
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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साँप!
तुम इतने भी असभ्य नहीँ,
जो गाँव से शहर आ जाते हो।
तुम गाँव-से-गाँव जाते हो
और वहाँ की संस्कृति
शहरोँ मे ले आते हो,
तभी प्रतिवर्ष–
नागपंचमी पर पूजे जाते हो।
तुम रोज़गार के एक साधन भी हो;
सँपेरा बीन बजाकर
महौल को, सुर मे पिरोते हुए,
मनहर बनाता है;
बदले मे अपने और परिवार के लिए
रोटी जुटाता है।
करतब दिखाता मदारी,
तुम्हारे भरोसे पर क़ायम रहता है।
तुम चाहकर भी उससे अलग नहीँ हो पाते;
क्योँकि वह भी,
तुम्हारी पेट की भाषा के साथ
समझौता नहीँ करता।
अपनी अदाकारी से तुम,
सबके हृदय मे रच-बस जाते हो।
तुम आज भी–
खेत-खलिहानो मे
सुरसुराते हो।
तुम्हारा-हमारा सम्बन्ध
शाश्वत बना रहे,
इसलिए
तुम हमारी देह मे
“डंके की चोट पर”
ज़ह्र बो जाते हो
और एहसास कराते हो–
वही मेरा अस्तित्व है
और अस्मिता भी;
मगर
विष मे ‘अमृत’ घोलते
उन अघोषित साँपोँ को क्या कहेँ,
जो घात लगाकर डँस जाया करते हैं?
हे साँप! इसीलिए कहता हूँ–
तुम उनसे अधिक सभ्य हो।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३ दिसम्बर, २०२४ ईसवी।)