‘धर्म’ और ‘मज़हब’ के नाम पर ‘देश’ को मत बाँटो!

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय-


‘धर्म’ और ‘मज़हब’ के नाम पर ठगी करनेवालो!
पहली बात, तुम लोग ‘धर्म’ और ‘मज़हब’ का अर्थ ही नहीं जानते; दूसरी बात, कथित धर्म को लेकर इस सीमा तक मत गिर जाओ कि तुम लोग को उठने का अवसर ही न मिले। यह मत भूलो, धर्म ‘अधर्म’ का पक्षधर किसी भी युग में नहीं रहा है। जिसे तुम लोग ‘धर्म’ और ‘मज़हब’ जानते-मानते हो, वह तुम लोग के मन का भ्रम है।
पहले ‘हिन्दू’ शब्द पर मेरी टिप्पणी है :—
किसी भी देवी-देव ने किसी भी मानक पौराणिक ग्रन्थ के माध्यम से किसी भी स्थल पर ‘हिन्दू’ शब्द का प्रयोग नहीं किया है।श्रीमद्भगवद्गीता’, ‘श्रीमद्भागवत् महापुराण’, ‘वेद-वेदान्त’ इत्यादिक ग्रन्थों में ‘हिन्दू’ शब्द का उल्लेख यत्र-तत्र-अन्यत्र कहीं नहीं मिलता क्योंकि वे ग्रन्थ किसी सम्प्रदाय, जाति, वर्ग, पन्थादिक से नितान्त परे हैं। उन ग्रन्थों ने तो सम्पूर्ण स्थावर-जंगम अर्थात् जड़-चेतन की प्रतिष्ठा की है। हमारा सनातन धर्म ‘पृथ्वी’ और ‘वनस्पतियों’ की शान्ति बनी रहे, इसके लिए उनकी आराधना करता है; वह समस्त प्राणिलोक की शान्ति के लिए अभ्यर्थना करता है।
श्रीकृष्ण अथवा राम अथवा दसों अवतारों में से कोई भी देव अथवा सत्-रज-तम वृत्ति-त्रय के अधिष्ठाता क्रमश: ब्रह्मा-विष्णु-महेश अथवा अन्य कोई भी देवी-देव ने अपने श्रीमुख से किसी प्रसंगवश कभी ‘हिन्दू’ शब्द का उच्चारण तक नहीं किया है; उच्चारण यदि किया गया है तो ‘आर्य-अनार्य’ शब्दों का। कृष्ण ‘यदुवंशी’ का तो राम ‘सूर्यवंशी’, ‘इक्ष्वाकु-कुल’, ‘रघुवंश’ का प्रयोग करते हैं परन्तु ‘हिन्दू’ का नहीं। देवी-देव ‘लोक’ का प्रयोग करते हैं; जैसे : मृत्युलोक। ऐसे में, इस ‘मृत्युलोक’ के अन्तर्गत समस्त जीव-अजीव का अस्तित्व बहुविध रेखांकित होता है। विष्णु ने देवर्षि नारद को ‘मृत्युलोक’ में भेजा था, न कि ‘हिन्दूलोक’ में।
ऐसे में, स्वभावत: यक्ष प्रश्न उठ खड़ा होता है : क्या सृष्टि की आदि में ‘हिन्दू’ शब्द का व्यवहार हो रहा था? ‘हिन्दू’ शब्द ने किस आधार पर ‘धर्म’ का रूप ले लिया है, जिसका आज राजनीतीकरण करते हुए, भारत राष्ट्र को दो भागों में देखने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है?
‘हिन्दू’ को ‘धर्म’ माननेवालो! उत्तर दो :——–
सृष्टि के आरम्भ में शिशु जब उत्पन्न हुआ था तब उसके मस्तक पर ‘हिन्दू’ शब्द अंकित था क्या? आज भी शिशु का जन्म होता है तब वह किसी भी सामाजिक और कथित धर्म-बन्धन से परे रहता है; जन्म के बाद उसके मन-मस्तिष्क को सम्बन्धित वातावरण का प्रभाव दिखाकर आक्रान्त कर दिया जाता है फलत: वह उसी परिवेश-परिप्रेक्ष्य में पलने और ढलने लगता है तथा तद्नुरूप उसके आचरण की सभ्यता विकसित होने लगती है।
