मन की दोहरी प्रकृति

मन एक बेचैन बंदर की तरह है, जो लगातार एक विचार से दूसरे विचार के मध्य झूलता रहता है। मन ही हमारी भावनाओं, आकांक्षाओं, भय और आसक्तियों का जन्मस्थान है। यह हमे आनंद से भर सकता है या हमें निराशा की गहराइयों में खींच सकता है। मन की द्वैतता ही इसकी दुर्धर्ष क्षमता है। यह मुक्ति का स्रोत और बंधन का कारण दोनो हो सकता है। यह विरोधाभास मन के महत्त्व को उजागर करता है और यह भी बताता है कि इसकी अपार शक्ति पर नियंत्रण के अभाव मे उत्कर्ष सम्भव नहीं है।

जब मन को अनियंत्रित छोड़ दिया जाता है, तब यह इच्छाओं, भय और भ्रमो से प्रेरित होकर लक्ष्यहीन होकर भटकता रहता है। यह तुच्छ मामलों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है, जिससे अनावश्यक चिन्ताएँ और संघर्ष पनपते हैं। उदाहरण के लिए, विफलता का एक क्षणभंगुर विचार हमे दुर्बल बना सकता है और साथ ही हमे आवश्यक कार्य करने से रोकता है। दूसरी ओर, जब मन अनुशासित और केंद्रित होता है, तो मन हमें स्पष्टता, उद्देश्य और आंतरिक शांति की ओर ले जा सकता है। भगवद्गीता में सटीक रूप से कहा गया है: “जिसने मन पर विजय प्राप्त कर ली है, उसके लिए मन सबसे अच्छा मित्र है; लेकिन जो ऐसा करने में विफल रहा है, उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है।” शास्त्र मन को “नित्य वैरी” मानते हैं।