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‘स्व’ और ‘पर’ के बीच के द्वैतबोध को हटाओ

प्रेम तो किसी से कोई आशा नहीं करता, प्रेम किसी को पीड़ा नहीं देता, फिर क्यो प्रेम को लोग स्वीकार नहीं कर पाते, जबकि प्रेम सबको स्वीकार करता है..?

उत्तर- प्रेम जब किसी से कोई आशा नहीं करता तो उसे लोगों से स्वीकारने की आशा भी नहीं करनी चाहिए।

प्रेम वास्तव में हृदय के विकास का मामला है।
जिसका हृदय विकसित हो जाता है वह सबके प्रति प्रेमपूर्ण ही हो जाता है चाहे उसके प्रेम को कोई स्वीकार करे या न करे।

हृदय में संवेदनशील भावनाओं का जागरण ही प्रेम है।
संवेदनशीलता बड़ी ही अद्भुत चीज है इसे केवल वही समझ सकता है जो खुद संवेदनशील हो गया हो।

जिसका हृदय प्रेमपूर्ण संवेदनशील हो जाता है वह किसी का शत्रु नहीं रह जाता।

बल्कि सबके प्रति वह सहिष्णु हो जाता है। कमज़ोरों को संरक्षण देने, और समान से मित्रता निभाने और वरिष्ठों को आदर देने में वह समर्थ हो जाता है।

पराई आत्मा ही परमात्मा है।
‘स्व’ जीव है।
‘पर’ ब्रह्म है।
‘स्व’ का ‘पर’ से संयोग ही ‘प्रेम’ है।
जब तक ‘स्व’ किसी भी ‘पर’ से भिन्न है तब तक ही दम्भ है, द्वंद्व है, संघर्ष है।

‘स्वयं’ को ‘परम’ से जोड़ते ही सब द्वंद्व मिट जाता है सब संघर्ष समाप्त हो जाता है।

‘स्व’ और ‘पर’ के बीच जो द्वैतबोध है वही सब प्रकार के संघर्ष उत्पन्न करता है।

‘स्वात्मा’ को ‘परमात्मा’ से जोड़ दो तो दूसरों के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है, द्वेष मिट जाता है।

स्वयं को जो दूसरों से भिन्न जानता और मानता और जीता है वह द्वेष से भर जाता है।
द्वेष ही मनुष्य के हृदय में प्रेम को जन्म नहीं लेने देता।
प्रेम ही सुख है आनन्द है मस्ती है महिमा है।
प्रेम के बिना मनुष्य के दु:खों का कोई अंत नहीं।
प्रेम ही सुख और शांति का द्वार खोलता है।

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-(राम गुप्ता – स्वतन्त्र पत्रकार – नोएडा)