीक्षकगण आदिक अपने-अपने बुद्धि-स्तर से अर्थ, अवधारणा, आशय इत्यादिक प्रस्तुत करते आ रहे हैं। उनमे से अधिकतर लोग उक्त पंक्ति के प्रणेता गोस्वामी तुलसीदास पर अन्यायी और निर्दय (‘निर्दयी’ शब्द अशुद्ध है।) होने का दोषारोपण भी करते आ रहे हैं, जबकि तथ्य और सत्य इससे परे है। किसी भी साहित्य की केवल दो विधाएँ होती हैं, जिन्हें क्रमश: ‘पद्य’ और ‘गद्य’ कहा जाता है। साहित्य-खण्ड की इन दोनो ही विधाओं मे सर्वाधिक क्लिष्ट ‘पद्य-विधा’ होती है। ऐसा इसलिए कि पद्य मे प्रणेता की परिकल्पना और संकल्पना की उड़ान होती है। इसके साथ ही काव्यांग :― रस, छन्द तथा अलंकार से रचना युक्त रहती है। इतना ही नहीं, उसमें शब्दशक्ति :― अभिधा, लक्षणा तथा व्यंजना निहित रहती है। ‘निहित रहती है’ का प्रयोग मैने इसलिए किया है कि जो काव्यकृति नैसर्गिक होती है; स्वत:-स्फूर्त होती है; बलप्रयोग से रहित रहती है; उसमे शब्दशक्ति छुपी रहती है तथा यथावसर प्रकट भी होती रहती है। हमारे काव्यजगत् मे काव्यशास्त्र के अनेक बहुश्रुत कृती (निष्णात, पारंगत) कृतिकार रहे हैं, जिन्होंने मात्र एक शब्द से अनेक अर्थों की व्युत्पत्ति की है और उनकी शास्त्रीय टीका भी।
इस सन्दर्भ मे कविराज भूषण की ये पंक्तियाँ समय-सत्य रही हैं :―
“ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहनवारी,
ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं।
कन्दमूल भोग करैं, कन्दमूल भोग करैं,
तीन बेर खातीं ते वै तीन बेर खाती हैं।
भूषन सिथिल अंग भूषन सिथिल अंग,
बिजन डुलातीं ते वै विजन डुलाती हैं।
भूषन भनत सिवराज बीर तेरे त्रास,
नगन जड़ातीं ते वै नगन जड़ाती हैं।”
ये पंक्तियाँ काव्यांग के विचार से ‘अभंग यमक अलंकार’ के उदाहरण हैं और इस रचना के अर्थ-आशय का तभी बोध होगा, जब हमारा पाठक शब्दसंज्ञान से समृद्ध हो। यहाँ ‘मन्दर’, ‘कन्दमूल’, ‘तीन बेर’, ‘भूषन’, ‘सिथिल अंग’ ‘बिजन’ तथा ‘नगन जड़ातीं’― इन शब्दों के एक ही पंक्ति मे दो बार प्रयोग हुए हैं। यहाँ कवि की परिकल्पना और काव्यशक्ति कितनी प्रखर है, इसे जब तक नहीं समझा जायेगा तब तक इस रचना की सार्थकता का बोध नहीं होगा। एक ही शब्द की पुनरावृत्ति विरोधाभासी है। इस दृष्टि से इसमे विरोधाभासी अलंकरण भी लक्षित होता है। पहले ‘मन्दर’ का अर्थ ‘अट्टालिकाएँ’ है और दूसरे ‘मन्दर’ का ‘गहन जंगल’ है। पहले ‘कन्दमूल’ का अर्थ ‘स्वादिष्ट पदार्थ से पकाया गया भोजन’ और दूसरे ‘कन्दमूल’ का अर्थ वनीय (जंगली) फल ‘कन्दमूल’ है। पहले ‘तीन बेर’ का अर्थ ‘तीन बार’ है और दूसरे तीन बेर का ‘तीन बेर नामक फल’ है। पहले ‘भूषन सिथिल अंग’ का अर्थ ‘आभूषण के भार से शरीर का शिथिल होना’ है और दूसरे ‘भूषन सिथिल अंग’ का ‘भूख के कारण शरीर का शिथिल होना’ है। पहले ‘नगन’ का अर्थ ‘रत्नजड़ित आभूषण धारण करना है और दूसरे ‘नगन’ का अर्थ नग्न शरीर रहने के कारण ठिठुरना’ है। यह सिद्धहस्त कवि की चामत्कारिकता तथा आलंकारिकता का परिणाम और प्रभाव है। यहाँ हमने जिस तरह से चिपके हुए अर्थों को प्याज के छिलके की तरह से अलग-अलग कर दिया है, उससे राजकवि भूषण जी की इन संश्लिष्ट पंक्तियों का कोई भी विवेकी मनुष्य अर्थ और आशय समझ सकता है।
एक शब्द ‘चन्दन’ है। इसका चरित्र और स्वभाव एक रहते हुए भी प्रयोग-स्तर पर विपरीतगामी हो जाता है। उदाहरण के लिए― एक नायिका विरहावस्था मे है; वह अपने नायक की बाट जोह रही है। ऐसी वियोगावस्था मे, चन्दन की शीतलता और सुगन्धि उसके लिए अन्तर्विरोधी प्रतीत होंगी।
हमारे गोस्वामी तुलसीदास जी के साथ भी कुछ ऐसा ही है। उनकी उक्त अर्द्धाली में ‘ढोल’, ‘गँवार’, ‘सूद्र’, ‘पसु’ तथा ‘नारी’ हैं और इन चारों के साथ एक ऐसा शब्द जुड़ गया है, जिस पर आज भी लोक की आपत्तिजनक दृष्टि स्थिर बनी हुई है। उस आपत्ति को समूल समाप्त करना, इस विश्लेषणात्मक आलेख का उद्देश्य है। अपनी उक्त अर्द्धाली मे गोस्वामी तुलसीदास ने अतीव सूक्ष्मतापूर्वक जनसामान्य को सचेष्ट किया है। हम यदि चारों के चरित्र और स्वभाव को समझ लेंगे तो इनके केन्द्र मे जो ‘ताड़न’ शब्द त्रिशंकु-सदृश आज भी लटका हुआ है, उसका उद्धार हो जाये और वह अपने शब्दों के साथ उनके सुसंगत अर्थ मे जुड़ जाये।
पहले हम ‘ढोल’ शब्द पर विचार करते हैं; परन्तु ‘ताड़ना’ को उससे जोड़ते हुए। संगीतशास्त्र मे दो तरह के ‘नाद’ (स्वर) माने गये हैं :― आहत और अनाहत। जिन वाद्ययन्त्रों को थाप देकर (चोट पहुँचाकर) बजाया जाता है, उन्हें ‘आहत नाद’ कहते हैं। जैसे― हम कहते हैं, बेचारे को इतनी खरी-खोटी सुनायी गयी कि वह आहत हो गया है। इसके अन्तर्गत ढोलक, तबला, मृदंग, नगाड़ा इत्यादिक आते हैं। ‘अनाहत नाद’ के अन्तर्गत वे वाद्ययन्त्र आते हैं, जिन्हें बिना चोट पहुँचाये, बिना थाप देकर बजाया जाये; जैसे― हारमोनियम, बाँसुरी, वीणा, वायलिन, गिटार इत्यादिक। इस तरह ढोल पर थाप लगाया जाता है तब वह बजता है। ढोल बजाते समय ध्वनि सुमधुर और संगीतशास्त्र-सम्मत हो, इसके प्रति वादक की दृष्टि जागरूक रहती है। हम यदि ढोल के सम्मुख करबद्ध अभ्यर्थना करें :― हे ढोल महाराज! अब आप बजना आरम्भ करें, तो क्या हमारी प्रार्थना स्वीकार होगी? उत्तर है, कदापि नहीं। इतना ही नहीं, ढोल से रागसम्मत ध्वनि निकले, इसके प्रति वादक की दृष्टि सजग रहती है; उसकी दृष्टि ताड़ती रहती है कि ठेका, थाप आदिक शुद्ध रूप में लगें। दूसरा शब्द ‘गँवार’ है। यहाँ गोस्वामी जी ने ‘गँवार’ का अर्थ ‘अविवेकी’ मनुष्य से लिया है। विवेकहीन मनुष्य को आप कोई भी काम दे दीजिए, वह उसे विधिवत् नहीं