इसे कहते हैँ, सौ प्रतिशत का ‘वैचारिक’ दोगलापन!

हिन्दी-दिवस की पूर्व-संध्या मे (‘पूर्व-संध्या पर’ अशुद्ध है।) देश के एक अत्यन्त प्रतिष्ठित हिन्दी-समाचारपत्र-कार्यालय, प्रयागराज के सभाकक्ष मे ‘हिन्दी हैँ हम’ के अन्तर्गत प्रयागराज की संस्थाएँ, लेखकोँ, साहित्यकारोँ आदिक ने अपने-अपने स्तर से हिन्दी-उत्थान के लिए किस-किस प्रकार की योजनाएँ बनायी हैँ? वे हिन्दी-शुद्धता के कितने पक्षधर हैँ? वे परम्परा को लेकर चलना चाहते हैँ वा परम्परा को छोड़कर वा फिर परम्परा को साथ लेकर कुछ नया करना चाहते हैँ?– इन विषय-बिन्दुओँ पर एक प्रभावकारी बौद्धिक परिसंवाद का आयोजन किया गया था, जिसके केन्द्र मे भाषा-शुद्धता का प्रश्न अन्त तक बना रहा।

विषय-प्रवर्तन सम्बद्ध समाचारपत्र के सम्पादक ने किया और संचालन भी।

भाषा-शुद्धता के एकमात्र पक्षधर के रूप मे मै रहा तथा प्रथम और समापन वक्ता के रूप मे भी। मेरा मानना था, ”बोलचाल की भाषा मे भी शब्दशुद्धता होनी चाहिए, जिसमे सहजता और सरलता रहे; क्योँकि आप जो कहेँगे, वह दूर तक जायेगा, जिससे समूचा समाज प्रभावित होगा। आप जिस शब्द का प्रयोग घर मे करेँगे बच्ची और बच्चा वही ग्रहण करेँगे, इसीलिए प्रथम पाठशाला ‘परिवार’ कहलायेगा। जब भाषा मे शुद्धता की बात कही जाती है तब पढ़े-लिखे लोग भी समझते हैँ कि संस्कृतनिष्ठ कठिन शब्दप्रयोग ही शुद्धता है, जबकि ऐसा नहीँ है। शुद्धता वह है, जिसमे आप सहजतापूर्वक सरल शब्दोँ मे शुद्ध वर्तनी के साथ आत्माभिव्यक्ति कर सकेँ।”

संचालक ने विज्ञान परिषद्, प्रयागराज के प्रतिनिधि डॉ० आर० पी० मिश्र से विज्ञान के क्षेत्र मे उनकी गतिविधियोँ पर प्रश्न किया, ”आपके परिषद् ने इधर कौन-से काम किये हैँ?” तब उन्होँने शब्दकोश-लेखन की बात बतायी, जिसे संचालक ने यह कहकर चर्चा आगे बढ़ा दी कि यह काम तो बहुत पहले ही किया जा चुका था; अब यह बतायेँ कि आप विज्ञान-लेखन मे हिन्दी-शब्दप्रयोग की दुरूहता से कैसे निबटते हैँ तब डॉ० मिश्र ने बताया, ”विज्ञान-लेखन मे हिन्दी-शब्द के प्रयोग आड़े आ रहे हैँ, जिसके कारण उसकी सम्प्रेषणीयता बाधक बनती जा रही है। इसे दूर करने की दिशा मे हमारी परिषद् प्रयत्नशील है। जहाँ तक लेखन मे शुद्धता का प्रश्न है, उसके प्रति सजग रहना ही चाहिए।”

शिक्षक विवेक निराला ने आयोजन मे उपस्थित हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधानमन्त्री कुन्तक मिश्र को लक्ष्य करके कहा, ”हिन्दी साहित्य सम्मेलन तो वेण्टिलेटर पर है। आज हिन्दी साहित्य सम्मेलन को कोई नहीँ जानता।” जिसके जवाब मे कुन्तक मिश्र ने संकेत की भाषा मे आरोप को स्वीकार करते हुए कहा, ”हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने अब नये सिरे से भाषा-उत्थान के लिए काम करना आरम्भ कर दिया है, जिसमे परम्परागत साहित्य के साथ-साथ, हमने हिन्दीभाषा के प्रचार-प्रसार के लिए विज्ञान-प्रौद्योगिकी-क्षेत्र मे भी ‘एम० एन० एन० आई० टी०’ के साथ क़दम बढ़ाये हैँ।”

