एक कवि का दृष्टिबोध

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय-

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

पसीने से हो तर-ब-तर,
हवा चलती रही बेक़द्र।
सूरज मद्धिम हो रहा,
दीये-बाती-सा जलकर।
गुस्ताख़ियाँ बूढ़ी हो रहीं,
साल का ख़त्म एक सफ़र।
आगाज़ अंजाम से यों बोला,
”तूने बरपाये बहुत क़ह्र।
सीने पे मूँग दले बहुत,
पिलाये भी बहुत ज़ह्र।
दिन में तारे बहुत उगे,
रात होती रही सहर।
‘नमामि गंगे’ बिसर गये,
गंगा होती रही नहर।
बूढ़ी ग़ज़ल बदल डालो,
लगती अच्छी नहीं बह्र।
अब गाँव ‘गाँव’ न रहा,
शरमाते हैं सब शहर।
कुछ अच्छा भी रहा,
जवाँ होते रहे पहर।