कर सकेगा; क्योंकि वह उसकी कार्यप्रणाली से अवगत नहीं रहता अथवा अवगत रहने बाद भी उसे सम्पन्न करने मे समर्थ नहीं रहता। इसके लिए उस पर सजग और सावधान दृष्टि स्थिर करने की आवश्यकता पड़ती है, अन्यथा वह बनता हुआ काम भी बिगाड़ देगा, इसलिए यहाँ गोस्वामी जी ने ‘ताड़ना’ (निगाहें बनाये रखना) का प्रयोग किया है। उदाहरण के लिए― उसे ताड़े रहना, कहीं भाग न जाये। गँवार के बाद ‘सूद्र’ (शुद्ध शब्द ‘शूद्र’ है।) की बारी आती है। सूद्र के साथ ‘ताड़ना’ शब्दप्रयोग को समझने से पूर्व ‘यजुर्वेद’ के बत्तीसवें अध्याय की बारहवीं ऋचा को समझना आवश्यक है, “ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृत:। उरु तदस्य यद्वैश्य: पदभ्यां शूद्रो अजायत।।”
अर्थात् भगवान् के श्रीमुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य तथा श्रीचरण से शूद्र की उत्पत्ति हुई थी। मनुष्य ईश्वर के जिन श्रीचरणों के समुख नतमस्तक हो जाता है, वही अंग कितना विशिष्ट बन जाता है। ऐसे में, यदि कोई यह समझता है कि ऐसी विशिष्ट जाति को कोई आहत कर सकता है तो उसके विवेक पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। शूद्र का अर्थ ‘सेवक’ है। वही गोस्वामी तुलसीदास सेवक की महत्ता उसी ‘श्री रामचरितमानस’ में लिखते हैं, जिसमें “ढोल गँवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।” का भी उल्लेख है।इस तरह से, “सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सम सरिस सुहाई।।” अर्थात् सीतानाथ श्री राम के ‘सेवक की सेवकाई’ सैकड़ों कामधेनु के समान सुहावना है। यहाँ ‘शूद्र’ (सेवक) के सेवाभाव में कोई अभाव न रह जाये, इसलिए उस पर दृष्टि स्थिर रहनी चाहिए, यही यहाँ ‘ताड़न’ का अर्थ है।
अब ‘ताड़न’ शब्दप्रयोग को ‘पशु’ के सन्दर्भ में समझते हैं। पशु अपने-आप नहीं चलता है। एड़ी से अथवा अरई से उसे धक्का देना पड़ता है, जिससे उसे चोट भी पहुँचती है। अड़ियल गाय, बैल, भैंस, घोड़ा, हाथी इत्यादिक पशुओं पर प्रहार किया जाता है, तब वह उठता है, फिर उठा ही रहता है। उस पर पुन: प्रहार किया जाता है अथवा खोदा जाता है तब वह चलने के लिए विचार करता है, फिर चल पड़ता है। आप किसी भी पशु को धकेलेंगे अथवा शरीर पर थाप देंगे तभी वह क्रियाशील होता है। इतना ही नहीं, जब पशु किसी भी मार्ग पर चल रहा होता है तब उसका स्वामी ताड़ता रहता है कि कहीं उसका पशु किसी को आहत तो नहीं कर रहा है; वह किसी का मार्ग-अवरोधक तो नहीं बन रहा है। यहाँ ‘ताड़न’ का यही अर्थ है।
अन्तिम शब्द ‘नारी’ है।
