“डंके की चोट पे” अब दो हज़ार बाईसवाँ वर्ष जीना है

★ आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

पौने तेरह महीने तू-तू, मै-मै और न जाने क्या-क्या लोग करते रहे हैं और जैसे-जैसे तेरहवें महीने के गर्भ से दो हज़ार बाईसवाँ फुदकने की तैयारी मे है; लोग शिकवा-शिकायत-गिला की गठरी और मुआफ़ीनामा के कागज-पत्तर अपने सिर और कन्धे पर लिये सरे आम हो गये हैं।

सत्य तो यह है कि इधर, वर्ष २०२१ कुछ डग भरेगा, उधर, उसके मुण्डन-संस्कार से पहले ही अपने मुरचाये म्यान से मुग़लिया तलवार खिंच कर, ”तेरी मा की, तेरी बहन की” ‘न्यू इण्डिया’ वाली माला की जाप में लोग-बाग़ लग जायेंगे।
मर्द वह है, जिसने दुश्मनी की तो ‘दुश्मनी’; दोस्ती की तो ‘दोस्ती’, दो मुहोंवाली स्थिति सेहत और समाज के लिए घातक होती है।
अपने ‘रमता जोगी’ के लिए जैसे “तीरघाट वैसे मीरघाट”। जो कुछ भी बदलेगा, उसमें मेरी/मेरे ‘सामर्थ्य’ की भूमिका रहेगी; पुरुषार्थ का बल रहेगा तथा अध्यवसायिकता का आधार संलक्षित होगा। अस्तु, कहीं-कोई परिवर्त्तन नहीं, जीने-मरने का अन्दाज़ वही रहेगा, जो अब तक रहा है।

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ– मन-मस्तिष्क ज़िन्दाबाद!

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३१ दिसम्बर, २०२१ ईसवी।)