● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
श्रमिक-वर्ग की बेकारी उतना चिन्त्य नहीं है जितना कि शिक्षित-वर्ग की। श्रमिक-वर्ग कहीं-न-कहीं सामयिक काम पाकर अपना जीवन-यापन कर लेता है; परन्तु विद्यार्थी-वर्ग जीविका के अभाव मे आधि-व्याधि का शिकार बनता रहता है। वह व्यावहारिकता से शून्य पुस्तकीय शिक्षा के उपार्जन मे अपने स्वास्थ्य को तो गवाँ देता ही है, शारीरिक श्रम से भी विमुख हो, अकर्मण्य बन जाता है।
सैद्धान्तिक पक्षानुसार, शिक्षा के तीन अंग माने गये हैं :– शिक्षक, शिक्षार्थी तथा पाठ्यक्रम। आज ये तीनो ही घटक अपनी दुरवस्था (‘दुरावस्था’ अशुद्ध है।) को जी रहे हैं। इसे हम ‘अमृत काल’ मे लागू की गयी ‘नयी शिक्षापद्धति’ के अन्तर्गत सुस्पष्ट देख रहे हैं। नयी शिक्षापद्धति मे किसी स्वस्थ दृष्टिकोण का प्रभाव दिख रहा है और जिन शिक्षाशास्त्रियों की देख-रेख मे इस पद्धति को तैयार कराया गया है, उनका अनुभवहीन स्तर वा कहें उनकी सरकारपरस्ती साफ़ झलक रही है। अपना बीज लगाओ; फ़स्ल उगाओ; पैदावार बढ़ाओ; फ़स्ल को काटो, बेचो, कमाओ तथा सरकार को चढ़ावा चढ़ाते रहो; शेष से सरकार को कोई लेना-देना नहीं। इसके बाद भी पाठ्यक्रम को अपने अनुसार घटाना-बढ़ाना-हटाना– इन्हें सरकार अपना मौलिक अधिकार मानती आ रही है। एक तरह से देश की शिक्षा का राजनीतीकरण किया जा रहा है। ये सारी स्थितियाँ आनेवाले समय मे विद्यार्थियों के भविष्य के लिए पूर्णत: घातक सिद्ध होनेवाली हैं।
शिक्षित-वर्ग की बेकारी की स्थिति यह है कि प्रत्येक वर्ष लाखों पढ़े-लिखे युवा नौकरी के लिए तैयार हो जाते हैं, जबकि राज्य और केन्द्र की सरकारों के पास उन सबको खपाने के लिए कहीं-कोई कोई ठोस व्यवस्था तक नहीं है। यहाँ ‘खपाने’ का प्रयोग इसलिए किया गया है कि वर्तमान सरकारें प्रतिभावान् विद्यार्थियों के साथ न्याय नहीं कर पा रही हैं। देश के अधिकतर कार्यालयों मे रिक्तियाँ हैं; परन्तु राज्य और केन्द्र की सरकारों की मंशा साफ़ नहीं है।
एक फिसड्डी विद्यार्थी ९४ प्रतिशत अंक प्राप्त कर रहा है और मेधावी भी। ऐसे मे, मेधा का स्तर पतनोन्मुख हो चुका है। स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय प्रतिवर्ष बुद्धिजीवी और कुर्सियों से जूझनेवाले बाबुओं को पैदा करते आ रहे हैं। काग़ज़ पर तो नौकरशाही भारत से जा चुकी है; परन्तु वास्तविकता मे नौकरशाह ही देश को चला रहे हैं; नेता-मन्त्री आदिक तो केवल ‘घुड़कीबाज़’ की भूमिका मे रहते हैं। यही कारण है कि नौकरशाही की बू भारतीयों के मन-मस्तिष्क से निकल नहीं पा रही है। लॉर्ड मैकाले के स्वप्न की नीवँ भारतवासियों के मन-मस्तिष्क को जकड़े हुए है, जो गहराई तक पैठी हुई है।