पुराणादिक मे उल्लेख है कि सृष्टि की उत्पत्ति के समय प्रथम मनुष्य के रूप में ‘शतरूपा’ और ‘मनु’ का जन्म हुआ था। ब्रह्मा के ‘वाम-अंग’ से शतरूपा और दक्षिण-अंग से मनु का जन्म हुआ था। शतरूपा विश्व की प्रथम नारी हैं और देवी-देव की माता भी। इसी शतरूपा के जन्म लेने से सम्पूर्ण नारि-जाति की उत्पत्ति हुई है। शतरूपा के बायें अंग से उत्पन्न होने के कारण ही आज भी पत्नी को शुभावसरों पर पति की बायीं ओर स्थान दिया जाता है। ऐसे में, जब नारी का इतना महनीय स्थान है तब उसे गोस्वामी जी मारने-पीटने का विषय कैसे बना सकते हैं, यह विचारणीय है। उनकी पत्नी ‘रत्नावली’ उनके लिए प्रेरणास्वरूपा थीं, जिन्होंने ‘रामबोला’ को लोककवि ‘तुलसीदास’ बना दिया है। यहाँ ध्यानपूर्वक ‘नारी’ के सन्दर्भ में ‘ताड़ना’ को समझने की आवश्यकता है। नारी का सर्वाधिक मूल्यवान् आभूषण लज्जा है और उसके लिए भाँति-भाँति की वर्जनाएँ भी हैं :― यहाँ मत जाओ; वहाँ मत जाओ; ऐसा करो; वैसा करो। इतना ही नहीं, पुरुष जब किसी नारी :― माँ, पत्नी, बेटी, बहन, बहू इत्यादिक के साथ कहीं चलता है तब वह आशंकाओं से भी ग्रस्त रहता है, इसलिए वह उन्हें आगे-आगे अथवा साथ-साथ चलने के लिए कहता है। इसके साथ ही वह उन पर सतर्कतापूर्ण दृष्टि भी स्थिर किये रहता है।
आज हम कुमार्ग पर जा रही और ले जायी जा रही नारीजाति की दशा और दिशा को देख ही रहे हैं। हमारी बहू-बेटियाँ कहाँ और किसके साथ जा रही हैं? कितने बजे घर से निकल रही हैं और कितने बजे लौट रही हैं, इन पर ‘दृष्टि’ बनाये रखना ही गोस्वामी जी के ‘ताड़ना-प्रयोग’ का निहितार्थ है, जो उनकी सम्यक्, सतर्क तथा समयसत्य दृष्टि का परिचायक है।
आगे ‘सकल ताड़ना’ का अर्थ और आशय है कि इस संसार में जो कुछ भी है :― स्थावर हो अथवा जंगम हो, सभी के प्रति जागरूक दृष्टि बनाये रखने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए― जब हम अपना वाहन कहीं खड़ा कर देते हैं तब हमारी दृष्टि उसके प्रति सुरक्षा की बनी रहती है।
किसी रचयिता की सृष्टि का सम्बोध करने से पूर्व काव्यांग का एक प्रमुख अंग ‘अलंकार’ को समझने की आवश्यकता है, विशेषत: ‘यमक’ और ‘श्लेष’ को; क्योंकि चन्दन जहाँ ‘शीतलता’ प्रदान करता है, वहीं वह विरहिणी के हृदय को ‘तप्त’ भी करता रहता है। व्यक्ति और वस्तु को किस माध्यम से अनुशासित किया जा सकता है, यहाँ उनका ‘ताड़ना’-प्रयोग से यही प्रयोजन है।
prithwinathpandey@gmail.com
सम्पर्क-सूत्र और सर्वाधिकार सुरक्षित―
आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
‘सारस्वत सदन’
२३५/११०/२, अलोपीबाग़, प्रयागराज― २११ ००६
(यायावरभाषक-संख्या― ८७८७००२७१२, ९९१९०२३८७०)
prithwinathpandey@gmail.com
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आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
‘सारस्वत सदन’
२३५/११०/२, अलोपीबाग़, प्रयागराज– २११ ००६
(यायावर भाषक-संख्या– ८७८७००२७१२, ९९१९०२३८७०)