अब विचार करते हैं, उन पर, जो अपने-आपको ‘मुसलमान’ कहते हैं। ऐसे लोग अपना धर्म ‘मुसलमान’ बताते हैं। वे लोग अपना एकमात्र ईश्वर और ग्रन्थ क्रमश: ‘अल्लाह’ और ‘क़ुरआन’ मानते हैं। ‘क़ुरआन’ का अनुशीलन करने पर कहीं पर भी हमें ‘मुसलमान’ शब्द का प्रयोग नहीं दिखता। ‘क़ुरआन’ में छोटी-बड़ी सूरतों की कुल संख्या ११४ हैं, जिनमें कुल ६,२३६ आयते हैं। ऐसी मान्यता है कि सातवीं शताब्दी की प्रथम चौथाई में पवित्र धर्मशास्त्र ‘क़ुरआन’ का अवतरण हुआ था। इस ग्रन्थ का मैंने आद्यन्त अध्ययन किया है परन्तु कहीं पर भी ‘मुसलमान’ शब्द का उल्लेख नहीं हुआ है।
‘सूरत तीन : सुर: (सुरा) आले इमरान’ के अट्ठाईसवें आयत’ में ‘ईमानवालों’ का प्रयोग हुआ है। उसके बाद भी कई स्थलों पर इसी शब्द का प्रयोग हुआ है।
यहाँ भी कोई शिशु जन्म लेता है तो अपने माथे पर ‘मुसलमान’ गोदवाकर नहीं आता है; वह तो अपनी पहचान तक नहीं जानता। जैसे-जैसे उसकी आँखें खुलने लगती हैं, वैसे-वैसे वह अपनी सहजता खोने लगता है क्योंकि मज़हब के नाम पर सारे कर्मकाण्ड के अन्त: और बाह्य वातावरण के बन्धन उसे कसने लगते हैं।
ऐसी ही स्थिति अन्य तथाकथित धर्मों की भी है।
हम जब धर्म-इतिहास पर दृष्टि- निक्षेपण करते हैं तब हमें विदित होता है कि समय-समय पर विकसित सामाजिक अवस्थाओं और युगीन उदात्त मूल्यों के सन्दर्भ में धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा की गयी है। धर्म के नाम पर गर्हित कृत्य करना तो अज्ञान का परिचायक है। विश्व के समस्त तत्त्वज्ञान और दर्शनज्ञान में से विशुद्ध धर्म-विज्ञान की विशद्-विस्तृत विवेचना ‘हिन्दू-मुसलमान’ शब्दों से रहित ‘वेदान्त’ में ही की गयी है। वस्तुत: वेदान्त आत्मपूर्णता के समग्र सिद्धान्तों का आधार और नीवँ है।
अस्तु, हमको अब विशुद्ध अनुसन्धान और विद्वत्ता की भावना में ही ‘धर्म’ अथवा ‘मज़हब’ को निकटता से ग्रहण करने का प्रयास करना चाहिए, ताकि हम ऊपरी अस्वाभाविक वृद्धि को तराश कर व्यवस्थित कर सकें और हम उस पवित्र धर्म का समादर करना सीखें, जो हमारे दैनिक जीवन में सुव्यवस्था और सौहार्द-सर्जन और विकास के लिए प्रयत्नशील है। इस विचार को हृदयंगम करके कर्मकाण्ड में वैशिष्ट्य अथवा वैयक्तिक विकास के सम्बन्ध में संघर्षण की अपेक्षा धर्म की प्रविधि और कार्यपद्धति का अध्ययन करते हुए, जब हम धर्म के मर्मप्रान्त में प्रवेश करते हैं तब हमें ज्ञात होता है कि विश्व के सभी धर्मों-द्वारा विहित समस्त प्रणालियाँ जिज्ञासुओं की मन-प्रज्ञा को व्यवस्थित करनेवाली कार्यपद्धतियों में से ‘इस’ अथवा ‘उस’ प्रविधि का द्योतन करती हैं। धर्म की प्रौद्योगिकी अथवा प्रविधि को एक शब्द में यदि कहना हो तो मैं उसे ‘ध्यान’ (मनन अथवा चिन्तन) कहूँगा, जिसके परिणाम और प्रभावस्वरूप ‘कर्त्तव्य’ की शाखाएँ उदित और विकसित होती हैं।
इस प्रसंग में मात्र इतना कहना है, धर्म ‘धारण’ किया जाता है, ‘प्रकट’ नहीं किया जाता और इसे गर्हित रूप देकर समाज में ‘कलह की आराधना’ नहीं की जानी चाहिए।

मो० : ९९१९०२३८७० (सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय; २४ अक्तूबर, २०१७ ई०)