● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
“नाम बड़े, पर दर्शन थोड़े” तब चरितार्थ होता है जब वस्तुस्थिति का प्रत्यक्षीकरण होता है। हम अपने ‘मुक्त मीडिया’ (सोसल/सोशल मीडिया) के माध्यम से उन लोग का भाषा, साहित्य, व्याकरण, विज्ञान तथा बौद्धिक स्तर को निकट से समझ रहे हैं, जिनके नाम और पदनाम का दसों दिशाएँ डंका बजाती आ रही हैं। विचार और व्यवहारस्तर पर ऐसे लोग कितने हीन हैं, इसका बोध कराता है, उनका कथन और लेखन। आन्तर्जालिक (ऑन-लाइन) आयोजनो मे उनकी रचना और अभिव्यक्ति कितनी शिथिल है, इसे निकट से प्रतिदिन समझने को मिल जाया करता है।
देश के नामचीन और समीचीन लोग (अन्य जितने भी प्रकार के हो सकते हैं।) के जब ‘कथन’ और ‘लेखन’ सामने आते हैं तब उनके ‘वाक्यविन्यास’ देखकर, उनके भाषा-व्याकरणबोध का स्तर समझकर तथा उच्चारण सुनकर मन विस्मय से भर उठता है; मन-मस्तिष्क के सौवें मंज़िल से आत्महत्या करने के प्रयास मे यह घायल प्रश्न ‘दिव्यांग की स्थिति प्राप्त करता हुआ कराह उठता है :– क्या वे वही लोग हैं, जो टिटिहरी की तरह से ‘शिक्षा’ और ‘साहित्याकाश’ को परम्परागत तरीक़े से अपने पैरों पर टिकाये हुए हैं?
यह प्रश्न उस वर्ग के गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा की तरह से पड़ता है, जो स्वयं को शिक्षाशास्त्री, समीक्षक, समालोचक, भाषावैज्ञानिक (यहाँ ‘भाषाविज्ञानी’ शुद्ध है।) और न जाने क्या-क्या कहते-कहलवाते फिरते आ रहे हैं और उनमे से बहुसंख्य को उनके ‘अस्तित्ववाद’ की न तो समझ होती है और न ही परख। दु:ख इस विषय को लेकर है कि ऐसे ही लोग ‘घोरियाघोरियाकर’ (भोजपुरी बोली है।)/ चक्कर लगालगाकर घिंघियाते हुए, “यस सर-यस सर, सर-सर-सर” करते हुए, कभी इस संस्थान, उस ऐकडेमी, इस केन्द्र, उस परिषद्, इस बोर्ड तथा उस आयोग मे मुँह मारते हुए, देखे जाते हैं। उन्हीं मे से बड़ी संख्या मे ऐसे चेहरे हैं, जिनके पाले मे कोई एक शब्द फेंक दीजिए और उनसे कहिए कि वे उस शब्द पर १० मिनट का आशु व्याख्यान कर दें। ऐसे मे, वे कुछ पल तक आकाश मे उमड़-घुमड़ रहे चित्र-विचित्र मेघों की ओर इस आशा मे देखेंगे कि कहीं से कोई मेघ विषय से सम्बन्धित शब्दवर्षा कर दे वा ज्ञानवृष्टि कर दे।