‘उत्तरप्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद्’ और ‘सी० बी० एस० ई०’ विगत कुछ वर्षों से जिस तरह से परीक्षा-परिणामो को तैयार कराते समय अपने अति उदारवादी चरित्र का परिचय देती आ रही हैं, उन पर अब शासन-स्तर पर सत्यनिष्ठा के साथ संज्ञान करने (‘लेने’ का शब्द-प्रयोग अशुद्ध है।) की आवश्यकता आ पड़ी है। ये दोनों ही परिषद् एक-दूसरे के साथ प्रतिद्वन्द्विता के स्तर पर प्रतिवर्ष काहिलों-जाहिलों-बेरोज़गारों-अपराधियों की एक दुर्दमनीय फ़ौज तैयार करने मे योग दे रही हैं। यही कारण है कि समुचित मार्गदर्शन के अभाव मे प्रतिभाएँ अपने ध्येयपूर्ण पथ से च्युत होती जा रही हैं।
कथित दोनो ही शैक्षिक परिषद् कुछ दशक से जिस तरह के परीक्षा-परिणाम प्रसारित करते आ रहे हैं, उनसे ख़ुद-ब-ख़ुद अँगुलियाँ दाँतों-तले आ जा रही हैं! अब आप ज़रा ग़ौर कीजिए :– विज्ञान मे १००, अर्थशास्त्र मे १०० हिन्दी मे १००, इतिहास, भूगोल, अँगरेज़ी, वाणिज्य, राजनीतिशास्त्र, मनोविज्ञान आदिक विषयों मे भी १०० प्रतिशत अंक दिये जा रहे हैं! अब प्रश्न उठता है– इतने अधिक अंक विद्यार्थियों को किस वैधानिक और औचित्यपूर्ण नियमो के अन्तर्गत प्राप्त कराये जा रहे हैं, फिर दूषित और भविष्यघाती मूल्यांकन-पद्धति के प्रभावी होने से वे आई० ए० एस०, इंजीनियर, डॉक्टर आदिक बनाने का ख़्वाब भी देखने लगते हैं; परन्तु कितनो के ख़्वाब पूरे हो पाते हैं, इसे हम कई दशक से देखते आ रहे हैं। गणित-विषय मे ‘स्टेप मार्किंग’ के नाम पर जो कुव्यवस्था दिख रही है, वह किसी से छिपी नहीं है। कथित मेधावी टॉपर ‘नम्बर-लुटाऊ’ पद्धति से अंक प्राप्त कर जब ‘नीट’ और ‘जे० ई०’ प्रवेश-परीक्षाओं की परीक्षा देने जाते हैं और परीक्षाफल को देखते हैं तब लगता है कि उक्त परिषदों की परीक्षा-पद्धति कितनी दूषित और भविष्यघातिनी है। यही कारण है कि विद्यार्थी आत्ममुग्धता के पाश मे इस तरह से आबद्ध हो जाते हैं कि सफलता से बहुत दूर रह जाते हैं, जबकि जो विद्यार्थी ८० से ८५ प्रतिशत अंक पाये रहते हैं, वे अपने अध्यवसाय के बल पर आगे बढ़ जाते हैं। आख़िर इस स्तर पर इतनी अधिक विसंगति क्यों?
ऐसे कथित टॉपरों मे से अधिकतर विद्यार्थी वे होते हैं, जो सही ढंग से न तो हिन्दी जानते-समझते हैं और न ही अँगरेज़ी! ‘परीक्षा के टकसाल’ कहे जानेवाले वे दोनो ही बोर्ड विद्यार्थियों के सबसे बड़े शत्रु हैं। जब वे सभी ‘टॉपर’ उन परीक्षाओं का सामना करते हैं, जहाँ अपेक्षाकृत कम कदाचार होता है, वहाँ वे बार-बार विफल होते नज़र आते हैं और अन्त मे, निराश होकर उनमे से कुछ देश का ‘नेता’ बनकर संसद् मे पहुँचकर लात-जूता करते हैं; माँ-बहन को तोलते हैं; कुछ राहज़नी और ठगी करते हैं तथा चोरी लूट-डक़ैती भी। ऐसा हम आये-दिन मीडियातन्त्र के माध्यम से सूचना प्राप्त करते रहते हैं। ऐसे ही जाहिल भारतमाता के माथे का कलंक बनते दिखते हैं। गाँव-देहात के स्कूलों से नक़्ल (नकल/नक़ल) के बल पर टॉपर का तमगा अपने माथे पर चिपकाये लड़कियाँ अपनी तथाकथित क़िस्मत पर ज़ार-ज़ार रोती दिखती हैं। आप उस स्थिति पर ज़रा विचार करें कि प्राय: गाँव की लड़कियों को एक कक्षा से दूसरे कक्षा मे ‘हेला’ (पहुँचा देना) दिया जाता है; उन्हें