भयभीत, मूल्यहीन, दु:खग्रस्त मनुष्य का जीवन किसी अभिशाप से कम नहीं

तीन बातों का स्व आत्मनिरीक्षण कीजिए-

  1. क्या आपमें भय की ग्रन्थि है?
  2. क्या आपमें हीनता की ग्रंथि है?
  3. क्या आपमें दुःख की ग्रंथि है?

यदि ये तीनों या इनमें से कोई भी दो या कोई भी एक ग्रंथि आपके हृदय में विद्यमान है तो आप उतनी ही मात्रा में विक्षिप्त रहते हैं..!

इन ग्रंथियों/विक्षेपों/रोगों से मुक्त हुए बिना आप स्वस्थ नहीं हो सकते।
ऐसी दशा में आपको सुरक्षा, सम्मान और सुख का बोध नहीं हो पाता।
तब आप सुरक्षित होकर भी भयभीत, सम्मानित होकर भी दीन, तथा सुख भोगते हुए भी दुःखी अनुभव करते हैं।

भयभीत, मूल्यहीन, दु:खग्रस्त मनुष्य का जीवन किसी अभिशाप से कम नहीं होता।
उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व इन ग्रंथियों से ही निरंतर प्रभावित रहता है और वह अपने सहज सच्चिदानंदमयी स्वरूप को खो बैठता है।
और अपनी आदतों का गुलाम, इच्छाओं का दास बन जाता है।

प्रश्न:-
भय की ग्रंथि क्या है और इससे कैसे मुक्ति प्राप्त की जा सकती है ?

भय की ग्रंथि का मूल कारण मृत्युबोध है।

पूरी दुनिया को डरा कर गुलाम बनाये रखने के लिए भय की संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया गया है धूर्तों द्वारा।

इसी वजह से जनता में अधिकांश लोगों के भीतर भय का संस्कार बैठ जाता है।
हर साधू चीख रहा है मृत्यु ही सत्य है।
मृत्यु सुनिश्चित है।
जबकि मृत्यु असत् है।
मृत्यु यथार्थ नहीं है।

वास्तव में जीवन सत्य है।
चेतना सत्य है।
आत्मा सत्य है।
आत्मा की सर्वव्यापकता सत्य है।
भय निरर्थक है।
अज्ञान या दुर्ज्ञान ही भय का मूल है।

मृत्यु वास्तविक नहीं है।
लेकिन मृत्यु का झूठा बोध या मिथमान्यता जब मनुष्य के हृदय में बैठ जाती है तब वह भयभीत रहने लगता है।

जब सुरक्षित रहते हुए भी भय की अनुभूति हो तो समझना चाहिए कि मनुष्य के हृदय में भय की ग्रंथि बन चुकी है।

ग्रंथि से पूरा जीवन ही बर्बाद हो जाता है।

ग्रंथि के कारण मनुष्य की प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक विचार, प्रत्येक इच्छा प्रभावित रहती है।

ग्रंथि से प्रेरित होकर ही सब कुछ होने लगता है।

इन्द्रिय, मन, प्राण आत्मा इत्यादि चारों आयामोंं पर ग्रन्थियां अपना प्रभुत्व जमा लेतीं हैं।
इन्हें ही विक्षेप कहते हैं।

इन ग्रंथिविक्षेपों से ग्रस्त होने पर ही मनुष्य विक्षिप्त कहलाता है।

विक्षेप के अधीन होकर उसका विवेक खो जाता है।

उसकी आत्मा उसकी आदतों की दास हो जाती है।
और तब वह पशुतुल्य जीवन जीने को विवश हो जाता है।

जो जितना विक्षिप्त है वह उतना ही अपनी वृत्तियों का दास बना रहता है।

हीनता क्या है..?
इससे मुक्त कैसे हुआ जाता है..?
हीनभाव से छुटकारे का उपाय क्या है..?

हीनता एक नकारात्मक ग्रंथि है।
स्वयं के बारे में एक विचित्र गलत धारणा होती है क़ि मैं मूल्यहीन हूँ।
मेरा कोई मान नहीं..!
मेरी कोई इज़्ज़त नहीं..!