संचालक ने जब कवयित्री संध्या नवोदिता से प्रश्न किया, ”आप सारी भाषाओँ के साथ हिन्दी को लेकर बढ़ने की पक्षधर हैँ वा हिन्दी का बहुविध उत्थान करते हुए, उसे राष्ट्रभाषा बनाने का समर्थन करती हैँ तब नवोदिता ने बताया कि वे सभी भाषाओँ को लेकर चलना चाहती हैँ। नवोदिता ने प्रतिप्रश्न कर दिया, “हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आधार क्या है?” नवोदिता के विचार से यह साफ़ हो चुका था कि वे हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने की मुखर विरोधी हैँ और शुद्धता बरतने के प्रति भी; परन्तु आश्चर्य तब हुआ जब उन्होँने ‘हंस’ और ‘हँसना’ शब्दोँ के व्यवहार के प्रति शुद्धता बरतने का अपना तर्क प्रस्तुत कर दिया; यानी ”चित मेरी और पट भी मेरी”। उनकी ‘हाँ-मे-हाँ’ मिलाते हुए, सभी दिखे। नवोदिता सभी भाषाओँ को साथ लेकर चलने के पक्षधर थीँ और हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने का विरोध भी कर रही थीँ। उनका साथ श्लेष गौतम भी देते हुए दिखे। नवोदिता की प्रवृत्ति को देख-समझकर लगा कि वे ‘एकल वक्त्री’ के रूप मे हैँ। वे विषयान्तर हो चुकी थीँ और फिसलती जा रही थीँ; मसलन– फलाँ कि अमुक शानदार किताब है; शानदार पुरस्कार मिला है और जाने क्या-क्या।

आश्चर्य तब हुआ जब स्वयं को शिक्षक कहनेवाले प्रदीप सिंह ने दो टूक कह दिया– शुद्धता की आवश्यकता नहीँ है। उनका यह कथन बेहद आपत्तिजनक है और भर्त्सना करने-योग्य भी, “अभिभावक हिन्दी को दोयम दर्ज़े का मानता है। वह हिन्दी से घृणा करता है।” प्रदीप सिंह की प्रस्तुति से साफ़ हो चुका था कि वे भी हिन्दी से घृणा करते हैँ; परन्तु वे भूल गये-से लग रहे थे कि हिन्दी की कमाई से ही अपना और अपने परिवारवालोँ के पेट भी भरते आ रहे हैँ। ऐसे लोग हमारी हिन्दी-भाषा के उत्थान मे किस रूप मे घातक सिद्ध हो सकते हैँ, इसे सहजतापूर्वक समझा जा सकता है। उस अध्यापक से निर्ममतापूर्वक यह प्रश्न किया जा सकता है :– जब तुम्हेँ मालूम है, हिन्दी दोयम दर्ज़े की भाषा है तो अपने विद्यालय और घर मे हिन्दी के साथ मुँह क्योँ मार रहे हो?

अनुपम परिहार ने, जो स्वयं को उस पत्रिका ‘सरस्वती’ का सम्पादक बताते हैँ, जिसका कभी शुद्ध हिन्दी के घोर पक्षधर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्पादन किया करते थे, खुले शब्दोँ मे शुद्ध हिन्दी अपनाने के प्रति अपना विरोध जता दिया, जबकि वे एक अध्यापक भी रहे हैँ।

यश मालवीय एक कवि हैँ; उन्होँने भी शुद्ध हिन्दी को स्वीकार नहीँ किया, जबकि वे जो कुछ कह रहे थे, सब शुद्ध हिन्दी और शुद्ध उच्चारण के साथ; परन्तु उनके सिद्धान्त-व्यवहार मे सुस्पष्ट अन्तर दिखता रहा। यश ने दो टूक कह दिया, “हिन्दी की शुद्धता कहीँ की नहीँ छोड़ी है।” वहीँ वे शुद्धता की बात भी करने लगे और बघारने लगे कि अख़बारोँ मे कहाँ ‘सम्भावना’ और कहाँ ‘आशंका’ का प्रयोग करना चाहिए, इसके प्रति सतर्क रहना चाहिए। वही यश मालवीय ऊपर कह चुके हैँ, “हिन्दी की शुद्धता कहीँ की नहीँ छोड़ी है।”

उन्होँने अपना एक दोहा भी सुनाया, तब मैने पूछा, “आप शुद्ध उच्चारण कर रहे हैँ; शुद्ध शब्दोँ का व्यवहार कर रहे हैँ, फिर खुले मंच से शुद्ध शब्द-व्यवहार के प्रति आपत्ति क्योँ? आपने अपने दोहे मे १३-११ की मात्राएँ क्योँ रखीँ? इसपर उनका भरपूर साथ देते हुए, श्लेष गौतम बीच मे ही बोल पड़े, ”ऐसा नहीँ है, शब्दोँ की मात्राओँ को सही ढंग से गिराने के लिए हम मात्राओँ का भी उल्लंघन कर जाते हैँ, जोकि कोई अशुद्धि नहीँ है।” यश मालवीय ने यहाँ तक कह दिया, ”संस्कृत’ की जगह ‘सन्स्कृत’ कहा जाना चाहिए।” ऐसी मानसिकता को ही ‘पूर्वग्रह’ कहा गया है।