नामचीनो की यही स्थिति हर क्षेत्र मे है। ऐसे लोग एक हाथ से लेते आ रहे हैं और दूसरे हाथ से देते (यहाँ ‘देते आ रहे हैं’ अशुद्ध है।)। ऐसे ढुलमुल और गर्हित चरित्र से युक्त लोग से दूरी बनाकर रहने मे ही भलाई रहती है। ऐसे नामचीन चेहरे समझौतापरस्त ज़िन्दगी जीते आ रहे हैं; क्योंकि उन सबका एक सिरे से स्वाभिमान दरका हुआ रहता है। ‘सर-सर और सर जी’ की परम्पराजीवी लोग अपने साहित्यिक, बौद्धिक तथा शैक्षिक कुनबे बनाकर चलते हैं, जिससे कि कहीं किसी फँसाव की स्थिति मे सारे ‘नील शृंगाल’ एक साथ हुआँ-हुआँ कर, ‘संघटन मे शक्ति है’ का प्रतिपादन करने लगें। आज समूचे समाज मे यही हो रहा है; क्योंकि समाज की कोख से ही ‘राजनीति’ निकली है, हमे इसका विस्मरण नहीं करना होगा।
पहले लोग नामचीन की छाया बनने के लिए ‘महागुरु’ की खोज मे निकलते थे; अब स्थिति बदली हुई है; ज़ोरदार कुर्सी पाते ही उस पर बैठने से पहले ही स्वयं को ‘नामचीन’ घोषित कर देते हैं। वे ‘हिंदी साहित्य के महान आलोचक’, ‘व्याकरणाचार्य’, ‘हिंदी के प्रकांड पंडित’, ‘हिंदी के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’, ‘आचार्य’, ‘हिंदी के महान कथाकार’, ‘हिंदी के महान/सर्वश्रेष्ठ कवि’, ‘हिंदी की महान/सर्वश्रेष्ठ कवियित्री/कबित्री/कवित्री’ आदिक उपाधियों से स्वयं मण्डित कर लेते-लेती हैं। यह पृथक् विषय है कि शुद्धता के साथ ‘हिंदी’, ‘हिंदी साहित्य’, ‘महान’, ‘सर्वश्रेष्ठ’, ‘कवियित्री’/’कबित्री’/’कवित्री’ को कैसे लिखा जायेगा, उन्हें इसका बोध न हो। ऐसे नामचीन लोग ‘हिंदी विभाग’, ‘संस्कृत विभाग’, ‘इतिहास विभाग’, ‘राजनीति शास्त्र विभाग’, ‘मनोविज्ञान विभाग’, ‘समाज शास्त्र विभाग’, ‘भूगोल विभाग’, ‘गणित विभाग’, वाणिज्य विभाग’, ‘विधि विभाग’, ‘रसायन विभाग’, ‘प्राणी विज्ञान विभाग’, ‘भौतिक विज्ञान विभाग’, ‘जीव विज्ञान विभाग’ तथा शेष समस्त शैक्षिक विभागों के अध्यक्ष भी बन जाते हैं; परन्तु अपने विभागों का शुद्ध नाम तक नहीं लिख पाते और ऊपर अशुद्ध लिखे गये विभागों के नामो को शुद्ध करने-कराने की सामर्थ्य अर्जित नहीं कर पाते। देश का संस्कृत का विचक्षण कहलानेवाला व्यक्ति ‘सन्स्कृत’ कहता है तब लगता है कि ज्ञानस्तर पर वह कितना खोखला है और भटका हुआ भी। सच तो यह है कि वह तो अपने मूल से कटा हुआ है। ऐसे लोग के ‘आत्मवृत्त’ पर यदि दृष्टिपात किया जाता है तो अधिकतर ‘गोल्ड मेडलिस्ट’, ‘फ़ॉरेन रिटर्न’ तथा न जाने कितनी मरीचिका के आवरण मे दिखते हैं।
ऐसे मे, उक्त प्रजातिवाले नामचीन लोग से एक प्रश्न तो किया ही जा सकता है― जब अपने विषय और विभाग का शुद्ध लेखन करने की क्षमता नहीं है तब किस बात के अध्यापक-प्राध्यापक, विद्वान् हो तथा विशेषज्ञ हो?