सही मान का पता ना होना ही इसकी मूल समस्या है।
मान अथवा मूल्य केवल गुणों का होता है।
गुण कौशल का अभाव यदि हो जाये तो गुण होते हुए भी हीनभाव पकड़ सकता है- जैसे
परवीन बाबी।

भारत की सुप्रसिद्ध सुपरहिट हीरोइन।
हीनता की ग्रंथि से पीड़ित होकर
घर के भीतर घुट-घुट कर मर गयी।
इसमें चक्कर दूसरे का नहीं है।
बीमारी खुद के भीतर ही होती
है हीनभाव की।

यदि बचपन से कोई यह न बताये कि तुम मूल्यवान हो तो बहुमूल्य होते हुए
भी मूल्यहीनता पकड़ लेती है।
वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति को कोई सच्चा प्रेम करने वाला चाहिए होता है।
जो उसके मान और मूल्य का बोध उसे कराता रहे।

वरना वह घुट-घुट कर ही जियेगा।
धन्य हैं वे लोग जिनको ऐसे कोई माता-पिता या कोई भाई या बहन या दोस्त मिल जाते है,
जो उसको यह बताते है कि तुम मूल्यवान हो।

हमने खुद भी ऐसे हज़ारों लोगों को उनकी मूल्यवत्ता का बोध
कराया होगा।
जो बहुत हीनभाव को प्राप्त थे
वैसे इस हीनभाव से छुटकारे का सर्वश्रेष्ठ उपाय दार्शिनक ज्ञान
ही है।

किन्तु जिसे हीनभाव पकड़ लेता है वह ऐसे दार्शनिक ज्ञान से बचता
रहता है।
वह दार्शनिक व्यक्तियों और ग्रंथों से भी दूर भागता है।
वह जीवन भर सम्मान की खोज में अपमान भोगता है।
वह श्रेष्ठ व्यक्तियों से दूर भागता है।
निकृष्टों के निकट जाता है जो खुद ही इसी
बीमारी से ग्रस्त रहते हैं।

अतः वे दोनों एक दूसरे से सम्मान की इच्छा रखते है और एक दूसरे का अपमान करते रहते हैं
दोनों ही मान के भिखारी एक दूसरे को अपमानित ही
करते हैं और दुःख भोगते हैं।
वर्तमान संसार में प्रायः 90% लोग अपमान की ग्रन्थि से
हीनभाव को प्राप्त हैं।

कोई कम कोई ज्यादा।
किन्तु यदि बचपन से ही दर्शन की शिक्षा सुलभ हो तो
अधिकाँश लोग इस हीनभाव से ग्रस्त ही नहीं हो पाएंगे।

तो उनका इलाज भी नहीं करना पडेगा।
अभी तो 3 बड़े मनोरोग हैं लोगों में- दुःख, भय, अपमान।
भावरूप में ये तीनो मनोरोग भीतर ह्रदय में बैठ जाते हैं।
और मनुष्य के पूरे जीवन को दुःख से, भय से, अपमान से भर देते हैं।
ये ग्रन्थियां बचपन में ही बैठती हैं जब किसी ने बार-बार यह कहा कि –

तुम सुन्दर नहीं हो..!
तुम मूर्ख हो…!
तुम गंदे हो..!
तुम पागल हो..!
तुम नालायक हो..!
तुम गधे हो..!
तुम राक्षस हो..!

तुम कुछ नहीं कर सकते हो..!
बचपन से बारम्बार सुनी हुई ऐसे हीन बातें ही व्यक्ति को हीन बना डालती हैं।
ऐसी ग्रंथियों से पीड़ित लोग नशे के सहारे ही
जीवित रहते हैं अन्यथा आत्महत्या कर लेते हैं अथवा दूसरों पर आक्रमण करते रहते हैं।

संस्कृति ही यदि ध्वस्त हो तो संस्कार अच्छे नहीं मिल सकते किसी को।
असभ्य वातावरण में संस्कृति शुद्ध नहीं रह सकती।
अतः न्यायशील सभ्य व्यवस्था ही इन समस्याअों का सही समाधान है।

अपमान की ग्रंथि को कैसे पहचाना जाए और कैसे समाप्त किया जाए ?