बी० ए०-एम० ए० तक करा दिया जाता है, इस उद्देश्य से कि एक पढ़ी-लिखी महिला के रूप मे उसकी ससुराल मे स्थापना हो सके। वैसी ही महिलाएँ एक घरेलू पत्र तक लिखने मे समर्थ नहीं दिखतीं। मेरा एक मित्र है, उसकी भाभी यूसुफ़पुर (ग़ाज़ीपुर) की हैं। काग़ज़ पर एम० ए० की डिग्री प्राप्त है; परन्तु अपने ‘देवर’ को पत्र लिखती हैं तो अशुद्धियों का अम्बार लग जाता है। कहाँ ह्रस्व उ है; दीर्घ ऊ है; ह्रस्व इ है; दीर्घ ई है; अनुस्वार है; अनुनासिक है; वाक्यगठन कैसे होता है, मालूम ही नहीं। यह तो एक उदाहरणभर है। इस कोटि के जीव हर जगह फूल-फल (‘फल-फूल’ अशुद्ध प्रयोग है।) रहे हैं।
गाँव-गाँव, शहर-शहर तरह-तरह के महाविद्यालय खुल गये हैं, जो सुविधा-शुल्क लेकर प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण कराने का ठीका (‘ठेका’ अशुद्ध शब्द है।) ले लेते हैं। गोंडा से एक सांसद ऐसा है, जिसके ५४ शैक्षणिक संस्थान हैं। बताया जाता है कि वह कथित सांसद गुण्डा है; दबंग है; शासन-प्रशासन को अपनी मुट्ठी मे किये रहता है। ऐसे मे, विचार करें, क्या यह खुल्लम-खुल्ला धन्धा नहीं है?
सरकार चलानेवालों और जनप्रतिनिधि कहलानेवालों के परिवार के लोग और उनके रिश्तेदार इस मलाईदार धन्धे मे “सिर से पैर तक” डूबे हुए हैं। उन्हीं मे से अधिकतर अभ्यर्थी रिश्वत देकर नौकरी भी पा जाते हैं और ऐसे लोग ही वहाँ हर तरह के पापाचार का वातावरण तैयार कर, कदाचार को प्रश्रय देते आ रहे हैं; योग्य अभ्यर्थियों को आने नहीं देते, जैसा कि हम कई दशक से मौन साधे देखते आ रहे हैं।
इन कुकृत्यों को बढ़ावा देने मे उन माँ-बाप और अभिभावकों की सर्वाधिक भूमिका रहती है, जो रुपये और पहुँच की ताक़त दिखाकर-दादागिरी का प्रदर्शन कर-करवाकर अपने बच्चों और पाल्यों को अवैध तरीक़े से प्रवेश और परीक्षा दिलवाकर समूची व्यवस्था को ललकारते आ रहे हैं। इससे हमारे उन विद्यार्थियों के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लग जाता है, जो अति-मेधावी होते हैं; परन्तु संस्कारवान होने के कारण वे अनुचित मार्ग का चुनाव नहीं कर पाते। इसका यह अर्थ नहीं कि देश की वास्तविक प्रतिभा और मेधा के साथ खुली आँखों से अन्याय किया जाये और शासन-प्रशासन के ज़िम्मादार (जिम्मेदार/ज़िम्मेदार शब्द-प्रयोग अशुद्ध है।) लोग अपनी-अपनी आँखों पर पट्टियाँ बाँधकर ‘धृतराष्ट्र और गान्धारी’ की घृणित भूमिका मे दिखते रहें। ऐसे बेईमान लोग को अब ‘सबक़’ सिखाने का समय आ चुका है।
यह परीक्षा-पद्धति अब “कोढ़ मे खाज” का काम कर रही है। हमारे देश के अधिकतर बुद्धिजीवी और शिक्षाशास्त्री बिक गये हैं; वे सिफ़लिस के रोगी की तरह से चादर तानकर अपना गर्हित जीवन काट रहे हैं। उन्हें इस सड़ी-गली शिक्षा-परीक्षा-व्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे मे, जागरूक-वर्ग को चाहिए कि वे इसके विरुद्ध अब उठ खड़े हों।
सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ९ जून, २०२३ ईसवी।)