इस ‘मुक्त मीडिया’ के माध्यम से जब विश्वविद्यालय और समस्तरीय, अन्तरराष्ट्रीय आयोजनो, पुरस्कार-सम्मानो से सम्बन्धित पत्र-प्रपत्र, प्रमाणपत्र, आयोजन-पट्टिका आदिक पर दृष्टि घूमती है तब उनमे मुद्रित अर्थहीन शब्दों पर विचार करते ही सम्बन्धित संस्थानो के नामचीन लोग के खोखले भाषा-स्तर का बोध होने लगता है। ऐसे लोग आयोजन के लिए विषय का निर्धारण तो कर लेते हैं; परन्तु विषय के लिए किस प्रकार के शब्द का व्यवहार करना चाहिए, इसकी समझ सर्वथा नहीं होती। यही कारण है कि जब बिना शब्दसामर्थ्य-वर्द्धन के किसी भिन्न प्रकार की शब्दावली का प्रयोग किया जाता है तब वह हास्यास्पद और विषम शब्दप्रयोग का द्योतक होता है।
अब उन नामचीनो के चरित्र और चेहरे का वर्णन करना युक्ति-युक्त होगा, जो शोधकर्म कराकर अपनी पीठ थपथपाते आ रहे हैं। देश के जितने भी विश्वविद्यालय हैं और ऐसे संस्थान हैं, जहाँ शोधकर्म कराये जाते हैं, उनमे से न्यूनतम ९० प्रतिशत ऐसे हैं, जहाँ के शोध करानेवाले नामचीन लोग अपने सम्बन्धित शोधार्थियों को चौरकर्म की शिक्षा-देकर उनकी मौलिक प्रतिभा का दमन करते आ रहे हैं; उनसे एक बड़ी धनराशि ऐंठकर स्वयं दबा लेते हैं और आंशिक धनराशि का भुगतान उस परीक्षक को करते हैं, जो बिना शोधकर्म की वास्तविकता को समझे, उन पर हस्ताक्षर कर देता है। ऐसे-ऐसे शोधार्थी हैं, जो निर्धारित शोधविषय पर १०० शब्द भी लिखने मे असमर्थ हैं। वैसे ही अकर्मण्य शोधार्थियों के ‘क’ से ‘ज्ञ’ तक के शोधलेखन को कथित शोधनिर्देशक अपने किसी विद्यार्थी वा स्वयं पूरा करके परीक्षक से हस्ताक्षर तक करवा लेते हैं। ऐसे भी धूर्त्त-मक्कार प्राध्यापक हैं, जो शोधनिर्देशक और परीक्षक को सफारी सूट और ₹४०-५० हज़ार वा स्कूटी देकर अपनी पत्नियों को पीएच्० डी० और डी० फ़िल्० करवाये हुए हैं। यह स्थिति खुला विश्वविद्यालय और बन्द विश्वविद्यालय की भी है। इन्हें सभी कुलपति भी जानते हैं; क्योंकि वे भी ऐसे ही कुकृत्य के द्वारा शोधकर्म पूर्ण किये हुए रहते हैं। वहीं ऐसे भी नामचीन हैं, जो इस चिन्ता को लेकर मरते रहते हैं कि उनपर शोध हो जाये। इसके लिए उनका भी अपना एक गुट होता है, जिसमे ऐसे लोग भी होते हैं, जो उनपर वा उनकी कृति/कृतियों पर शोध करा दे। आश्चर्य तब होता है कि किसी की एक ही पुस्तक पर शोध करा दिया जाता है; चार-छ: पुस्तकों के लेखन करनेवालों पर भी शोध करा दिये जाते हैं। उन्हीं मे से कई ऐसे हैं, जो अपनी शोधपिपासा का शमन करने के लिए स्वयं ही शोधलेखन कर देते हैं। यदि कोई राज्यपाल वा मुख्यमन्त्री वा उच्चपदस्थ पुलिस-अधिकारी वा अन्य प्रशासनिक अधिकारी है तो उसके ‘सड़कछाप’ लेखन पर भी शोध कराये जा चुके हैं; कराये जा रहे हैं। ऐसी है, शोधनिर्देशक, परीक्षक तथा जिस पर शोध कराये जाते हैं, उनकी निर्लज्जतामयी गाथा!
(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ४ अगस्त, २०२३ ईसवी।)