हीनभाव (Inferiority Complex) के कारण ही अपमान की अनुभूति होती है।

जब मनुष्य स्वयं को मूल्यहीन महत्त्वहीन मान बैठता है।
तब वह निरंतर इस शंका से भरा रहता है कि दूसरे ने उसे अपमानित ही किया था, करता है अथवा करेगा।

यह भी ध्यान रखिये कि Superiority का कोई काम्प्लेक्स नहीं होता।
इन्फीरियर ग्रन्थि से पीड़ित व्यक्ति ही Superiority का नाटक करता है जीवन भर।

Superiorty वास्तविक हो तो अच्छा है लेकिन काल्पनिक हो तो दर्प बन जाती है।

हीनभाव से ग्रस्त व्यक्ति Superiority का पाखंड करता है, बड़ी-बड़ी डींगे मारता है, लंबी-लम्बी फेकता है।

अपमान अनुभव करने वाला व्यक्ति कभी सम्मानित नहीं होता उसे चाहे कितना भी सम्मान दिया जाए उसे तृप्ति नहीं मिलती।

वह तो बस दूसरों को अपमानित करने में ही कुछ राहत अनुभव करता है।
अपमान के बदले सम्मान पाने की चाहत उसमें नहीं होती बल्कि वह अपने अपमान के बदले में दूसरे को अपमानित करने को ही आतुर होता है।
ऐसा व्यक्ति सदैव आक्रामक होता है।

यह दूसरों को कभी सम्मान या आदर नहीं दे पाता।
दूसरों की महिमा दूसरों के गौरव इसे कभी सहन नहीं होते।
इन त्रि-ग्रंथियों से पीड़ित व्यक्ति प्रायः दुष्ट हो जाता है।

सत्ज्ञान, सद्गुण और कर्मकौशल बढ़ाते रहिये अभ्यास द्वारा।
और अपने अभ्यस्त सद्गुणों और कर्मकौशलों को उपयोग करके के परिणाम भी उत्पन्न करते रहिये।
और अपनी अच्छाइयों, सद्गुणों, कौशलों, सफलताओं को सदैव याद कीजिए।

बुराइयों असफलताओं को भूलते रहिये, इनको लर्निंग प्रोसेस का अंग समझिये।

दु:ख की ग्रंथि परेशान कर रही है, क्या करें..?

प्रियता से सुख और अप्रियता से दुःख उत्पन्न होता है।
अर्थात् प्रिय और अप्रिय की मान्यताएं ही सुख और दुःख का कारण हैं।

संसार में स्वीकारभाव की वृद्धि करो..!
दूसरों से घृणा ही अस्वीकारभाव है..!
घृणा ही सब दुःखों का मूल है।

प्रेम ही सब सुखों का मूल है।
जो जितनी मात्रा में योग्य है शुभ है, सुन्दर है, श्रेष्ठ है उसे उतना ही प्रेम करो, सुख बढ़ेगा।

योग्य सुंदर, शुभ, श्रेष्ठ के प्रति घृणा या तिरस्कार का भाव धारण करने से ही दुःख उत्पन्न होता है।
सुंदर और सम्पूज्य से भी जो घृणा करता है वही दुःख को प्राप्त होता है।

दूसरों के प्रति संवेदनशील बनो, किसी को दुःख मत पहुचाओ, इससे तुम्हारे हृदय में प्रेम जागेगा, सुख उपजेगा और दुःख मिट जायेगा..!

प्रेम का जागरण ही सुख है, आनंद है, मस्ती है, मादकता है।
जिसके हृदय में दूसरों के प्रति जितना प्रेम है वह उतना ही सुखी रहता है,
और जिसके हृदय में दूसरों के प्रति जितनी घृणा है वह उतना ही दुःखी रहता है..!

सुख-दुःख के मूल इस प्रियाप्रिय के रहस्य को जानो, मानो, जियो, सुखी हो जाओगे और सब दुःखों से मुक्त हो जाओगे।

✍️?? (राम गुप्ता, स्वतन्त्र पत्रकार, नोएडा)