विवेक निराला, अजीत सिंह तथा अनुपम परिहार, श्लेष गौतम तथा संध्या नवोदिता ने आरम्भ मे ही शुद्ध हिन्दी-प्रयोग को एक सिरे से ख़ारिज़ कर दिया था; किसी ने संग्रहालय की वस्तु, किसी ने भाषा-विकास के लिए अवरोधक, किसी ने लोकभाषा के साथ अन्याय तो किसी ने ‘मुखसुख’ को व्याकरण का नियम ही बता दिया, जबकि उनमे से अधिकतर अध्यापक थे। उनमे ऐसे भी थे, जो शुद्ध शब्द-व्यवहार कर रहे थे; परन्तु शुद्धता के विरोध मे भी आवाज़ उठा रहे थे। इतना ही नहीँ, वे पुन: समवेत स्वर मे कहने लगे, ”हंस’ और ‘हँसना’ मे शुद्धता बरतनी चाहिए।” कुछ ने नुक़्ताप्रयोग करने का समर्थन भी कर दिया। कुलमिलाकर, शुद्धता अपनाने को लेकर हाँ-नहीँ, और ‘हाँ’ भी था। पेशे से वकील श्लेष गौतम ‘जिला’ और ‘ज़िला’ के प्रयोग मे भी शुद्धता की बात करने लगे।

‘राम की शक्तिपूजा’ के प्रणेता महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ के प्रपौत्र विवेक निराला ने जब शुद्ध हिन्दी-प्रयोग को अप्रासंगिक बताया तब आश्चर्य हुआ। वे एक अध्यापक भी हैँ। निराला जी को जब पाठ्यक्रम से हटा दिया गया था तब अशुद्ध भाषा-समर्थक विवेक निराला ने कहा था, “नयी पीढ़ी को उसकी सांस्कृतिक चेतना के बोध से वंचित किया जा रहा है।” यहाँ मुखर प्रश्न है, ”जब विवेक निराला को शुद्ध हिन्दी से परहेज है तब क्या ज़रूरत थी– ‘सांस्कृतिक चेतनाबोध’, ‘वंचित’ आदिक विशुद्ध शब्दप्रयोग करने की? इसे कहते हैँ, “हाथी के दाँत खाने के और-दिखाने के और।”

सच तो यह है कि हिन्दी दोयम दर्ज़े की नहीँ है; दोयम दर्ज़े के ऐसे ही लोग हैँ, जिनकी ‘दोगली मानसिकता’ के कारण आज हमारी हिन्दी संकट मे है। खायेँगे हिन्दी की और गायेँगे अँगरेज़ी की।

अधिकतर वक्ता, विशेष रूप से वक्त्री अप्रासंगिक बातेँ सुना-सुना वातावरण बोझिल बना रही थीँ। उनसे ‘आँख’ के विषय मे जानकारी माँगी जा रही थी, तब वे सर्वांग का वर्णन कर, अन्य वक्ताओँ का समय खाती हुई दिखीँ। अन्य वक्ता के बीच मे उछलकर अपना अधैर्य प्रकट करती भी दिखीँ। यही स्थिति कुछ अन्य वक्ताओँ की भी रही, जबकि संचालक ने सबको भरपूर समय दिया था। इतना ही नहीँ, अधिकतर सहभागी ‘हिंग्लिश’ प्रयोग के समर्थक दिख रहे थे।

परिसंवाद का समापन करते हुए, जब मैने बताया, “जब भी शुद्धता की बात की जाती है तब लोग यही समझ लेते हैँ कि शुद्धता का मतलब संस्कृतनिष्ठ क्लिष्ट शब्दोँ का प्रयोग करना, जबकि ऐसा नहीँ है। शुद्धता का अर्थ यह है कि उच्चारण और लेखन-स्तर पर आप जिस शब्द वा वाक्य का व्यवहार कर रहे होते हैँ, उसमे वर्तनी की अशुद्धि नहीँ रहनी चाहिए। इसके लिए मैने दवाइयाँ-दवाईयां, वीणा-वीड़ा, लीजिए-लिजिए, भाइयोँ-भाईयोँ, ऋतु-रितु, विसर्जन-विसृजन, लिए-लिये, विद्वज्जन-विद्वत्जनों इत्यादिक कई उदाहरण प्रस्तुत किये, जिसे सबने स्वीकार किया; परन्तु उन सबने कितना हृदयंगम किया था, समय बतायेगा। मैने यह भी सुस्पष्ट कर दिया था,”मै भाषा-शुद्धता के साथ किसी क़ीमत पर समझौता नहीँ करूँगा।”

इसप्रकार तनाव-खिँचाव के साथ सब अपने-अपने निर्धारित रास्ते नापने लगे।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १५ सितम्बर, २०२४ ईसवी।)